दस्तावेज
राजनीतिक अवस्था के बारे मेें एक नोट
1. भारत की वर्तमान सामाजिक राजनीतिक अवस्था बहुत ही चिन्ताजनक तथा डरावनी बनी है। देश व्यापक रूप में फैली हुई गरीबी, बेरोजगारी तथा अद्र्ध बेरोजगारी, निरन्तर बढ़ती जा रही महंगाई, बद-इन्तजामी, भ्रष्ट्राचार तथा अलग-अलग तरह के सामाजिक व प्रशासकीय उत्पीडऩ ने पूरी तरह से अभिशप्त है। यह सारी बीमारियां मिल कर देश के सामाजिक विकास के लिये उपलब्ध सम्भावनाओं को लगातार अवरूद्ध कर रही हैं। मुट्टठी भर अमीर परिवार जरूर यहां हराम की इकटठी की गई दौलत से ऐशपरस्ती भरपूर जीवन व्यतीत कर रहे हैं, जबकि मेहनत करके जीवन गुजारने वाला विशाल जनसमूह बेहद मुश्किल स्थितियों में जीवन-बसर करने को विवश हैं। जिन में कई भूखे पेट रहने को मजबूर हैं। हमारे देश में अमीरी तथा गरीबी के बीच अन्तर, यहां के 1 प्रतिशत लोग देश की 54 प्रतिशत दौलत पर काबिज हैं, यह दुनिया भर के सारे देशों के मुकाबले ऊपर से दूसरे नम्बर पर हैं। प्राकृतिक संसाधनों के स्वामित्व के पक्ष से इतने बड़े अन्तर तथा व्यापक बेरोजगारी ने मिलकर देश को एक ऐसे सामाजिक ज्वालामुखी के शिखर पर ला खड़ा कर दिया है, जो कि किसी भी समय फट सकता है तथा देश को बड़ी तबाही की ओर ले जा सकता है। राजनीतिक तौर पर लोकतन्त्र यहां सिर्फ 5 साल बाद होने वाले चुनावों तक सीमित हो चुका है। इन चुनावों का भी आम तौर पर धन-बल, बाहुबल अथवा अन्ध धार्मिक भावनाओं को भडक़ा कर अपहरण कर लिया जाता है। इस तरह से इन चुनावों से भी अब स्वतन्त्र तथा निष्पक्ष होने का मुखौटा उतर चुका है।
1. भारत की वर्तमान सामाजिक राजनीतिक अवस्था बहुत ही चिन्ताजनक तथा डरावनी बनी है। देश व्यापक रूप में फैली हुई गरीबी, बेरोजगारी तथा अद्र्ध बेरोजगारी, निरन्तर बढ़ती जा रही महंगाई, बद-इन्तजामी, भ्रष्ट्राचार तथा अलग-अलग तरह के सामाजिक व प्रशासकीय उत्पीडऩ ने पूरी तरह से अभिशप्त है। यह सारी बीमारियां मिल कर देश के सामाजिक विकास के लिये उपलब्ध सम्भावनाओं को लगातार अवरूद्ध कर रही हैं। मुट्टठी भर अमीर परिवार जरूर यहां हराम की इकटठी की गई दौलत से ऐशपरस्ती भरपूर जीवन व्यतीत कर रहे हैं, जबकि मेहनत करके जीवन गुजारने वाला विशाल जनसमूह बेहद मुश्किल स्थितियों में जीवन-बसर करने को विवश हैं। जिन में कई भूखे पेट रहने को मजबूर हैं। हमारे देश में अमीरी तथा गरीबी के बीच अन्तर, यहां के 1 प्रतिशत लोग देश की 54 प्रतिशत दौलत पर काबिज हैं, यह दुनिया भर के सारे देशों के मुकाबले ऊपर से दूसरे नम्बर पर हैं। प्राकृतिक संसाधनों के स्वामित्व के पक्ष से इतने बड़े अन्तर तथा व्यापक बेरोजगारी ने मिलकर देश को एक ऐसे सामाजिक ज्वालामुखी के शिखर पर ला खड़ा कर दिया है, जो कि किसी भी समय फट सकता है तथा देश को बड़ी तबाही की ओर ले जा सकता है। राजनीतिक तौर पर लोकतन्त्र यहां सिर्फ 5 साल बाद होने वाले चुनावों तक सीमित हो चुका है। इन चुनावों का भी आम तौर पर धन-बल, बाहुबल अथवा अन्ध धार्मिक भावनाओं को भडक़ा कर अपहरण कर लिया जाता है। इस तरह से इन चुनावों से भी अब स्वतन्त्र तथा निष्पक्ष होने का मुखौटा उतर चुका है।
2. औपनिवेशिक गुलामी से 1947 में मिली आजादी भी, अपने अन्तिम रूप में, ब्रिटिश हुक्मरानों से भारतीय शासक वर्ग-पूंजिपतियों तथा बडे भूपतियों के राजनीतिक प्रतिनिधियों के हाथों में सत्ता की तबदीली ही सिद्ध हुई है। मेहनतकश आवाम, विशेष तौर पर मजदूरों-किसानों ने जिन्होंने स्वतन्त्रता संग्राम में भारी कुरबानियां दीं थीं, को नये शासकों से महज खोखले वायदों के सिवाय, और कुछ भी प्राप्त नहीं हुआ। बदबू मार रही सदियों पुरानी जातिवादी व्यवस्था, जो कि सामाजिक उत्पीडऩ का संस्थागत रूप धारण कर चुकी है, पहले की तरह कायम है। इसलिये दलितों तथा तथाकथित निम्न जातियों तथा अन्य भूमिहीन लोगों को, जो कि बेरहम ब्राह्मणवादी व्यवस्था में अमानवीय स्थितियों में दिन काटने को विवश है, सदियों पुरानी गुलामी से कोई राहत नहीं मिली। आजाद भारत में उन्हें मतदान का अधिकार, आरक्षण तथा ग्रांट आदि के रूप में कुछ अल्प सुविधाऐं तो अवश्य दीं, परन्तु प्रभावशाली भूमि सुधारों के न किये जाने से इन भूमिहीन गरीब लोगों के बड़े हिस्से को आज भी रोटी कमाने के लिये नीच समझे जाते धन्धे जारी रखने, बंधुआ मजदूरी करने अथवा दैनिक श्रम करने को मजबूर हैं। यहां तक कि समाज के इन वर्गों को सामाजिक-आर्थिक कठिनाइयों से मुक्त करने के लिये भारतीय संविधान के तहत बनाई गई व्यवस्थाओं पर भी सही से अमल नहीं हुआ तथा इनकी बड़ी बहुसंख्या ऐसे सारे लाभों से वंचित है। इनके पास आज भी जीवन-यापन के लिये आय का कोई स्थायी तथा भरोसे योग्य साधन नहीं है। जिन्हें आरक्षण का थोड़ा बहुत लाभ मिला, उनको आज भी तथाकथित उच्च जाति वालों से मिले अपमानजनक व्यवहार के कारण अथाह मानसिक पीड़ा को सहन करने को विवश होना पड़ता है। पूंजीवादी व्यवस्था के तहत दौलत के कारपोरेट घरानों तथा बड़े भूस्वामियों के हाथों में तेजी से एकत्र होते जाने से वचिंत तथा अक्सर अपमानित किये जाते लोगों की मुश्किलें और भी ज्यादा भयंकर तथा असहनीय हो गई हैं। इस स्थिति का एक त्रासदीदायक पक्ष यह भी है कि प्रगतिशील बुद्धिजीवियों का एक बड़ा भाग भी जातिवादी उत्पीडऩ के दर्द की असल थाह पाने तथा इसको समझने में बुरी तरह असफल रहा है तथा भारतीय समाज को चिपके हुये, ‘मौजूदा शोषण आधारित व्यवस्था में’ इस असाध्य रोग, जिसने कि उत्पादक शक्तियों के विकास को बांध कर रखा हुआ है, को खत्म करने की दिशा की ओर कोई प्रभावशाली उपाय नहीं किये गये हैं। इसी तरह ही, आजादी के 70 साल बाद भी भारत में महिलाओं को, जो कि कुल आबादी का 50 प्रतिशत हैं, सदियों पुराने पैतृक प्रधान सामाजिक बंदिशों से कोई वर्णन योग्य मुक्ति प्राप्त नहीं हुई। महिला सशक्तिकरण सम्बन्धी सरकारों द्वारा घोषित सारे प्रोग्राम ज्यादातर सिर्फ कागजों तक ही सीमित रहे हैं। देश में औरतें आम करके, तथा गरीब परिवारों की औरतें विशेष करके, अभी भी कई तरह के भेदभाव,घरेलु हिंसा, शारीरिक हमलों तथा श्रम की की जा रही लूट की शिकार हैं।
3. आजादी प्राप्ति उपरान्त बुर्जुआ-लैंडलार्ड वर्गों द्वारा साम्राज्यवादी वित्तिय पूंजी से मिलकर अपनाये गये पूंजीवादी विकास के पथ ने भारतीय अर्थ-व्यवस्था पर इजारेदारों तथा भूपतियों की पकड़ और मजबूत कर दी है। उन्होने अच्छी कमाई की है तथा उनमें से कुछेक की गिनती दुनिया भर के खरबपतियों में होने लग पड़ी है। जबकि सरकारों द्वारा मेहनतकश जनसमूहों की जन विरोधी बजट व्यवस्थायों द्वारा, निरन्तर रूप में टैक्सों का भार बढ़ा कर अथवा कंट्रोल कीमतों को बढ़ा कर बेरहमी से लूट की गई है। सारी केन्द्रीय सरकारों तथा अफसरशाही की आर्थिक नीति संबंधी दिशा तथा प्रशासकीय पहुंच हमेशा इजारेदार समर्थक तथा साम्राज्यवाद पक्षीय ही रही है। ऐसी जन विरोधी तथा देशद्रोही नीतियों ने आज यहां ऐसी डरावनी सामाजिक-आर्थिक स्थिति बना दी है, यहां तक कि गरीबी, व्यापक बेरोजगारी, महंगाई तथा भ्रष्टाचार जैसे आम लोगों के लिये सब से ज्यादा चिन्ता के मुददे बन चुके हैं। 1991 से बाद सामराज्यवाद निर्देशित नवउदारवादी नीतियां लागू करने से यह समस्याएं और भी ज्यादा गम्भीर रूप धारण कर गई हैं। सरकार तथा इसकी ऐजंसियों द्वारा झूठे आंकड़ों की सहायता से कुल घरेलू उत्पादन बढऩे तथा और आर्थिक पक्ष में सुधार होने के बारे मेें किया जा रहा समूचा प्रचार सिर्फ लोगों को दिलासा देने तक सीमित है तथा यह असत्य व गुमराहकुन साबित हो रहा है। असल में निर्यात मुखी इजाफे का बढ़ा चढ़ा कर किया जा रहा प्रचार मेहनतकश जन समूहों की भलाई तथा भारतीय अर्थ व्यवस्था के उभार के पक्ष से पूरी तरह अर्थहीन है; क्योंकि इस उद्देश्य के लिये भारतीय अर्थ-व्यवस्था को घरेलु मंडी के प्रसार की बड़ी जरूरत है, अर्थात कामगार लोगों की क्रयशक्ति में भारी इजाफा होना चाहिये। असल वेतनोंं के हो रहे निरंतर तथा तेज ह्रास के कारण इस जरूरत की पूर्ति नहीं हो रही। सरकार द्वारा इस जरूरत को बुरी तरह से अनदेखा किया जा रहा है। इन स्थितियों में लोग आसानी से ही निराशावाद के शिकार बन रहे हैं, जो कि ऋण से प्रभावित किसानों, कंगाल हुये खेत मजदूरों तथा अन्य मुसीबतों मारे लोगों द्वारा निराशावश की जा रही आत्महत्याओं में वृद्धि कर रही है।
4. भारतीय राजनीतिक अवस्था का एक और काला पक्ष है सरकार द्वारा अर्थ व्यवस्था के दरवाजे सामराज्यवादी लुटेरों की लूट के लिये निरन्तर खोलते जाना। अब तक भारतीय अर्थ-व्यवस्था के लगभग सारे क्षेत्र जैसे कि बैंक, बीमा, रेलवे, दूरसंचार, सूचना तकनीक, रक्षा उत्पादन तथा यहां तक कि परचून व्यापार भी सामराज्यवादी वित्तीय पूंजी अर्थात एफ.डी.आई. के प्रवेश, कब्जे तथा लूट के लिये खोले जा चुके हैं। भारत सरकार द्वारा अमरीकी सामराज्यवादियों से हस्ताक्षरित तथाकथित युद्धनीतिक समझौतों से यह लूट और भी ज्यादा आसान हो गई है तथा संस्थागत रूप धारण कर गई है। यह अब एक आम माना जा रहा तथ्य है कि सामराज्यवादी नवऔपनिवेशिक व्यवस्था बनाने के लालच में पगलाये हुये घूम रहे हैं। ताकि उनकी लूट की आयु लम्बी हो सके तथा दुनिया भर के प्राकृतिक संसाधनों पर उनकी जकड़ मजबूत हो सके। ऐसा राजनीतिक ढांचा, जो कि उनकी इन जरूरतों को पूरा करता हो, का निर्माण करने के लिये वे किसी प्रकार का भी अपराध करने से नहीं झिझक रहे तथा लोकतांत्रिक मूल्यों को मिटटी में मिला रहे हैं। सामराज्यवादियों की ऐसी मनहूस इच्छा तथा कभी न पूरा होने वाला लालच मानव जाति के लिये अप्रत्याशित खतरों से भरा पड़ा है। परन्तु, दुर्भाग्य की बात यह है कि इसके बावजूद भारतीय शासक वर्ग इन राक्षसों से अपने आर्थिक तथा राजनीतिक हित बड़ी तेजी से आत्मसात करता जा रहा है।
5. केन्द्र में बी.जे.पी. की सरकार बन जाने से भारतीय संविधान के जनपक्षीय स्तम्भों में से एक-धर्म निरपेक्षता के लिये और ज्यादा बड़े खतरे पैदा हो गये हैं। राजनीतिक शक्ति लगभग संघ परिवार के हाथों में चली गई है तथा वे धर्म आधारित राज्य बनाने के लिये अपने सांप्रदायिक फासीवादी हमलों को बहुत तीव्र रूप दे रहे हैं। अब तक यह प्रतिक्रियावादी ताकतें बहुत सारी संविधानिक सस्थाओं पर कब्जा कर चुकी हैं तथा भारतीय समाज के इतिहास की तोड़-फोड़ करने तथा इसकी संस्कृति तथा शिक्षा प्रणाली का भगवाकरण करने के लिये सिरतोड़ प्रयत्न कर रही है। आर.एस.एस. ने प्रतिक्रियावादी अन्धविश्वासी शक्तियों की नकेल पूरी तरह खोल दी है तथा विरोध को दबाने के लिये बर्बर ताकत का प्रयोग किया जा रहा है। ऐसे भय, असहनशीलता तथा सांप्रदायिक बंटवारे वाले माहौल के नतीजे के तौर पर अल्पसंख्यक समुदाय, दलितों,औरतों तथा आदिवासियों पर बर्बर हमले बढ़े ही नहीं ब्लकि और ज्यादा घिनौना रूप धारण कर चुके हैं।
6. इसमें कोई संदेह नहीं कि देश में प्रगतिशील, लोकतांत्रिक तथा क्रांतिकारी शक्तियां जातिवादी उत्पीडऩ, पूंजीवादी तथा पूर्व पूंजीवादी लूट-खसूट तथा सांप्रदायिक हमलों के विरूद्ध निरन्तर सतत सघंर्ष करती आई हैं, राजनीतिक तौर पर भी तथा जन संगठनों द्वारा भी। परन्तु यह प्रतिरोध देशव्यापी, निर्णायक तथा संगठनात्मक राजनीतिक रूप धारण नहीं कर सका। इस कमजोरी के कारणों का सही ढंग से विश्लेषण करने की जरूरत है। यह समूची स्थिति मांग तो यह करती है कि वर्ग संघर्ष को इसके सारे ही रूपों-आर्थिक, राजनीतिक तथा विचारधारक, में तेज किया जाये, राजनीतिक संघर्ष को प्रमुखता में रखा जाये तथा लोगों को उनकी जीवन स्थितियों को प्रभावित करते अलग-अलग मुददों संबंधी विशाल जन-संघर्षों के लिये संगठित किया जाये । क्योंकि भारत एक विशाल देश है जहां तीन दर्जन से अधिक राष्ट्रीयतायें रहती है, जिनकी अलग-अलग भाषायें है तथा हरेक के अपने अमीर संस्कृति तथा रीति-रिवाज हैं, इसके लिये अलग-अलग क्षेत्रों के लोगों की प्राकृतिक तौर पर अलग-अलग समस्याऐं, प्राथमिकतायें तथा भुगोलिक हालतें व जरूरतें हैं। इसलिये हर क्षेत्र की विशेषताओं का सही ढंग से अध्ययन होना चाहिये है तथा ज्वलंत इलाकाई मुददों को फौरी पहल दे कर लड़ाकू जन-अन्दोलन खड़े किये जाने चाहियें तथा फिर इन स्थानीय तथा इलाकाई संघर्षों को अखिल भारतीय स्तर के आंदोलन का भाग बनाया जाना चाहिये। इस तरह ऐतिहासिक आवश्यकता मांग करती है कि निरंतर रूप में शक्तिशाली आंदोलन निर्मित किया जाये जो कि समाजवाद की ओर बढ़ाने के समर्थ हो।
7. इस महान तथा बड़े कार्य को सफलता सहित हाथ में लेने के लिये माक्र्सवादी विश्लेषणात्मक विधियों के रचनात्मक प्रयोग करने की बड़ी जरूरत है, क्योंकि मानव समाज के विकास के लिये आवश्यक क्रांतिकारी परिवर्तन के लिये यह विधियां ही सबसे ताकतवर तथा एकजुट वैज्ञानिक पंहुच उपलब्ध बनाती हैं। इस वैज्ञानिक पंहुच के साथ साथ बहुत सारे भारतीय विद्वानों तथा सामाजिक राजनीतिक योद्धाओं जैसे कि पेरियार रामास्वामी नाइकर, बाबा साहिब भीम राव अंबेडकर, शहीद-ऐ-आजम भगत सिंह, गदरी बाबे तथा बहुत सारे जन-पक्षीय समाज-सुधारकों द्वारा अमानवीय ब्राहमणवादी तन्त्र को तोडऩे तथा समानता पर आधारित समाजवाद की ओर बढ़ाने के लिये दिये गये योगदानों को सही ढंग से समझने तथा उन पर अमल करने की भी भारी जरूरत है। इन पक्षों से अमर्यादित, गलत तथा अवैज्ञानिक पहुंच हमेशा ही क्रांतिकारी आंदोलनों के विकास में खतरनाक रुकावटें बनती है। भारत के क्रांतिकारी आंदोलनों तथा संघर्षों के इतिहास में असंख्य नेताओं तथा कार्यकत्ताओं द्वारा किए गए अंसख्य बलिदानों के बावजूद सिद्धांत तथा पहुंच में ऐसी कमजोरियां तथा माक्र्सवाद- लैनिनवाद के असूलों से भटकाव, जन-आंदोलनों को निर्णायक बनाने तथा जाति-पाति उत्पीडऩ पर पूंजीवादी लूट-खसूट को खत्म करने के समर्थ बनाने में बड़ी रुकावटें बनते हैं। 1964 में, निस्संदेह, शीर्षस्थ माक्र्सवादी नेताओं की एक अच्छी टीम ने कामरेड पी. सुंदरैय्या के नेतृत्व में बाहरमुखी भारतीय सामाजिक-राजनीतिक यथार्थ का विश्लेषण करने के लिये प्रशंसनीय प्रयत्न किये तथा एक राजनीतिक पार्टी खड़ी की जिसने मजदूरों, किसानों तथा अन्य श्रमिक लोगों में से हजारों की संख्या में लड़ाकू काडर को अपनी ओर आकर्षित किया। परन्तु कुल मिलाकर, देश में वाम शक्तियां अक्सर वैज्ञानिक राह से भटक कर वर्ग सहयोग के दक्षिणपन्थी संशोधंनवादी भटकाव अथवा दुस्साहसवाद के वाम संकीर्णतावादी भटकाव की ओर भटकती रही हैं। इस समय संसदीय अवसरवाद, जो कि दक्षिणपंथी भटकाव की एक किस्म है, क्रांतिकारी आंदोलन का बड़ा नुकसान कर रहा है। शासक वर्ग इन भटकावों को इस्तेमाल करके इस आंदोलन को बांटने तथा दयनीय हालत तक बिखेरने में सफल हो गई है। अन्तराष्ट्र्रीय कम्युनिस्ट आंदोलन में हुए विभाजन तथा भटकावों ने भी भारतीय आंदोलन की मौजूदा उदास कर देने वाली स्थिति में अपना योगदान डाला गया।
8. इसलिये वर्तमान ऐतिहासिक आवश्यकता यह है कि यहां एक हकीकी क्रांतिकारी पार्टी विकसित की जाये, जो कि मजदूर वर्ग के क्रांतिकारी हिरावल दस्ते के तौर से काम करती हो, स्वयं को न्यौछावर करने की इच्छा रखने वाले तथा सुह्रदय काडर को अपने में , सम्मिलित करने के समर्थ हो तथा अपने देश में तथा दुनिया भर की प्रगतिशील लोकतांत्रिक व धर्मनिरपेक्ष शक्तियों के संघर्षों के साथ तालमेल स्थापित करने के समर्थ हो। इन पक्षों से मौजूदा कमजोरियों की निशानदेही करके उन पर जल्दी से जल्दी काबू पाया जा सके। इस उद्देश्य के लिये देश में वामपंथी ताकतों को एकजुट करने के लिये सिर तोड़ उपाय करने होंगे तथा लोगों की वास्तविक मुक्ति के लिये संसदीय तथा गैर संसदीय संघर्षों के अलग-अलग रूपों का सही ढंग से उपयोग करके सांझे सघर्ष संगठित करने होंगे।
9. यह, ‘‘रिेवोल्यूशनरी माक्र्सिस्ट पार्टी आफ इंडिया’’ ऐसे सामाजिक-आर्थिक अखाड़े में इन सारी बड़ी चुनौतियों का मुकाबला करने के लिये खड़ी की जा रही है। इस लम्बे तथा कठिन कार्य की ओर बढऩे के लिये यह पार्टी हर प्रकार के आवश्यक प्रयत्न करेगी। आरम्भिक तौर पर यह पार्टी मेहनतकश आवाम के समस्त भागों को संगठित करने के लिये कोई कसर बाकी नहीं छोड़ेगा, ताकि
- नव-उदारवादी नीतियों का डट कर विरोध किया जाये
- संघ परिवार के सांप्रदायिक-फासीवादी हमलों को परास्त किया जाए।
- रोजाना इस्तेमाल की वस्तुओं तथा जन-उपयोगी सेवाओं की कीमतों में बढ़ौत्तरी पर रोक लगाने के लिये सरकार पर अधिक से अधिक दबाव बनाया जाये,
- भ्रष्टाचार तथा बदइन्तजामी पर काबू पाया जाये,
- बड़ी संख्या में रोजगार के मौके पैदा करवाये जायें,
- जातिवादी उत्पीडऩ तथा अल्पसंख्यक, दलितों, औरतों तथा आदिवासियों पर हर तरह के उत्पीडऩ तथा जनवादी अधिकारों पर हमलों को रोकने के लिय विशाल लामबन्दी की जाये,
- अपने देश के मामलों में सामराज्यवादियों के लगातार बढ़ रहे दखल के विरूद्ध जनसमूहों को जागरूक किया जाये तथा उभारा जाये,
- देश की एकता तथा अखंडता की रक्षा की जाये तथा संघीय ढांचे को कमजोर बनाने का विरोध किया जाये,
- पर्यावरण की अंधाधुध तबाही को रोक लगवाई जाये,
- सर्वहारा-अन्तराष्ट्र्रीयवाद को मजबूत किया जाये।
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