Tuesday, 3 December 2013

लुटेरी पूंजीवादी व्यवस्था के प्रति अविश्वास का इजहार

हरकंवल सिंह

हमारे देश के सत्ताधारियों द्वारा, तथा उनकी कृपा दृष्टि के पात्र बनने के इच्छुक राजनीतिक चिंतकों द्वारा ‘‘भारतीय जनवाद’’ की ‘उत्तमता’ का बड़ा गुणगान किया जाता है। वे अक्सर ही इसको द्ुनियां का सबसे बड़ा लोकतंत्र कहते हैं; जोकि एक अरब बीस करोड़ लोगों की नियती का संचालन करता है। परंतु वास्तविकता यह है कि इस पूंजीवादी जनवादी ढांचे में जनसत्ता का अंश बड़ी तेजी से क्षरित होता जा रहा है तथा धनवान सत्ताधारियों के एकाअधिकारवाद का अंश निरंतर प्रफुल्लित होता जा रहा है। यही कारण है कि केंद्र व प्रांतों की सरकारें चला रहे सत्ताधारियों व अफसरशाही द्वारा जनवादी संस्थाओं की संविधान के अनुसार स्थापित कार्यप्रणाली को भी अक्सर अनदेखा किया जाता है तथा जनवादी मुल्यों को नियोजित ढंग से लताड़ा व नष्ट-भ्रष्ट किया जाता है। 
राजनीति में अपराधिक तत्वों का डरावनी हद तक बढ़ चुका प्रवेश भी  सत्ताधारियों की इस गैर-जनवादी पहुंच का एक अवश्यंभावी परिणाम ही है। आज यह प्रत्यक्ष दिखाई दे रहा है कि इस क्षेत्र में दंगाकारियों, गुंडों, कातिलों, रंगबाजों, भ्रष्टाचारियों तथा हर रंग के समाज विरोधी तत्वों की आमद निरंतर बढ़ती जा रही है। जनवाद के महत्त्वपूर्ण अंग, चुनाव प्रणाली, को तो इन ल_मारों व  थैलीशाहों ने अब बड़ी हद तक अपनी रखैल ही बना लिया है। जिससे राजनीति के क्षेत्र में अति घिनौनी किस्म का परिवारवाद उभर आया है। राजनीति के इस अपराधीकरण के कारण ही आज देश की लोकसभा के 543 सदस्यों में से 160 ऐसे हैं जिन पर कत्ल, इरादा कत्ल, बलात्कार, अगवा तथा धोखाधड़ी आदि जैसे अपराधों के मामले में केस दर्ज हैं जबकि इनमें से दो ‘भद्रपुरूषों’ को अभी-अभी जेल की हवा खाने के लिए भेजा गया है। ऐसी तस्वीर ही राज्य सभा की है। इस तरह की पेशियां भुगत रहे विधायकों की संख्या भी 1250 बताई जाती है जोकि इन कानून-साजों की कुल संख्या का लगभग 30 प्रतिशत के करीब बनती है। 
यही कारण है कि राजनीति का यह शर्मनाक अपराधीकरण आज देश भर में आम लोगों के लिए व्यापक नफरत व गुस्से का विषय बना हुआ है। इस परिपेक्ष में ही देश की सर्वोच्च अदालत अर्थात सुप्रीम कोर्ट ने, पिछले दिनों, राजनीति के निरंतर बढ़ रहे अपराधीकरण को रोकने के लिए कानूनी तौर पर दागी करार दिए गए सांसदों व विधायकों को तुरंत अयोग्य करार देने जैसे कुछ ठोस व महत्त्वपूर्ण फैसले किए हैं। कोर्ट के इन फैसलों के बारे में ‘संग्रामी लहर’ के पिछले अंकों में चर्चा करते हुए हमने लिखा था कि चाहे इनमें से अधिकतर फैसले पूरी तरह स्वागतयोग्य हैं परंतु देश के सत्ताधारियों ने इन्हें लागू करने के प्रति सुहृदयता का इजहार नहीं करना है, क्योंकि यह फैसले उनके संकीर्ण स्वार्थी व लुटेरे हितों के विरूद्ध जाते हैं। हमें यह संदेह था कि देशी व विदेशी कंपनियों के हितों की रक्षा कर रही राजनीतिक पार्टियों-कांग्रेस, भाजपा व उनकी सहयोगी क्षेत्रीय पार्टियां, चाहे लोकलाज के कारण दिखावे के लिए ये अपराधी तत्वों पर रोक लगाने वाले फैसलों के समर्थन में ब्यानबाजी कर सकती हैं परंतु भीतर से खुश नहीं होंगी तथा इन्हें व्यवहारिक रूप देने में तरह तरह की अड़चनें खड़ीं करेंगी तथा साजिशें रचेंगी; वे फैसलों को तोड़ें-मरोड़ेंगी तथा इन्हें न मानने का हर संभव प्रयत्न करेंगी। बाद में घटी घटनाओं ने हमारी इन शंकाओं को बड़ी हद तक सही सिद्ध किया है। 
अब इस दिशा में 27 सितंबर को सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायधीश समेत तीन जजों के एक बैंच ने एक अन्य महत्त्वपूर्ण फैसले द्वारा वोटरों द्वारा ‘किसी भी उम्मीदवार को वोट न डालने’ के अधिकार को सार्थक बनाने की ओर एक कदम उठाया है। जिससे वोटरों द्वारा जन-प्रतिनिधियों को ‘रद्द करने के अधिकार’ को आंशिक रूप में मान्यता मिल गई है। सुप्रीम कोर्ट ने देश के चुनाव आयोग को आदेश दिया है कि चुनाव पर्ची व इलैक्ट्रोनिक वोट मशीन (EVM) में ऐसी व्यवस्था की जाए कि हर वोटर, यदि चाहे, तो समस्त उम्मीदवारों को रद्द कर सके। इस आदेश में कहा गया है कि इस उद्देश्य के लिए मशीन में उम्मीदवारों के नामों के बाद अंत में एक विशेष बटन लगाया जाए जोकि ‘‘उपरोक्त में से कोई भी नहीं’’  (None of the above) का इजहार करें। चाहे देश के जनप्रतिनिधित्व कानून में पहले ही ऐसे अधिकार की व्यवस्था थी; फार्म 17-ए भरके ऐसा किया जा सकता था। परंतु ऐसे अधिकार का प्रयोग करते समय मौके के चुनाव अधिकारी अक्सर ही बेतुकी अड़चने डालते थे। इसके अतिरिक्त, ऐसा करने वाले वोटर का नाम गुप्त नहीं रहता था। इन दोनों अड़चनों को दूर करने के लिए ही एक जनहितैषी संस्था-पीपुल्स यूनियन आफ सिविल लिबर्टीज (PUCL) ने जनहित अपील दायर की थी, जिसके बारे में सुप्रीम कोर्ट के तीन सदस्यों पर आधारित बैंच ने एक महत्त्वपूर्ण फैसला सुनाया है। यह भी संभावना है कि इस नवंबर-दिसंबर में  पांच राज्यों में हो रहे विधानसभा चुनावों में इस फैसले को बाकायदा अमली रूप में लागू भी कर दिया जाएगा। 
यह निश्चित ही सुप्रीम कोर्ट का स्वागतयोग्य कदम है। अपील-कर्ताओं के अनुसार इस फैसले के लागू होने के साथ ‘‘सत्ताधारी पार्टियों द्वारा अपराधी परिपेक्ष वाले उम्मीदवारों को चुनावों में उतारने पर जरूर ही रोक लगेगी।’’ परंतु हम महसूस करते हैं कि अपराधी तत्वों की बढ़ रही संख्या को इस विधि द्वारा रद्द करने के साथ-साथ इससे जनघातक नीतियों के समर्थक कार्पोरेट पक्षीय भ्रष्ट उम्मीदवारों को रद्द करने का भी मौका मिलेगा। आज यह वास्तविकता भी उभरकर सामने आ चुकी है कि साम्राज्यवाद निर्देशित नव-उदारवादी नीतियों, जिन्होंने लोगों का बुरी तरह खून निचोड़ लिया है तथा उनकी मंदी हालत में भारी बढ़ौत्तरी की है, को समस्त पंूजीवाद समर्थक पार्टियां अपने अपने अधिकार क्षेत्रों में जबरदस्ती लागू कर रही हैं। जिससे केवल गरीबी, महंगाई, बेकारी तथा प्रशासनिक दमन जैसी सामाजिक समस्याएं ही नहीं बढ़ रहीं बल्कि रिश्वतखोरी, आर्थिक लूट तथा भ्रष्टाचार में भी तीव्र बढ़ौत्तरी हुई है। देश को तथा देश के लोगों को बड़ी बेदर्दी से लूटा जा रहा है। इस लूट तंत्र द्वारा सत्ताधारी राजनीतिक पार्टियों के नेता, कार्पोरेट घराने तथा अफसरशाही की तिकड़ी मालोमाल हो रही है। इन स्थितियों में आम मेहनतकशों का समूचे राजनीतिक तानेबाने से बड़ी हद तक भरोसा उठ गया है। जनहितैषी राजनीति पक्षों के कमजोर होने के कारण, वे अक्सर सारे राजनीतिज्ञों को ही चोर-उचक्का समझने तक चले जाते हैं। यह भी स्पष्ट है कि सत्ताधारी वर्गों की भिन्न-भिन्न पार्टियों के नेता लोगों की मुश्किलों का कोई हल ढूंढने की बजाए सरेआम अपने अपने घरों को भरने में जुटे हुए हैं। आर्थिक नीतियों के बिना इन समस्त पार्टियों के बीच दमनकारी व गैर-जनवादी प्रशासनिक नीतियों को लागू करने के मामले में कोई अंतर नहीं है। इसलिए चुनाव प्रणाली में ऐसी नई व्यवस्था होने के साथ वोटरों को अपराधी पृष्टभूमि वाले उम्मीदवार के अतिरिक्त वर्तमान लुटेरी व्यवस्था के समर्थकों को रद्द करने का मौका भी मिलेगा। इसीलिए हमारी पार्टी-सी.पी.एम.पंजाब ने पहले ही, 2009 के लोकसभा चुनावों के समय भी, यह फैसला किया था कि जहां भी इन जनघातक नीतियों के मुकाबले में वैकल्पिक जन-हितैषी नीतियों का झंडाबरदार उम्मीदवार नहीं है, वहां समस्त उम्मीदवारों को रद्द किया जाए तथा फार्म 17-ए  भरा जाए चाहे पार्टी स्तर पर ऐसा सैद्धांतिक फैसला करना तो मुश्किल था, परंतु आम वोटरों के लिए इसे लागू करना और भी मुश्किल था, क्योंकि उन्हें सत्ताधारियों की बदलाखोरी का शिकार बनाए जाने की भी बहुत संभावनाएं थीं। अब इस विशेष बटन की व्यवस्था के साथ यह समस्त मुश्किलें काफी हद तक दूर हो जाएंगी। 
इसलिए अब आगे से, इस फैसले को, ‘रद्द करने के अधिकार’  (Right to Reject) तथा ‘वापस बुलाने के अधिकार’ (Right to Recall) को पूर्ण रूप से सार्थक बनाने के संघर्ष के लिए एक कारगर हथियार के रूप में प्रयोग किया जाना चाहिए। निश्चय ही भविष्य में यह मांग भी उभरेगी कि जहां समस्त उम्मीदवारों का विरोध करने वाले वोटरों की संख्या सबसे अधिक वोटें प्राप्त करने वाले उम्मीदवार से अधिक हो वहां पुन: चुनाव हो तथा नए उम्मीदवार खड़े हों। इससे निश्चित ही दागी, अपराधी व भ्रष्ट व्यक्ति निरउत्साहित होंगे तथा आम लोगों की राय व राजनीतिक पसंद को मजबूती मिलेगी। इसके अतिरिक्त इससे अधिक सार्थक चुनाव सुधारों जैसे कि अनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली की व्यवस्था करना तथा महत्त्वपूर्ण मुद्दों पर जनमत संग्रह करवाने आदि के लिए भी रास्ता खुलेगा व देश में जन-हितैषी जनवाद का स्वरूप विकसित करने में सहायता मिलेगी। 
इसलिए समस्त जनहितैषी शक्तियों को NOTA बटन की राजनीतिक सार्थकता लोगों को समझाने के लिए निरंतर प्रयत्न करने चाहियें ताकि आम लोग सत्ताधारी पार्टियों द्वारा दिए जाते हर तरह के लोभ-लालचों तथा भय का मुकाबला करने के समर्थ हों तथा अपनी राय का निडरता से इजहार करें। ऐसे निरंतर व ठोस प्रयत्नों द्वारा ही इस महत्त्वपूर्ण व्यवस्था का देश में जनवाद के विकास के लिए उपयोग किया जा सकता है।  
(नवंबर 2013 अंक का संपादकीय)

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