Saturday 20 July 2013

गुजरात के विकास का सच

अमिताभ बच्चन जब भी रेडियो और टेलीविकान पर एक विज्ञापन ‘खुश्बू गुजरात की’ करते हैं तो उनकी दिलकश आवाका, और अंदाज़े-बयां से एक बार तो मन करता है कि ‘गुजरात 2002’ को भूल कर एक साधारण पर्यटक की तरह गुजरात घूमा जाए। नरेंन्द्र मोदी ने ‘विशेषकर 2002 के बाद’ मीडिया में अपनी और गुजरात की छवि सुधारने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी। दरअसल, 2002 के दंगों के एक वर्ष बाद तक, विदेशी पर्यटक तो दूर, भारतीय पर्यटकों ने भी गुजरात जाने से मुंह मोड़ लिया था। अमरीका व कई यूरोपीय देशों ने बाकायदा इंटरनेट पर अपने सैलानियों को सलाह दी थी कि गुजरात न जाएं, कि वहां आपकी जान को खतरा हो सकता है। ‘गुजरात से दूर रहो’ का माहौल विश्व भर में रहा। कााहिर है इसका असर न केवल पर्यटन पर बल्कि देशी-विदेशी कंपनियों में कार्यरत नीति-निर्माताओं पर भी पड़ा जिन्होंने इलेक्ट्रानिक मीडिया पर भगवा झंडे उठाए बजरंगियों को मकानों व नागरिकों को आग लगाते हुए देखा था। साधारण जन-जीवन अस्त-व्यस्त होने और लंबे-लंबे कफ्र्यू लगने के कारण दुनियाभर में यह संदेश जाना लाकिामी था कि गुजरात में निवेश करना खतरे से खाली नहीं. गुजरातियों के लिए यह और भी शर्म की बात थी कि जिन्होंने अफ्रीका से लेकर अमरीका तक, हर जगह अपनी दुकानें खोलीं, और व्यापार में वृद्धि की, उनके अपने गुजरात में निवेश करना दुभर हो गया। मोदी के लिए यह जरूरी हो गया कि वह ‘गुजराती अस्मिता’ का नारा दे और साथ में यह भी कहे कि वह गुजरात के ‘‘सभी 5 करोड़’’ बाशिन्दों का मुख्यमंत्री है और कि गुजरात में निवेश करने से ‘‘सभी’’ गुजरातियों के जीवन-स्तर में सुधार होगा। ‘सभी’ पर विशेष काोर का अर्थ स्पष्ट था। देखा जाए तो मोदी की समस्या वाकई गंभीर थी। एक बार उन्होंने अपने शार्गिदों को मनमानी क्या करने दी और वह भी केवल 3-4 दिन! (28 फरवरी, 2002 से 3 मार्च, 2002) कि उसका खामियाज़ा आज तक पूरा राज्य और उसके निवासी भुगत रहे हैं। इसलिए मोदी और जब भाजपा, जिसका एक हिस्सा, उन्हें प्रधानमंत्री बनाने की फिराक में है, का पूरा काोर आज इस बात पर है कि गुजरात 2002 के वहशी दिनों को भुला दिया जाए। इलेक्ट्रानिक मीडिया के कुछ चैनलों ने तो मोदी को एक अवसर देने की वकालत शुरु कर दी है। कुछेक तो ‘मध्य रास्ते’ की तलाश करने पर ज़ोर दे रहे हैं। 
नरोदा पाट्यिा के अदालती फैसले से मोदी सरकार को एक बड़ा झटका लगा था। मोदी ने उसकी कुछ भरपाई ब्रिटिश सरकार के इस फैसले से करनी चाही है जिसमें उसने भारत में ब्रिटिश उच्चायुक्त को ‘गुजरात जाने’ और ‘गुजरात सरकार के साथ नज़दीकी सहयोग’ करने के तरीकों पर बात करने के लिए कहा है। ब्रिटिश सरकार ने अपने इस फैसले को यह कह कर न्यायोचित ठहराया है कि उसने ‘आंतरिक समीक्षा’ की है और कि ‘अभी तक भारत की न्यायिक व्यवस्था ने मोदी को कसूरवार नहीं ठहराया है।’ कााहिर है, ब्रिटिश सरकार गुजरात मूल के प्रवासी भारतियों के दबाव में काम कर रही है। पूरे कारपोरेट मीडिया ने ‘विकास के गुजरात मॉडल’ की तारीफ करनी शुरु कर दी है और साथ में ब्रिटिश सरकार के फैसले की भूरि-भूरि प्रशंसा भी। इलेक्ट्रानिक मीडिया ने और खुद मोदी ने इसे अपने ‘‘वैश्विक स्तर पर अलग-थलग पडऩे’’ का अंत माना है। 
दरअसल गुजरात में निवेश आकर्षित करने का प्रयास 2002 के अंत में ही शुरू हो गया था। मोदी सरकार ने ‘‘संकट को अवसर में बदलने’’ के लक्ष्य के मद्देनजर नौ-पृष्ठीय दस्तावेज ‘जी-2’ तैयार किया था जिसे गुजरात के विभिन्न कारपोरेट/औद्योगिक खिलाडिय़ों जैसे अडानी, निरमा इत्यादि को 2003 के शुरू में ही दिया जा सका। इसके फलस्वरूप 2003-04 में गुजरात सरकार ने सरकारी और निजी क्षेत्र, दोनों को ‘बाइब्रेंट गुजरात’ के नारे तले राज्य में निवेश के लिए राकाी करने का प्रयास किया। निवेशकों के सम्मेलन में 66 लाख करोड़ रुपयों के सहमति-पत्रों का दावा किया गया। 2004-05 में यह जादुई आंकड़ा 100 लाख करोड़ रुपये था। परन्तु जब आयकर विभाग ने 2011 में गुजरात सरकार को नोटिस दिया कि उसे बतलाया जाए कि राज्य को कितने निवेश का आश्वासन मिला है और सच्चाई क्या है तो सही आंकड़े सामने आ सके। 
2011 में हुए गुजरात वैश्विक निवेशक सम्मेलन में मोदी ने घोषणा की कि गुजरात सरकार ने 7936 सहमति पत्रों पर हस्ताक्षर किए हैं जिससे राज्य में 46000 करोड़ डालर (लगभग 23 लाख करोड़ रुपये) का निवेश होगा। तीन माह पहले अगस्त, 2012 में वाल-स्ट्रीट जर्नल को दिए अपने साक्षात्कार में मोदी ने यह भी दावा किया कि गुजरात को दुपहिया वाहनों का केंद्र बनाने के बाद वह अपना ध्यान ‘रक्षा उपकरणों’ पर केंन्द्रित करेंगे। गुजरात को विकास और सुशासन का माडल राज्य पेश करने का प्रयास बदस्तूर जारी है। 
एसोचैम के एक अध्ययन के अनुसार 2003 से लेकर 2011 तक गुजरात में केवल 13.4 लाख करोड़ रुपए का निवेश हुआ है यानि प्रति वर्ष औसत केवल डेढ़ लाख करोड़ रुपये, जिसका 70  प्रतिशत केवल 6 जिलों में हुआ है। कच्छ, जामनगर, अहमदाबाद, भरुच, सूरत और भावनगर। इसका तात्पर्य यह है कि सहमति पत्रों पर हस्ताक्षर करने वाले कितने ही निवेश-प्रस्तावक चुपचाप खिसक लिये हैं। 
अगर मोदी सरकार का प्रबंधन इतना ही प्रभावशाली है तो क्या कारण है कि गुजरात राज्य परिवहन कार्पोरेशन, गुजरात राज्य बिजली निगम लि., गुजरात राज्य वित्त कार्पोरेशन, एलकाक, एशडाउन, जो कि गुजरात की जहाका निर्माण की कंपनी है, ये सभी घाटे में क्यों चल रही हैं। निजी क्षेत्र में गुजरात का हीरा उद्योग मर रहा है। मांग में कमी के कारण हीरा उद्योग की कई इकाइयां बंद हो चुकी हैं, अकेले 2008-09 में छंटनी हुए 200 हीरा मजदूर आत्महत्या कर चुके हैं। ‘सकुशल’ सरकार हाथ पर हाथ धरे बैठी है। गुजरात राज्य पैट्रोलियम कार्पोरेशन भी नुकसान में है। गुजरात विधानसभा में विपक्ष के नेता शक्ति सिंह गोहिल, ने इस राज्य कार्पोरेशन में घाटे के लिए मोदी सरकार द्वारा अडानी ग्रुप को दी जा रही सहूलतों को जिम्मेदार ठहराया है। पिछले पूरे बजट अधिवेशन में उन्हें निलंबित कर दिया गया था जब भरी विधानसभा में उन्होंने मोदी पर आरोप लगाया था कि अडानी ग्रुप को बहुत सस्ते में जमीन दी गई और कि वे अडानी के विलासमयी जहाका में घूमते हैं। 
मोदी के काम करने के ढंग पर फोब्र्स इंडिया (24 सितम्बर, 2012) ने टिप्पणा की है, जिसके अनुसार मोदी ने गुजरात स्तर पर भाजपा संगठन के अंदर भी एक समानान्तर ढांचा खड़ा कर लिया है। गुजरात में 18000 गांव हैं, हर गांव में मोदी के 5 राजनीतिक भक्तों को ग्रामसेवक नियुक्त किया गया। इन ग्राम सेवकों के हाथों में इतनी शक्ति दे दी गई है कि वे स्थानीय स्तर पर लिए जा रहे हर निर्णय को प्रभावित करते हैं। कहां कितना फंड देना है, स्व-सहायता समूहों के गठन में किन्हें वरीयता देनी है, ऋण किन्हें कितना देना है, सब कुछ ये ग्रामसेवक तय करते हैं। नीचे स्थानीय स्तरों पर जो संदेश जा रहा है वह यह कि अगर मोदी के आदमी हो तो तुम्हारा काम होगा वरन् नहीं। उन गांवों व ग्रामवासियों को सबक सिखाया जाता है जिन्होंने पिछले चुनावों में मोदी की पार्टी को वोट नहीं दिया। 
जिस तानाशाह ढंग से मोदी अपनी सरकार चला रहे हैं जहां केबिनेट मंत्रियों के हाथों से सारी शक्तियां छीन कर मोदी के स्थानीय भक्तों को स्थानांतरित कर दी गई हैं, वहां, जाहिर है, ऐसे चापलूस अफसरों की फौज पैदा होना स्वाभाविक है जो जमीनी स्तर पर बेशक कुछ न कर पा रहे हों परन्तु ऊपर यही संदेश देते हैं कि सब ठीक चल रहा है। केन्द्रीयकृत योजना के सभी दोष यहां गुजरात के ‘सुशासन’ में मौजूद हैं। लिहाजा मोदी के शासन काल के दौरान गुजरात के ‘सुशासन’ में मौजूदा हैं। लिहाजा मोदी के शासन काल के दौरान गुजरात में महिलाओं, बच्चों, मजदूरों व किसानों के जीवन में सुधार तो दूर, स्थितियां और बदतर हुई हैं। जमीनी सच्चाईयों की और नजर घुमाएं तो स्थिति एकदम उलट दिखाई देती है। 
आर्थिक सर्वेक्षण, 2010-11 के आंकड़े गुजरात की मीडिया-निर्मित छवि को ध्वस्त करने में काफी हैं। मानव-विकास संबंधी इन आंकड़ों में कुछ तथ्य इस प्रकार हैं: 

भूख सूचकांक (2009) को देखें तो भारत में सबसे उन्नत 17 राज्यों में गुजरात 13वें स्थान पर है। 

औरतों में खून की कमी को देखा जाए तो भारत के 20 प्रमुख राज्यों में गुजरात का नंबर पहला है यानी यहां सबसे बड़ी संख्या उन औरतों की हैं जिनमें अनीमिया है। 

बच्चों में अनीमिया पाए जाने वालों में गुजरात का नंबर 16वां है। यानी केवल 4 राज्यों की स्थिति गुजरात से बद्तर है। 

बच्चों में कुपोषण में गुजरात का नंबर पंद्रहवां है। 

स्वास्थ, शिक्षा, ग्रामीण विकास पर खर्च के मामले में गुजरात का नंबर 15वां है (प्रमुख 20 राज्यों में) यानी 14 राज्य गुजरात से अधिक खर्च करते हैं। 

2009 के आंकड़ों के अनुसार अगर केरल में हर 1000 नवजात शिशुओं में, केवल 12 मरते हैं तो गुजरात में यह संख्या 50 है। 

उसी तरह जन्म देने की प्रक्रिया में 2009 में केरल की तुलना में गुजरात में तीन गुना औरतें मृत्यु को प्राप्त हुईं। 
मानव संसाधन विकास मंत्रालय, भारत सरकार के अनुसार 2007-08 में अगर केरल में दाखिल हुए बच्चों (आयु 6 से 16 वर्ष) में कोई भी स्कूल छोड़ कर नहीं गया, वहीं गुजरात में 59.11 प्रतिशत बच्चे स्कूल छोडऩे पर मजबूर हुए। 
इन सबके अतिरिक्त राज्य सरकार नागरिकों को पीने योग्य पानी तक मुहैया नहीं कर पा रही हैं। भाजपापरस्त दैनिक ‘दिव्य भास्कर’ ने पिछले दिनों एक पूरे पृष्ठ का आलेख प्रकाशित कर यह रेखांकित किया है कि कैसे पूरे राज्य में पानी की भारी कमी है। इसके परिणामस्वरूप साफ सफाई (विशेषकर मल-त्याग करने के संबंध में) की स्थिति भी चिंताजनक है। जयराम रमेश ने जब यह कहा था कि शौचालय के मामले में भी राज्य पिछड़ा हुआ है तो वे गलत नहीं थे। गांव में 65 प्रतिशत परिवार खुले में शौच करते हैं। इसके अलावा, कुड़े-कचरे के निपटारे के लिए लगभग 70 प्रतिशत गांवों में कोई व्यवस्था नहीं, हैं। 78 प्रतिशत गांवों में सीवर की व्यवस्था नहीं है। इस गंदगी का परिणाम यह है कि गांवों में पीलिया, मलेरिया, हैजा, गुर्दे की पथरी, चर्म रोग इत्यादि बीमारियां आम हैं। यह कैसा विकास है, कैसी कार्य प्रणाली है और कैसा औद्योगिक माहौल है जिसकी तारीफ टाटा से लेकर ब्रिटिश उच्चायुक्त कर रहे हैं। परन्तु नीचे जमीन पर साधारण आदमी का जीवन कठिनतर होता जा रहा है। 
पिछले दिनों जब मनमोहन सिंह का अस्सीवां जन्मदिन था तो फेसबुक पर एक मजाक प्रचलित हुआ कि उस दिन केक खाने के लिए तो अपना मुंह कारूर खोलेंगे। समस्या यहीं है। बेतहाशा महंगाई, खुदरा व्यापार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश और हाल में रसोई गैस के सिलेंडरों के मामले में किए गए फैसलों से पूरे देश में केंद्रविरोधी लहर चली हुई है। यू.पी.ए.-2 सरकार का निकम्मापन इस कदर बढ़ चुका है कि जनता हर हाल में परिवर्तन चाह रही है। मोदी का खतरा इसलिए बाकायदा बना हुआ है। इस खतरे को पहचान कर ही 2014 में गुजरात 2002 के नरसंहार के नीरो को देश की बागडोर नहीं थमायी जानी चाहिए।          
      (‘उद्भावना’ के अंक 103 से साभार)

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