Saturday, 1 March 2014

विश्व व्यापार संगठन का बाली सम्मेलन साम्राज्यवादी देशों द्वारा दबाव डालने का हथकंडा

रघबीर सिंह
साम्राज्यवादी देश, विकासशील देशों की लूट को बढ़ाने व अपने आर्थिक संकट का अधिक से अधिक बोझ उन पर लादने के लिए अब दबाव डालने व ब्लैकमेलिंग के हथकंडे पूरी तरह बेशर्म होकर अपना रहे हैं। उन्होंने विश्व के लगभग समस्त विकासशील देशों को अपनी आर्थिक संस्थाओं विश्व बैंक, अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष तथा विश्व व्यापार संगठन के जाल में बुरी तरह जकड़ लिया है। यह सारे देश उन देशों की ओर से इस तिकड़ी द्वारा तैयार की गई लुटेरी शर्तों को मानने के लिए मजबूर किए जा रहे हैं। 1991 में सोवियत यूनियन के ध्वस्त होने के बाद उन्हें पूरी तरह अपना सिक्का चलाने की छूट मिल गई है।
उनकी लूट का हथियार विश्वीकरण, उदारीकरण तथा निजीकरण के धोखे भरे नारों पर आधारित नवउदारवादी नीतियां हैं। यह नीतियां बाजार को बेलगाम आजादी देती हैं तथा किसी भी देश की सरकार को अपने देश के गरीब से गरीब व पिछड़े 
लोगों के पक्ष में दखल देने से रोकती हैं। वे गरीब देशों के प्राकृतिक आर्थिक संसाधनों पर कब्जा करने के लिए देशी 
व विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियों को खुली छूट दिए जाने के लिए उनकी सरकारों पर हर तरह का दबाव बनाती हैं तथा 
इसके लिए वह फूटपरस्त व अलगाववादी शक्तियों को शह देती हैं, तथा गरीब देशों में राजनीतिक अस्थिरता पैदा करती हैं। यदि इस पर भी यह देश उनकी आकांक्षाओं के अनुसार न चलें तो साम्राज्यवादी देश फौजी हमले करके विरोध करने वाली इन शक्तियों को तबाह कर देते हैं तथा अपनी पिछलगू सरकारें कायम कर लेते हैं। अफगानिस्तान, इराक तथा लीबिया अपने तेल भंडारों तथा अन्य कीमती प्राकृतिक संसाधनों के कारण उनका शिकार बन चुके हैं। सीरिया इनकी हमलावर नीतियों का बुरी तरह शिकार बन रहा है। ईरान इनकी आँखों में चुभता है।
इन आक्रमणकारी साम्राज्यवादी देशों के गिरोह के लिए एक अनुकूल बात यह है कि भारत जैसे देशों में सत्ताधारी वर्ग ने ही इन की नीतियों को तन, मन से अपना लिया है। बदले हुए अंतर्राष्ट्रीय हालात में वे अपने वर्गीय हितों को इन नवउदारवादी नीतियों के पूरी तरह अनुकूल समझते हैं। वे खुशी-खुशी इन नीतियों को पूरे उत्साह से लागू कर रहे हैं। इन नीतियों के कारण तबाह हो रहे, मजदूरों, किसानों, छोटे उद्योगों तथा कारोबारियों के हर विरोध को घिनौने से घिनौने दमन द्वारा दबाने में कोई झिझक नहीं दिखाते।
विश्व व्यापार संस्था का गला घोटने वाला फंदा
विकासशील व बहुत ही कम विकसित देशों पर अपनी लुटेरी शर्तें लागू करने के लिए इस समय सबसे अधिक घिनौनी व अमानवीय भूमिका विश्व व्यापार संगठन निभा रहा है। यह संगठन अपने जाल में फंस गए विकासशील व बहुत ही कम विकसित देशों की अब श्वास-नली को भी दबा रहे हैं। वे सारे के सारे कृषि कारोबार (्रद्दह्म्श क्चह्वह्यद्बठ्ठद्गह्यह्य) तथा ओद्यौगिक व्यापार पर कब्जा करने के लिए लंबे समय से कृषि धंधे के लिए सबसिडियां बंद करने या कम से कम इनको 10 फीसदी से न बढऩे देने की शर्त मानने, अंतर्राष्ट्रीय व्यापार के समय आयात पर लगी कस्टम ड्यूटी खत्म करने या नाममात्र करने तथा आधारित वस्तुओं को देश के हर कोने में पहुंचाने को समयबद्ध करने की शर्तें मानने के लिये गरीब देशों पर भारी दवाब बनाता आ रहे हैं।
इस संगठन के 159 देश सदस्य हैं। इस उद्देश्य के लिए वर्ष 2000 में विश्व व्यापार संगठन के सदस्य देशों के दोहा सम्मेलन में विकसित देशों द्वारा प्रस्ताव पेश किया गया था कि समस्त सदस्य देश प्रयत्न करें कि कृषि व्यापार में आते भटकावों (ष्ठद्बह्यह्लशह्म्ह्लद्बशठ्ठह्य) को रोकने के लिए कृषि धंधे के लिए दी जाती सबसिडियां कृषि उत्पादन के मुल्य से 10 प्रतिशत से ना बढऩे दी जाएं। कोई भी सरकार कृषि उत्पादन व कृषि व्यापार में हस्तक्षेप न करे। वे अपने किसानों को बीजों, खादों, कीड़ेमार दवाईयों तथा सस्ता बिजली पानी देकर किसान के कृषि खर्चे घटाने का कार्य धीरे धीरे बंद कर दें। हर सरकार किसानों से न्यूनतम सहायक मुल्य पर अनाज खरीदकर गरीबों को सस्ते भाव देने की जिम्मेदारी को निभाना धीरे धीरे बंद करे। बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा खेती उत्पादन व डेयरी वस्तुएं गरीब देशों में भेजे जाने पर लगाई जा रही मात्रात्मक रुकावटों (क्तह्वड्डठ्ठह्लद्बह्लड्डह्लद्ब1द्ग क्रद्गह्यह्लह्म्द्बष्ह्लद्बशठ्ठह्य) हटाई जाएं तथा कस्टम ड्यूटियां पूरी तरह खत्म कर दी जाएं या पांच प्रतिशत से किसी भी तरह अधिक न हों। यहां ही बस नहीं हर देश को अपने कुल उपभोग का पांच प्रतिशत अनाज आयात करना ही पड़ेगा चाहे उसके पास अपना अतिरिक्त अनाज क्यों न हो। ऐसे दबाव के कारण ही भारत ने यू.पी.ए.-1 के प्रारंभिक काल में पहले लाखों टन गेहूं सस्ते दामों पर निर्यात किया था तथा फिर उससे दुगने दामों पर आयात किया।
इसके अतिरिक्त अंतर्राष्ट्रीय व्यापार के बारे में दोहा सम्मेलन में साम्राज्यवादी देशों द्वारा पेश प्रस्ताव में कहा गया था कि देशों को आपसी मेल-जोल बढ़ाने तथा मुक्त व्यापार क्षेत्र (स्नह्म्द्गद्ग ञ्जह्म्ड्डस्रद्ग ्रह्म्द्गड्डह्य) बनाने की ओर बढऩा चाहिए। कम से कम अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में ऊंची कस्टम व एक्साईज ड्यूटियां व वस्तुओं पर मात्रात्मक रोकें लगाने की कोई जगह नहीं होना चाहिए। इसके अतिरिक्त आयात किए गए माल को बंदरगाहों से उठाने तथा देश के हर कोने में पहुंचाने के लिए बहुमार्गी सडक़ें, फ्लाईओवर, रेलवे लाईनें तथा रेल वैगनों के बहुत बड़े ढांचे का निर्माण किया जाना चाहिए। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर हुए समझौतों द्वारा निर्मित होने वाले प्रोजैक्टों, गैस व तेल पाईप लाईनों तथा बिजली प्रोजैक्टों के निर्माण का कार्य समयबद्ध किया जाना चाहिए। इसका उल्लंघन करने वाले देशों पर जुर्माना लगाया जाना चाहिए।
विश्व व्यापार संस्था में इन प्रस्तावों को बाजार में विकृतियां पैदा करने वाली सबसिडियां बंद करने तथा व्यापार का सरलीकरण (स्ह्लशश्चश्चड्डद्दद्ग शद्घ रूड्डह्म्द्मद्गह्ल ष्ठद्बह्यह्लशह्म्ह्लद्बठ्ठद्द स्ह्वड्ढह्यद्बस्रद्बद्गह्य ड्डठ्ठस्र ञ्जह्म्ड्डस्रद्ग द्घड्डष्द्बद्यद्बह्लड्डह्लद्बशठ्ठ) का नाम दिया गया है। इन प्रस्तावों की बुनियादी भावना गरीब देशों के किसानों को भिन्न भिन्न रूपों में मिल रही सबसिडियों को कम से कम करना तथा न्यूनतम समर्थन मुल्य तथा सरकारी खरीद व भंडारीकरण द्वारा गरीब लोगों को अनाज देना बंद करवाना था। इसके अतिरिक्त विश्व बैंक तथा अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष द्वारा शर्तों सहित लिए गए कर्जों द्वारा तथा बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा बुनियादी ढांचे का निर्माण करवाना ताकि विदेशी व देशी कापोरेट घरानों के लिए कारोबार करना तथा अमीर से और अधिक अमीर होना सरल हो जाए।
पिछले लगभग 12 सालों के दौरान दोहा सम्मेलन के उद्देश्य की पूर्ति के लिए अनेक बैठकें हो चुकी हैं। इस काल के दौरान विकसित देश, विकासशील व बहुत कम विकसित देशों को यह शर्तें मानने के लिए समूचे विश्व के विकास के साथ साथ उन देशों के मेहनतकश लोगों के विकास के सब्जबाग दिखाकर, उन्हें बड़े प्रोजैक्टों का लालच देकर तथा अधिकतर अवसरों पर उन्हें डरा धमकाकर व ब्लैकमेल करके सहमत करने का प्रयत्न करते हैं। पर वे इन प्रयत्नों में पूरी तरह सफल नहीं हो सके। इस सबके बावजूद वे कुछ हद तक भारत सहित विकासशील देशों की सरकारों को इन जनविरोधी कार्यों को सीमित रूप में किए जाने के लिए सहमत कर सके हैं। भारत सरकार इन शर्तों को लागू करने के लिए ही किसानों को दी जाती सबसिडियों को घटाने पर जोर दे रही है। इस उद्देश्य के लिए पैट्रोलियम, खादों व चीनी आदि को कंट्रोल मुक्त करके सबसिडियों में अप्रत्यक्ष रूप में कटौती की जा रही है। भारत सरकार ने धान की खरीद से लगभग पूरी तरह मुंह मोड़ लिया है।  धीरे धीरे गेहूँ के बारे में भी ऐसी नीति ही बनाई जाएगी। सबसिडी की अदायगी भी विश्व व्यापार संस्था के निर्देशों के अनुसार नकद किए जाने की प्रक्रिया आरंभ की जा रही है, जो भारतीय अवस्थाओं में दी जानी न तो ठीक है तथा न ही संभव है। ऐसी प्रक्रिया अन्य विकासशील देशों में भी लागू की जा रही है। बुनियादी ढांचे को ‘‘विश्व स्तर’’ का बनाने के नाम पर 6-6, 8-8 मार्गी सडक़ों तथा अनेक हवाई अड्डों का निर्माण किया जा रहा है।  इससे किसानों की लाखों एकड़ उपजाऊ भूमि तथा वृक्षों को नष्ट किया जा रहा है।
इस काल के दौरान साम्राज्यवादी देशों को बड़ी सफलता यह मिली है कि उन्होंने ने भारत, ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका तथा इंडोनेशिया जैसे देशों को नव-उदारवादी नीतियां लागू करने के मरणासन्न रास्ते पर पूरी तरह धकेल दिया है। वे इन नीतियों की दलदल में गले-गले तक धंस गए हैं। इससे विकासशील तथा बहुत कम विकसित देशों का आपसी विरोध कमजोर हुआ है। भारत इन देशों का नेतृत्व अनमने ढंग से करता है तथा ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका तथा इंडोनेशिया इस विरोध से लगभग कभी ही काट गए हैं। 3 से 6 दिसंबर तक बाली (इंडोनेशिया) में विश्व व्यापार संगठन के हुए सम्मेलन में इन देशों ने जी-33 देशों की ठोस रूप में मदद नहीं की। इंडोनेशिया का कहना था कि वह साम्राज्यवादी देशों की शर्तों को गलत तो मानता है, परंतु वह बहुमत के निर्णय को ही लागू करेगा।
बाली सम्मेलन का मुख्य मुद्दा
बाली सम्मेलन को संसार व्यापार संगठन के सदस्य विकसित देश दोहा राऊंड का आखरी पड़ाव मानकर आए थे। वे अब इसे  और लंबित करने तथा स्थिति को ज्यों का त्यों रखने  के लिए तैयार नहीं थे। भारत में केंद्रीय सरकार द्वारा पारित भोजन सुरक्षा कानून जिसके लिए सरकारी खरीद, भंडारीकरण तथा अनाज गरीब लोगों को सस्ते दामों पर दिए जाने की बुनियादी जरूरत बन जाती है, से  विकसित देश बहुत नाराज थे। इस सम्मेलन में अमरीका, कनाडा तथा यूरोपीय यूनियन द्वारा लिखित रूप में भारत के इस कानून के विरुद्ध सख्त एतराज दर्ज कराया गया था। दूसरी ओर जी-33 देशों  द्वारा पेश प्रस्ताव था जिसमें मांग की गई थी कि उनके अपने देशों के लोगों को सस्ते दामों पर अनाज देना तथा उनके जीवन की रक्षा करनी उनका कानूनी व नैतिक कर्तव्य है। इसलिए इन देशों में अनाज की खरीद व भंडारीकरण करना उनका अधिकार व संवैधानिक जिम्मेवारी है। परंतु समस्त विश्व के मेहनतकशों को भुखमरी व कंगालीकरण का शिकार बनाकर ही अपने कृषि कारोबारों (्रद्दह्म्श क्चह्वह्यद्बठ्ठद्गह्यह्य) को चमकाने वाले मानवता विरोधी साम्राज्यवादी देश पूरे जोर से दबाव बनाकर अपनी शर्तों को मनवाने का प्रयत्न कर रहे हैं। विश्व व्यापार संगठन के अध्यक्ष रोबरलो इज्वडोने ने बड़े अहंकार तथा गुस्ताखी भरे अंदाज में कहा ‘‘या इसे मानो या संगठन से बाहर हो जाओ (ञ्जड्डद्मद्ग द्बह्ल शह्म् द्यद्गड्ड1द्ग द्बह्ल)।’’
परंतु भारत की अपनी घरेलू राजनीतिक, सामाजिक वास्तविकताओं ने हमारे प्रतिनिधिमंडल को लोगों की रोटी की रक्षा करने के लिए उन्हें सस्ता अनाज दिये जाने की जरूरत ने विकसित देशों की यह धोंस-पट्टी मानने से रोके रखा। उन्होंने विकसित देशों द्वारा पेश की क्कद्गड्डष्द्ग ष्टद्यड्डह्वह्यद्ग (पीस क्लाज) को मानने से भी इंकार कर दिया। इस धोखे भरी मद के अनुसार विकासशील देशों को 4 साल की छूट मिलती है। इस काल के दौरान उन्हें अनाज की सरकारी खरीद व भंडारीकरण की नीति बंद करनी होगी। जिसका अर्थ है कि भोजन सुरक्षा के कानूनी प्रावधान को समाप्त करना पड़ेगा। इस समय के दौरान खरीद सबसिडी 10 प्रतिशत से नहीं बढऩे दी जाएगी। इस तरह भारत व अन्य विकासशील देश अपने देश के लोगों को सस्ता अनाज दे सकने के अधिकार की रक्षा कर सके हैं।
चाहे यह बात कुछ हद तक संतोषजनक है कि देश की जमीनी स्थितियों, सामने आ रहे लोक सभा चुनावों तथा मेहनतकश व जनवादी लोगों के दबाव के मद्देनजर भारत के मौजूदा सत्ताधारी  साम्राज्यवादी देशों के दबाव के सामने झुके नहीं हैं। परंतु  दूसरी और व्यापार के सरलीकरण (ञ्जह्म्ड्डस्रद्ग स्नड्डष्द्बद्यद्बह्लड्डह्लद्बशठ्ठ) पर विकसित देशों की सारी बातें मानते आए हैं। इसका अर्थ होगा कि विदेशों से आने वाली ओद्यौगिक व कृषि वस्तुओं पर कस्टम ड्यूटी कम से कम की जाएगी, मात्रात्मक रोकें पूरी तरह हटानी पड़ेंगी, बहुत ही सख्त तथा देश की प्रभुसत्ता को कमजोर करती शर्तों पर बड़े कर्जे उठाकर हमें बहुमार्गी सडक़ों,  फ्लाई ओवरों तथा हवाई अड्डों का निर्माण करना होगा या कारपोरेट घरानों को इनका निर्माण करके टोल टैक्सों द्वारा अपने लोगों को लूटने की पूरी छूट देनी होगी। आयातित वस्तुओं की समुद्री जहाजों द्वारा आवक तथा देश में माल ढुलाई की व्यवस्था समयबद्ध करनी होगी। यह सारा कुछ करने के लिए हमें कानूनी रूप में पाबंद होंगे। इससे एक ओर हमारे छोटे व मध्यम उद्योग तो जो पहले ही अंतिम श्वासों पर हैं पूरी तरह बंद हो जांएगे तथा बेरोजगारी में और बढौत्तरी होगी। आयातित गैरजरूरी कृषि वस्तुओं, अनाज, खाद्य तेल तथा डेयरी व पोल्ट्री वस्तुएं हमारी कृषि व कृषकों के सहायक धंधों का गला घोट देंगे। कृषि से जमीन निकलकर गैर-कृषि घंधों में चली जाएगी। जिससे अनाज उत्पादन तथा भोजन सुरक्षा को गंभीर खतरा पैदा हो जाएगा। दूसरी और आयात बढऩे से, हमारा व्यापार घाटा तथा चालू खाते का घाटा ओर बढ़ेगा जिससे रुपए की कीमत और गिरेगी। फिर चालू वित्तीय घाटे को घटाने के लिए गरीब लोगों को दी जाती सबसिडियों में कटौती की जाएगी। यह सब कुछ देश की प्रभुसत्ता, भोजन सुरक्षा, वास्तविक अर्थव्यवस्था (कृषि उत्पादन तथा ओद्यौगिक उत्पादन) तथा लोगों के रोजगार की जड़ों को खोखला कर देने वाला है, इससे देश मेें साम्राज्यवादी शक्तियों का हस्तक्षेप बढ़ेगा तथा वे हमारी राजनीतिक आजादी को भी अस्थिर करेंगी।
क्या करना जरूरी है?
इस पृष्ठभूमि में देश के सत्ताधारी वर्गों तथा उनकी समस्त राज्य सरकारों व केंद्र सरकार की जिम्मेदारी बनती है कि वे अपने वर्गीय हितों की जगह देश तथा जनता के हितों की रक्षा करें। उन्हें साम्राज्यवादी देशों की लुटेरी नीतियों का विरोध करने के लिए समस्त विकासशील व बहुत ही कम विकसित देशों को एकजुट करना चाहिए। उन्हें जी-20 ग्रुप की जगह जी-77 तथा विशेष रूप में जी-33 देशों में अपनी जगह बनानी चाहिए। यह जिम्मेवारी सिर्फ भारत ही निभा सकता है। भारत के नेतृत्व में बना विकासशील व बहुत ही कम विकसित देशों का मंच यदि मजबूती से खड़ा हो जाए तो विकसित देशों की दादागिरी को सफलतापूर्वक रोका जा सकता है। भारत को खुले बाजार द्वारा होते विश्व व्यापार से भी बहुत लाभ होने वाला नहीं है। अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में भारत का हिस्सा भी अभी भी डेढ़-दो प्रतिशत तक ही सीमित है। बाली सम्मेलन के समझौते द्वारा जो एक हजार अरब (एक ट्रिलियन) डालर के अंतर्राष्ट्रीय व्यापार की चर्चा की जा रही है उसमेें भी भारत को लाभ कम होगा तथा नुकसान अधिक होगा। उसके निर्यातों के मुकाबले आयातों में कहीं अधिक वृद्धि होगी।
हम देशवासियों को अपील करना चाहते हैं कि समय के महत्त्व तथा समस्याओं की गंभीरता को समझें। साम्राज्यवादी देशों ने गरीब देशों के विरुद्ध अघोषित युद्ध शुरू किया हुआ है। वे हर तरह के धोखे भरे व फरेबी दाव-पेचों के दबाव तथा ब्लैकमेलिंग द्वारा इन देशों के बाजारों व प्राकृतिक संसाधनों पर कब्जा करने के लिए जी-जान लड़ा रहे हैं। इस उद्देश्य के लिए वे इन देशों के कृषि व ओद्यौगिक उत्पादन को ठप्प करने के लिए इन पर गलत शर्तें व बंदिशें थोपते हैं। खुद कृषि उत्पादन के लिए किसानों को बड़े स्तर पर सबसिडियां दे रहे हैं तथा इन में निरंतर बढ़ौत्तरी कर रहे हैं। इन कार्यों के लिए वे पीले बाक्स (ङ्घद्गद्यद्यश2 क्चश3) द्वारा सबसिडीयां देते हैं। 1995 में अमरीका में 11 हजार डालर, यूरोपीय यूनियन में 22 हजार डालर तथा जापान में 26 हजार डालर प्रति वर्ष प्रति किसान सबसिडियां दी गईं हैं। इनमें भी निरंतर और बढ़ौत्तरी की जा रही है। प्रो. प्रभात पटनायक के अनुसार अमरीका तथा यूरोपीय कृषि क्षेत्र में होने वाली कुल आय का 50 प्रतिशत वे सबसिडियों के रूप में किसानों को देते हैं। परंतु भारत में सिर्फ 66 डालर प्रति किसान प्रति वर्ष सबसिडी बनती है। यह सबसिडी कृषि क्षेत्र में होने वाली आय का मुश्किल से 10 प्रतिशत बनती है। भारतीय किसान जो कृषि संकट के कारण बड़ी संख्या में कृषि छोडऩे तथा कर्ज के कारण आत्महत्याएं करने के लिए मजबूर है को दी जा रही नग्णय सी सबसिडी भी विकसित देशों को बहुत अखरती है तथा वे इसे बंद करवाने के लिए हर उपाय का उपयोग कर रहे हैं। एक बार असफल हो जाने पर भी वे अपने घिनौने हथकंडे त्यागते नहीं हैं।
इसलिए साम्राज्यवादी देशों के इन आक्रामक हथकंडों को रोकने का कार्य भारतीय सत्ताधारियों के सहारे छोडऩा एक बचकाना गलती व मूर्खों के स्वर्ग में रहने के तुल्य होगा। भारत के उच्च पदों पर बैठी चौकड़ी मनमोहन सिंह, मोनटेक आहलूवालिया, चिदंबरम व रघुराम राजन जैसे खुले बाजार तथा शिकागो स्कूल की विचारधारा के सृजक फ्रीड मिल्टन के पक्के शिष्य हैं तथा इन नीतियों को लागू करना अपना धर्म समझते हैं। अपने वर्गीय हितों की रक्षा के लिए देश को गिरवी रखने के लिए भी तैयार रहने वाले सत्ताधारी वर्गों को वह ऐसी सलाहें देते हैं जिससे वे खुले बाजार के विध्वंसक रास्ते पर देश की गाड़ी को सरपट दौड़ा रहे हैं।
इसलिए साम्राज्यवादी हस्तक्षेप तथा लूट को रोकने के लिये नवउदारवादी नीतियां, जिनके परिणामस्वरूप महंगाई, बेरोजगारी तथा भ्रष्टाचार तेजी से बढ़ रहे हैं को परास्त करना जरूरी है। इस लिए देश में एक शक्तिशाली जनप्रतिरोध खड़ा किए जाने की जरूरत है। इस जनप्रतिरोध का निर्माण करने के लिए वामपंथी शक्तियों की संयुक्त मुद्दों पर सरगर्म व संघर्षशील एकता का निर्माण करना जरूरी है। सी.पी.एम. पंजाब इस पथ पर अग्रसर है तथा वामपंथी पक्षों की एकता के लिए प्रयत्नशील है।

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