Thursday 4 July 2013

अगले संसदीय चुनावों का असल मुद्दा राहुल या मोदी नहीं, नीतिगत विकल्प है

मंगत राम पासला

केंद्र की यू.पी.ए. सरकार की नव-उदारवादी जनविरोधी नीतियों के विरुद्ध ज्यों-ज्यों तीव्रता से जन रोष लामबंद हो रहा है तथा अगले लोकसभा चुनावों में इसके पुन: सत्ता संभालने की आशाएं धुंधली पड़ रही हैं, त्यों-त्यों कार्पोरेट घरानों द्वारा, अपने हितों की रक्षा व लूट खसूट जारी रखने के लिए इसके मुकाबले के दूसरे पक्ष, एनडीए (जिस में निर्णायक शक्ति भाजपा की है) पर डोरे डालने शुरू कर दिये हैं। इस उद्देश्य के लिए मीडिया व अन्य प्रचार साधनों द्वारा, योजनाबद्ध ढंग से, आर.एस.एस. द्वारा तथा धुर साम्प्रदायिक गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को भारत के अगले प्रधानमंत्री के रूप में उभारा जा रहा है। गुजरात दंगों, जिनमें हजारों बेगुनाह मुसलमानों की हत्याएं कर दी गईं थीं, के मुख्य दोषी होने के कारण आम लोगों की नजरों में घृणा का  पात्र बने हुए नरेंद्र मोदी के गुणगान करने के लिए नई-नई विधियां खोजी जा रही हैं। इजारेदार घरानों की संस्थाओं तथा अनेकों सामाजिक व सांस्कृतिक संगठनों की एकत्रताओं में मोदी द्वारा दिए जा रहे निचले स्तर के बेतुके भाषणों को मसाले लगा लगा कर लोगों के सामने ऐसे पेश किया जा रहा है कि जैसे महान अनुभव के मालिक किसी महापुरुष या धार्मिक गुरु के व्याख्यानों को उनके श्रद्धालुओं के सामने प्रस्तुत किया जा रहा हो। अति अहंकारी, गैर-जनवादी व्यवहार, काम करने के तानाशाही अंदाज तथा असंवेदनशीलता के मालिक, मोदी को देश में एक मात्र कारगर व योग्य नेता के रूप में पेश किया जा रहा है, जिसके पास लोगों की समस्त समस्याओं को हल करने की असीम योग्यता है। इस पक्ष से मोदी द्वारा सृजित तथा-कथित विकास के ‘गुजरात माडल’ को एक उदाहरण के रूप में प्रचारा जा रहा है। भारतीय बाजार पर कब्जा जमाने हेतु ललचाई नजरों से देखने वाले साम्राज्यवादी लुटेरे, जो गुजरात दंगों के बाद मोदी के साम्प्रदायिक कृत्यों के कारण उस पर अनेकों किस्म की ‘पाबंदियां’ थोपने के नाटक रच रहे थे, अब उसी नरेंद्र मोदी की प्रशंसा के पुल बांधते नहीं थक रहे। मोदी के मान-सम्मान में यूरोपीय देशों द्वारा ‘रात्रिभोज’ आयोजित किए जा रहे हैं तथा घृणित मोदी को ‘साम्प्रदायिक लिबास’ में से निकाल कर नई ‘पोशाकों’ में सजाया जा रहा है ताकि उसके फाशीवादी कुरूप चेहरे की पहचान न हो सके। परंतु जैसे प्रैस कौंसिल के अध्यक्ष श्री काटजू ने कहा है कि ‘‘अरब देशों का सारा इत्र फुलेल भी शायद मोदी की साम्प्रदायिक गंदगी को छुपाने के लिए पर्याप्त सिद्ध न हो।’’ देश की समस्त धर्म-निरपेक्ष शक्तियों व प्रगतिशील लोगों के मनों में ‘मोदी’ शब्द का अर्थ फाशी हिटलर के रूप में उकरा हुआ है, जिसके अमानवीय जालिमाना कृत्यों में से बेगुनाह लोगों के खून की दुर्गंध आनी आज तक जारी है। वैसे तो देशी व विदेशी लुटेरे इस कड़वी हकीकत पर परदा डालने के लिए कोई कोर-कसर बाकी नहीं छोड़ रहे। 
भारत के पूंजीपति वर्ग व इस द्वारा सृजित राजनीतिक पार्टियां स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से निरंतर ही देश में दो पार्टी प्रणाली कायम करने के लिए प्रयत्नशील हैं, ताकि बेझिझक होकर मौजूदा लुटेरे ढांचे को ज्यों का त्यों कायम रखने व और मजबूत करने के लिए बारी बारी राजसत्ता पर कब्जा जमाए रखें। देश में प्रगतिशील व वामपक्ष का पर्याप्त अस्तित्व मौजूदा पूंजीवादी ढांचे के लिए हमेशा ही खतरा समझा जाता है। सत्ताधारी वर्गों द्वारा कोशिश की जाती रही है कि उन्नत पूंजीवादी देशों की तरह भारत में भी पूंजीपति वर्ग के दो राजनीतिक गुट हों व अन्य राजनीतिक पक्षों व विशेषकर वामपंथी शक्तियां, इन दोनों मुख्य राजनीतिक गुटों में से किसी एक से साथ जुड़ी रहें। पिछले लंबे समय के दौरान इस कार्य में वे एक सीमा तक सफल भी रही हैं। जब वामपंथी पार्टियों समेत बहुत सी क्षेत्रीय पूंजीपति-सामंतवादी राजनीतिक पार्टियां कांग्रेस व भाजपा में से एक पक्ष के साथ प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष सांठ-गांठ करती रही हैं। इस तरह अंतिम रूप में कम्युनिस्ट पार्टियां भी किसी न किसी बहाने आड़े तिरछे ढंग से कांग्रेस या इसके नेतृत्व वाले गठबंधन के साथ मेल मिलाप करके दो पार्टी प्रणाली के संकल्प को मजबूती प्रदान करती रहीं हैं। 
निस्संदेह कांग्रेस के नेतृत्व वाली यू.पी.ए. सरकार, साम्राज्यवादी दबाव तथा कार्पोरेट घरानों के हितों को बढ़ावा देने के लिए विश्वीकरण, उदारीकरण तथा निजीकरण की आर्थिक नितियां पूरे जोर से लागू कर रहीं हैं। इन नीतियों के परिणामस्वरूप महंगाई, बेकारी, गरीबी तथा भ्रष्टाचार में निरंतर भारी बढ़ौत्तरी हो रही है। इसलिए केंद्रीय सरकार का मौजूदा अवस्थाओं में एक पल के लिए भी सत्ता में बने रहना भारतीय लोगों के हितों के साथ विश्वासघात करने के बराबर होगा। इस हकूमत के विरुद्ध हर ढंग से जंनसंघर्षों का तूफान खड़ा करना होगा। यूपीए सरकार के विकल्प के रूप में जिस तरह संघ परिवार व भाजपा नरेंद्र मोदी को अगले प्रधानमंत्री के रूप में पेश करके  राष्ट्रीय जनवादी गठजोड़ (एनडीए) की केंद्रीय सत्ता पर कब्जे के लिए मुख्य दावेदारी पेश कर रहा है, वह समूचे देश के लिए बड़ी फिक्रमंदी व घातक बात है। साम्प्रदायिकता व हिंदूत्व के अग्रणी नरेंद्र मोदी को भविष्य के प्रधानमंत्री के रूप में पेश करने से समूचे समाज में साम्प्रदायिक कतारबंदी खतरनाक सीमा तक और गहरी हो सकती है जो हमारे धर्म निरपेक्ष व जनवादी सामाजिक ताने-बाने के लिए अति क्षतिपूर्ण सिद्ध होगी। अब से ही संघ परिवार ने पुन: राम मंदिर का मुद्दा उभारने का षड्य़ंत्र रचना शुरू कर दिया है। भाजपा नेता लाल कृष्ण आडवाणी बाबरी मस्जिद के गिराए जाने के विवादित स्थल पर ‘राम मंदिर’ का निर्माण किए जाने के प्रयोजन को ‘गौरवमई’ बात करार दे रहे हैं। मुसलमानों, ईसाईयों व अन्य अनेकों धार्मिक अल्प संख्यकों का अंधा विरोध, संघ परिवार की बुनियादी सोच का अभिन्न अंग है जो अंतिम रूप में धर्म आधारित राज्य (थ्योक्रेटिक स्टेट) की कायमी करने में निकलता है। इस तरह मोदी चाहे प्रधानमंत्री बने या न बने, परंतु इस तरह के दावों से उपजे माहौल से समाज को विभाजित करने के लिए धार्मिक कट्टड़ता की लकीर और गहरी होती है। 
नरेंद्र मोदी गुजरात में हजारों मुसलमानों के कत्लेआम का ही दोषी नहीं है, वह समूचे भारतीय समाज के करोड़ों लोगों के जनवादी अधिकारों व आजादियों का भी दुश्मन है, जिनमें बड़ी संख्या हिंदूओं की है। साम्प्रदायिकता व जनवाद साथ साथ नहीं चल सकते। हर रंग का साम्प्रदायिक जनूनी व आतंकी या अपने विशेष धर्म या सम्प्रदाय के लिए समर्थन जुटाने हेतु चाहे उनके समूचे हितों का रक्षक व अलंबरदार होने की धोखे भरी दुहाई देता है, परंतु बाकी समाज से भी ज्यादा वह उस विशेष धर्म या सम्प्रदाय के लोगों के समूचे हितों का नुकसान कर रहा होता है। पंजाब में आतंकवादी दौर के दौरान सिख आतंकवादियों व जनूनियों ने अन्य लोगों के मुकाबले सिख जनसमूहों के हितों को कम चोट नहीं पहुंचाई। यही अवस्था मुसलमानों व ईसाई धर्म से संबंधित मूलवादी तत्वों की है। इस दिशा में नरेंद्र मोदी जैसे साम्प्रदायिक व्यक्ति का सत्ता के शिखर पर पहुंचना (चाहे सोचने की सीमा तक ही सही) देश की सवा अरब आबादी के हितों से विश्वासघात करने के बराबर होगा। जिसमें बड़ी संख्या में हिंदू धर्म के अनुयायी भी हैं। 
गुजरात में मोदी मारका ‘विकास माडल’ बिल्कुल उसी तरह का है, जिस तरह का साम्राज्यवादी आक्रामकों व कार्पोरेट घरानों को घिनौनी लूट-खसूट करने की छूट देने वाला विकास माडल प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह द्वारा देश स्तर पर निर्मित किया जा रहा है। यदि मनमोहन सिंह-चिदंबरम-मोनटेक सिंह आहलूवालिया की साम्राज्यवाद भक्तों की तिकड़ी द्वारा लागू किया जा रहा आर्थिक विकास का नमूना देश भर में तबाही मचा रहा है, तब वही विकास माडल गुजरात में कोई अच्छा परिणाम कैसे निकाल सकता है? इसी तरह मोदी द्वारा गुजरात में कथित आर्थिक विकास के नमूने का गुणगान करते समय कभी गुजरात की गरीबी ढो रही आम जनता की अवस्था, जीवन स्तर, घटिया खुराक, शिक्षा, स्वास्थ्य सुविधाएं आदि का जिक्र नहीं किया जाता। केवल विदेशी व देशी कारपोरेट घरानों द्वारा अपने मुनाफे कमाने के लिए लगाई गई पूंजी से मुनाफों की ऊंची दर अपने मित्रों ‘अंबानी भाईयों’ को लूट-खसूट करने में सरकारी सहायता व की गई लिहाजदारी, भूमि माफिया व भ्रष्टाचारी तत्वों के हर क्षेत्र में दबदबे को लोकपक्षीय विकास माडल का नाम नहीं दिया जा सकता। 
आने वाले लोक सभा चुनावों में मुद्दा यूपीए के युवा नेता राहुल गांधी या संघ परिवार द्वारा भरे जा रहे साम्प्रदायिकता के रंग में रंगे नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने का नहीं है। वास्तविक मुद्दा है देश में सत्ताधारी वर्गों द्वारा ‘आर्थिक सुधारों’ के नाम पर अपनाईं जा रही आर्थिक नीतियां जो हर पक्ष से जनसाधारण को तबाह कर रही हैं व देश को नव-बस्तीवाद की ओर धकेल रही हैं, को रोक लगाने तथा लोगों के समक्ष वैकल्पिक जनपक्षीय व विकासमुखी आर्थिक नीतियों पर आधारित विकल्प पेश करने की। इसमें भी कोई संदेह नहीं है कि अभी राजनीतिक ताकतों का संतुलन ऐसा नहीं है जो आने वाले लोक सभा चुनावों के दौरान केंद्र में जनपक्षीय शक्तियों को आगे लाकर राजसत्ता पर बिठा सकें। परंतु समूची वाम, जनवादी व प्रगतिशील शक्तियां इन पूंजीपति जागीरदार वर्गों के अग्रणी दोनों गुटों, यूपीए तथा एनडीए के साम्राज्यवाद पक्षीय या इजारेदार-सामंती वर्गों के हितों को बढ़ावा देने के लिए जनसमूहों की तबाही कर रहीं आर्थिक नीतियों की बुनियादी सच्चाई को पूरी तरह नंगा करके जनमुखी आर्थिक विकास का माडल लोगों के सामने पेश जरूर कर सकती हैं। पिछले समय के दौरान जनहितों की रक्षा के लिए तथा घातक आर्थिक नीतियों व गैर-जनवादी व्यवहारों के विरुद्ध किए गए जनसंघर्षों, राजनीति में लिए गए सैद्धांतिक पैंतड़ों, जनसमूहों की निस्वार्थ सेवा व साम्प्रदायिकता के  विरुद्ध निरंतर वैचारिक संघर्षों का शानदार इतिहास ऐसे कारगर हथियार हैं जिनको उभारकर मेहनतकश लोगों के बड़े भागों को जनवादी आंदोलन की ओर खींचा जा सकता है। मेहनतकश लोगों की यही शक्ति भविष्य में जनसंघर्षों के लिए एक मजबूत व प्रभावशाली आधार प्रदान करेगी। अब यह देखना बाकी है कि साम्राज्यवाद निर्देशित आर्थिक नीतियों व साम्प्रदायिकता विरोधी वामपंथी व प्रगतिशील शक्तियां सैद्धांतिक पैंतड़ा लेने के लिए किस हद तक एकजुट होकर मैदान में उतरती हैं? क्रांतिकारी आंदोलन का निर्माण तथा समाजवाद की प्राप्ति का उद्देश्य हासिल करने के लिए कोई अल्पकालिक अवसरवादी राजनीतिक दांवपेच काम नहीं आ सकता, बल्कि इसके लिए तो लंबा, ठोस, दृढ़, निरंतर व सैद्धांतिक रास्ता ही अपनाना होगा। इस महान उद्देश्य के लिए समस्त वाम, जनवादी व प्रगतिशील शक्तियों की आपसी एकता व संयुक्त संघर्ष वर्तमान समय की प्रमुख जरूरत हैं, जो आने वाले लोकसभा चुनावों में भी जनसमूहों को जागृत करने में भारी मददगार सिद्ध हो सकते हैं। 

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