हरकंवल सिंह
महंगाई हमारे देश की प्रमुख समस्याओं में से आज एक बड़ी समस्या है। यह निरंतर ही बढ़ती जा रही है। ताजा सरकारी आंकड़ों के अनुसार ही देश में थोक कीमतों की बढ़ौत्तरी दर 7.52 प्रतिशत को पार कर चुकी है। इन आंकड़ों के अनुसार ही नित्य उपयोग की वस्तुओं की महंगाई दर 2012 के अक्टूबर महीने में 7.8 प्रतिशत से और आगे बढक़र इस बीते अक्टूबर में 14.68 प्रतिशत हो गई है जबकि खाद्य वस्तुओं के यह आंकड़े 6.72 प्रतिशत से बढक़र 18.19 प्रतिशत हो गए हैं। यह तस्वीर थोक कीमतों की है। प्रचून बाजार में, जहां कि वास्तव में उपभोक्ताओं की जेबें खाली होती हैं, कीमतें इससे कई गुणा अधिक तेजी से बढ़ रही हैं। यहां तक कि सब्जियों, फलों, दालों, चीनी व खाने वाले तेलों आदि के मामले में तो कुछेक वस्तुओं की कीमतों में वर्ष 2004-05 के मुकाबले में तीन गुणा से भी अधिक की बढ़ौत्तरी हो चुकी है।
इस निरंतर व तेज रफ्तार से बढ़ती जा रही महंगाई से समूचे मेहनतकश लोग बेहद परेशान हैं। इस मुसीबत से छुटकारा पाने के बारे मेें सरकार द्वारा पहले लोगों को कभी कभी झूठे दिलासे दिए जाते रहे हैं; परंतु अब तो उसने इनसे भी लगभग पूरी तरह पल्ला झाड़ लिया है तथा देशवासियों को, एक तरह से, मानसून हवाओं के सहारे ही छोड़ दिया है। महंगाई के रूप में लोगों का खून चूसने वाली यह नामुराद बीमारी, वास्तव में, पूंजीवादी व्यवस्था का एक अभिन्न अंग है। लूट खसूट तथा मुनाफाखोरी पर खड़ी इस व्यवस्था में महंगाई एक ऐसी अद्र्धकानूनी व्यवस्था होती है जो कि मेहनतकश लोगों की कमाई को धनवानों की तिजोरियों तक पहुंचाने का बड़ा व स्वीकार्य साधन बन चुकी है।
परंतु पूंजीपतियों के समर्थक अर्थ-शास्त्रियों (डा. मनमोहन सिंह, मोनटेक सिंह आहलूवालिया व वित्त मंत्री पी.चिदंबरम जैसों) के लिए, सैद्धांतिक रूप में यह एक ‘‘साधारण मामला’’ है, जो कि मांग (Demand) व पूर्ति (Supply) के ‘‘अस्थाई’’ असंतुलन की देन होता है। उनके अनुसार, ‘‘जिस वस्तु की मांग उसकी पूर्ति से अधिक हो जाती है, वह कुदरती रूप में ही महंगी हो जाती है।’’ इसलिए महंगाई के लिए न तो सरकार जिम्मेवार होती है तथा न ही संबंधित वस्तु को पैदा करने व सप्लाई करने वाले उत्पादक, बल्कि इसके लिए तो उपभोक्ता दोषी होते हैं जो कि मांग पैदा करते हैं। इसी ‘सैद्धांतिक समझदारी’ के आधार पर ही जब महंगाई की बात चलती है तो हमारे देश के ही नहीं दुनिया भर के सत्ताधारी अक्सर उपभोक्ताओं को ही कोसते हैं तथा ऐसे बेहूदा ऐलान करने तक चले जाते हैं कि महंगाई का ‘वास्तविक कारण’ लोगों की क्रय शक्ति का बढ़ जाना है, उनके द्वारा अधिक खरीद करना व अधिक खाना है। इस गलत धारणा के अधीन ही अमरीका के भूतपूर्व राष्ट्रपति जार्ज बुश ने तो एक बार यहां तक कह दिया था कि चीन व भारत के वासियों द्वारा अधिक खाना खाने के कारण ही दुनिया भर में खाद्य वस्तुओं की कीमतें बढ़ी हैं। जबकि विश्व जानता है कि भारत की आबादी के बड़े भाग को तो दो पहर की पेट भर रोटी भी नसीब नहीं हो रही।
कैश कंट्रोल प्रभावशाली उपाय नहीं
इस उपरोक्त समझदारी के अनुसार ही वर्तमान भारतीय सत्ताधारी भी पिछले दशकों के दौरान निरंतर बढ़ती आई महंगाई के वास्तविक कारकों को रोक पाने की बजाए लोगों की खरीद शक्ति को ही रोकने, अर्थात् ‘‘कैश कंट्रोल’’ करने के लिए मौद्रिक उपायों (Monetary measures) का बार-बार उपयोग करते आ रहे हैं। जोकि, व्यवहार में, महंगाई को रोकने की जगह इसको और तीव्र करते जा रहे हैं। तथा, साथ ही, कुछ अन्य आर्थिक मुसीबतों को पैदा करने में सहायक सिद्ध हो रहे हैं। भारतीय सत्ताधारियों द्वारा इस उद्देश्य के लिए देश के रिजर्व बैंक द्वारा सार्वजनिक क्षेत्र व निजी क्षेत्र के बैंकों के लिए नीति-निर्धारक दिशा निर्देश हर तिमाही के बाद जारी करवाए जाते हैं। कई बार कैश रिजर्व रेशो (CRR) बढ़ा दी जाती है, जोकि बैंकों द्वारा पूंजीपतियों, अन्य कारोबारियों व उपभोक्ताओं को उधार देने वाली कुल राशी को सीमित कर देती है तथा, कभी ब्याज दरें बढ़ाकर लोगों को खर्चे घटाने व बचतों के प्रति उत्साहित करने के लिए प्रेरणा देने का प्रयत्न किया जाता है। इसी पहुंच के अधीन ही पिछले कई सालों से रिजर्व बैंक द्वारा अन्य बैंकों को दी जा रही उधार रकमों पर वसूले जाने वाले ब्याज की दर अर्थात् (Repo-rate) को लगभग हर तिमाही के बाद 0.25 प्रतिशत बढ़ाया जा रहा है। इसका उद्देश्य ‘कैश कंट्रोल’ द्वारा बचतों को बढ़ाना व महंगाई पर रोक लगाना दर्शाया जा रहा है। परंतु प्रत्यक्ष वास्तविकता यह है कि ब्याज दरें लगातार बढ़ाते जाने के बावजूद महंगाई बिलकुल भी नहीं रुकी, बल्कि यह निरंतर बढ़ती जा रही है। कारण स्पष्ट है। बचत करने के लिए दी जाती इस प्रेरणा का अर्थ तो सिर्फ उन मु_ी भर लोगों के लिए ही अर्थ रखता है जिनके पास फालतू धन है। देश की 80 प्रतिशत से अधिक आबादी के पास तो नित्य प्रति के जरूरी खर्चे पूरे करने लायक कमाई भी नहीं है। उन्होंने बचत कहां से करनी है? उल्टा, इससे तो लोगों के खर्चे और अधिक बढ़ जाते हैं। ब्याज दर बढऩे से पूंजीपतियों के पूंजीगत खर्चे बढ़ जाते हैं। परिणामस्वरूप, उनके द्वारा पैदा की जाती वस्तुओं के लागत खर्चे बढ़ जाते हैं तथा आगे वे, ऐसी वस्तुओं की कीमतें बढ़ा देते हैं। उदाहरणस्वरूप, साबुन-सोडे जैसी बहुत सारी नित्य उपयोग की वस्तुओं की मांग क्योंकि बहुत ही कम लचकदार होती है इसलिए लागतों के बढ़ जाने के कारण वे निरंतर महंगी होती जाती हैं। यही कारण है कि रिजर्व बैंक द्वारा ब्याज दरें बढ़ाने के बार-बार उठाए जा रहे कदमों के बावजूद देश में महंगाई बढ़ती जा रही है।
महंंगाई के वास्तविक कारण
ऐतिहासिक रूप में देखा जाए तो यह निश्चित ही एक कड़वी हकीकत है कि आजादी प्राप्ति के उपरांत हमारे देश में महंगाई निरंतर बढ़ती ही गई है। भिन्न-भिन्न समयों में इसके अलग-अलग कारण गिने जा सकते हैं। शुरू-शुरू में कई वस्तुएं विशेष रूप में अनाजों आदि की कीमतें उनकी कमी के कारण भी बढ़ीं थीं। परंतु अधिकतर इस महंगाई का वास्तविक कारण सरकार की नीतियां ही रही हैं। सरकार द्वारा अपने हर बजट में अप्रत्यक्ष करों (Indirect Tax) में बार-बार बढ़ौत्तरी करते जाना, सरकारी फीसों व कंट्रोल कीमतें बढ़ाते जाना तथा भारतीय रूपए का मुल्य घटाने के साथ अनेक वस्तुओं की कीमतें नित्य नए रिकार्ड बनाती आई हैं। यह तो होता रहा है कि कृषि उपजों की नई फसल आने के समय कई वस्तुओं की सप्लाई बढ़ जाने से उनकी कीमतें कई बार गिरती भी रही हैं, परंतु औद्योगिक वस्तुओं में ऐसा रूझान तो कभी कम ही देखने को मिला था, परंतु सरकार द्वारा जन-दबाव में बनाए गए कुछेक कानूनों जैसे कि ‘‘जरूरी वस्तुओं के बारे में कानून’’ तथा ‘‘अधिक से अधिक मुनाफाखोरी’’ आदि के बारे में बनाए गए कानूनों के कारण महंगाई की रफ्तार को कंट्रोल करने के लिए प्रयत्न भी होते रहे हैं। परंतु अब, जबसे नव-उदारवादी नीतियां (जिन्हें सत्ताधारी ‘आर्थिक सुधार’ कहते हैं) लागू की गई हैं। बाजार की शक्तियों को पूर्ण छूट दी गई है तथा कीमतों को पूरी तरह कंट्रोल मुक्त कर दिया गया है। परिणामस्वरूप महंगाई छलांगें मारती बढ़ती जा रही है। शर्मनाक बात तो यह है कि जिस महंगाई ने एक ओर मेहनतकश लोगों की (एक हद तक मध्य वर्ग की भी) कमर तोड़ दी है, सत्ताधारी उस महंगाई को भी देश में हुए विकास का चिन्ह बता रहे हैं। कई तो इसे लोगों की क्रय शक्ति के बढ़ जाने के सबूत के रूप में पेश करने तथा गरीब लोगों के घावों पर नमक छिडक़ने तक भी चले जाते हैं। जबकि वास्तविकता यह है कि देश में प्रभावी मांग (Effective demand) बढ़ नहीं रही, बल्कि इन नीतियों ने इजारेदारों व जखीरेबाजों में बढ़ौत्तरी करके वस्तुओं की पूर्ति के रास्ते में जरूर नई बनावटी रुकावटेें पैदा कर दी हैं, जोकि हर वर्ष बढ़ती तथा और गंभीर होती जा रहीं है। इन नीतियों के अधीन ही वायदा व्यापार (Forward trading), जोकि सट्टेबाजी का सुधरा हुआ नाम है, को पूर्ण छूट दी जा रही है। यह गैर-कानूनी व समाज विरोधी सट्टेबाजी जखीरेबाजी का अति घिनौना रूप है जिस द्वारा माल के बनने या पैदा होने से पहले ही फर्जी खरीद व बिक्री द्वारा कागजों में ही उसकी जखीरेबाजी करके कीमतें बढ़ा दी जाती हैं। इस कुकर्म द्वारा आज अंतरराष्ट्रीय बाजार में मुट्टी भर सट्टेबाजों ने कच्चे तेल जैसी कई वस्तुओं के भाव आसमान में चढ़ा दिए हैं।
इसलिए, महंगाई पर रोक लगाने के लिए वस्तुओं की मांग को घटाने हेतु कैश कंट्रोल जैसे अर्थहीन हाथ-पांव मारने की जगह मुनाफाखोर लालचियों द्वारा आवश्यक वस्तुओं की पूर्ति के रास्ते में खड़ी की गई हर तरह की रुकावटों को खत्म करने की जरूरत है। भारतीय रिजर्व बैंक के भूतपूर्व गर्वनर श्री सुब्बाराव द्वारा भी एक समय पर भारत सरकार को स्पष्ट शब्दों में यह सुझाव दिया गया था। परंतु सरकार के कर्ता-धर्ता इसको उसकी दुचित्ति करार देकर यह आशा लगाए बैठे थे कि नया गर्वनर श्री रघुराम राजन, जो कि मनमोहन सिंह-मोनटेक सिंह की टीम का एक विशेष सदस्य है, ब्याज दरों में बढ़ौत्तरी किए बिना ही महंगाई पर रोक लगा लेगा। परंतु उसके तीन महीनों के कार्यकाल के दौरान भी दो बार रेपो रेट (ब्याज दर) बढ़ाने के बावजूद महंगाई से बिल्कुल भी कोई राहत नहीं मिली बल्कि कीमतें और उपर चली गई हैं। तथा अब, केंद्रीय वित्त मंत्री पी.चिदंबरम को भी 14 नवंबर को बैंकों के मुखियों की वार्षिक बैठक में सरेआम यह कड़वा सच स्वीकार करने के लिए मजबूर होना पड़ा है कि ‘‘खाद्य वस्तुओं की निरंतर बढ़ रही महंगाई को रोकने का एकमात्र ढंग उनकी सप्लाई को बढ़ाना है।’’
जहां तक वस्तुओं की सप्लाई को बढ़ाने का संबंध है, इसके लिए किसी भी वस्तु का उत्पादन बढ़ाने के लिए निश्चित ही कुछ न कुछ समय जरूर लगता है, परंतु जखीरेबाजी व चोरबाजारी द्वारा पैदा की गई बनावटी कमी को खत्म करने के लिए तथा इजारेदारियों को लगाम लगाने के लिए पर्याप्त आवश्यक प्रबंधकीय कदम तो तुरंत ही उठाए जा सकते हैं। यदि इसके लिए सत्ताधारियों में आवश्यक राजनीतिक इच्छा शक्ति मौजूद हो। जग जानता है कि समाजवादी रूस पर जब तक क्रांतिविरोधी शक्तियां हावी नहीं हुईं, आम लोगों के उपयोग की वस्तुओं की कीमतों में लगभग 40 वर्षों तक एक पैसे की भी बढ़ौत्तरी नहीं हुईं थी। महंगाई को रोकने तथा वस्तुओं की सप्लाई को बनाए रखने के लिए यह जरूरी है कि हर तरह की चोर बाजारी पर पूर्ण रूप में रोक लगाई जाए। इस उद्देश्य के लिए बुनियादी जरूरत यह है कि ‘खुले बाजार’ की जगह कीमतों के निर्धारण आदि की समस्या पर सरकारी व जनवादी कंट्रोल बढ़ाया व असरदार बनाया जाए।
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