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Sunday, 17 November 2013

धर्म निरपेक्षता के लिए ही नहीं, जनवाद के लिए भी खतरनाक है नरेंद्र मोदी का उभरना

हरकंवल सिंह

वर्तमान भारतीय संविधान चाहे भाईचारे पर आधारित न्यायसंगत सामाजिक परिवर्तन की ओर तो बिल्कुल भी निर्देशित नहीं, परंतु इसमें दो अच्छे तत्व जरूर शामिल हैं। पहला है, धर्म निरपेक्षता पर आधारित राजनीतिक व्यवस्था तथा दूसरा है सरकार के, गठन के लिए जनवाद का दम भरती चुनाव प्रणाली; चाहे इस चुनाव प्रणाली द्वारा प्राप्त जनवाद भी अभी पूंजीपति-भू-स्वामी वर्गों के वर्गीय हितों को प्रफुलित करने के लिए ही इस्तेमाल की जा रही है। भारतीय जनता पार्टी ने 2014 में होने वाले लोक सभा चुनावों से 7-8 महीने पहले ही अगले प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी के नाम की विधिवत घोषणा करके भारतीय संविधान की इन दोनों व्यवस्थाओं की भी सरेआम खिल्ली उड़ाई है तथा इनके अस्तित्व के लिए नये खतरे पैदा करने के भी स्पष्ट संकेत दे दिए हैं। 
वैसे तो भाजपा द्वारा आरएसएस के आदेशों के अनुसार पिछले कई महीनों से नरेंद्र मोदी को पार्टी के सर्वोच्च नेता के रूप में उभारा जा रहा है। इतिहास इस बात का भी गवाह है कि जर्मन तानाशाह एडोल्फ हिटलर ने ‘नस्ली शुद्धता व उत्तमता’ के प्रतिक्रियावादी संकल्प व अंध-राष्ट्रवाद पर आधारित फाशीवादी विचारधारा से प्रेरित ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ’ (आरएसएस), स्वतंत्रता संग्राम के समय से ही देश में साम्प्रदायिक राजनीति का स्रोत्र बना आ रहा है। यह यहां भी मध्ययुगीन धर्म आधारित राज्य स्थापित करने का मुद्दई है तथा धार्मिक अल्पसंख्यकों के विरुद्ध सांप्रदायिक घृणा भडक़ाने का कोई भी अवसर हाथ से नहीं जाने देता। इसलिए ही इस बार, इन चुनावों से पहले वोटरों को सांप्रदायिक आधार पर पूरी तरह बांट देने के लिए ही नरेंद्र मोदी को पार्टी के प्रमुख नेता के रूप में उभारा गया है तथा ‘संघ परिवार’ के अन्य संगठन जैसे कि ‘विश्व हिंदू परिषद’ व बजरंग दल आदि भी देश में सांप्रदायिक आग भडक़ाने के लिए इस कुकर्म को पूरा करने में पूरी तरह जुटे हैं। यह बात अलग है कि देशवासियों को भ्रमित करने के लिए मोदी को कभी कभी ‘विकास पुरूष’ तथा ‘लोह पुरूष’ के रूप में भी उभारा जाता है। परंतु इन सबका उद्देश्य तो वोटरों का सांप्रदायिक आधार पर ध्रुविकरण करके भाजपा की सत्ता पर दावेदारी को पक्का करना ही है। मुख्यमंत्री के रूप में मोदी के कार्यकाल के दौरान गुजरात में हुए विकास का शोर तो इस उद्देश्य के लिए केवल एक हथकंडा मात्र ही है। यह सर्वविदित है कि इस समय के दौरान गुजरात में किसानों, मजदूरों व अन्य मेहनतकश लोगों को उजाडक़र केवल अडानी, अंबानी व टाटा आदि जैसे कार्पोरेट घरानों ने भी अच्छे हाथ रंगे हैं। यहां तक कि इस विस्थापन की आग तो 30-40 वर्ष पहले वहां जा बसे पंजाबी किसानों तक भी पहुंच गई है। अब तक तो यह भी एक सर्वविदित सच बन चुका है कि गुजरात के आम लोगों को मोदी मार्का विकास, जो कि मनमोहन सिंह मार्का विकास की पूरी तरह कारबन कापी ही है, का कोई लाभ नहीं पहुंचा। इस बारे में ठोस तथ्यों के आधार पर बहुत कुछ छप चुका है कि वहां आम आदमी पहले की तरह ही कैसे गरीबी, पिछड़ेपन, भुखमरी व कुपोषण का शिकार है तथा महामारियों मेंं घिरा हुआ है। इससे सिद्ध हो जाता है कि नरेंद्र मोदी विकास को नहीं वास्तव में सांप्रदायिक मानसिकता को ही मूर्तिमान करता है। 
यह भी एक सत्य है कि जहां तक धर्म आधारित सांप्रदायिक जोड़तोड़ का संबंध है,  भारतीय संविधान में इनके लिए कोई जगह नहीं है। भारत पाक विभाजन के उपरांत पाकिस्तान का संविधानिक ढांचा जरूर शरियत के आधार पर बना था। परंतु  भारतीय संविधान सैद्धांतिक रूप में धर्म निरपेक्षता के उसूलों पर आधारित है। यह बात अलग है कि आजादी प्राप्ति के 67 साल बीत जाने के बाद भी अधिकतर पूंजीपति जागीरदार समर्थक पार्टियां अभी भी चुनावों के समय ऐसी सांप्रदायिकता व जातिवादी जोड़-तोड़ सरेआम करती हैं तथा चुनाव जीतने के लिए तरह-तरह के सांप्रदायिक पत्ते भी खेलती हैं। इनमें से अधिकतर राजनीतिक पार्टियां तो वैसे भी धर्म निरपेक्षता अर्थात् धर्म व राजनीति को अलग रखने के निर्विवाद व महत्त्वपूर्ण सिद्धांत को अक्सर ‘‘सर्व धर्म सम भाव’’ के रूप में बिगाडक़र पेश करती हैं तथा अपने अपने संकुचित राजनीतिक हितों की प्रतिपूर्ति के लिए इसका दुरुपयोग करती हैं। इसी कारण ही पिछले समय के दौरान देश में सांप्रदायिक तनाव निरंतर बढ़ता ही गया है। 

आर.एस.एस. का ऐजंडा
इस परिपेक्ष्य में ही भाजपा के सूत्रधार अर्थात् आर.एस.एस. की अब नीति व नीयत यह है कि जन असंतोष भरे इस राजनीतिक वातावरण का लाभ लेकर देश में सांप्रदायिक विभाजन तीव्र किया जाए तथा यहां धर्म आधारित राज्य स्थापित करने के मंसूबे के लिए राजनीतिक समर्थन जुटाया जाए। इस उद्देश्य के लिए उसके द्वारा नरेंद्र मोदी का उपयोग किया जा रहा है, केवल उसकी आर.एस.एस. वाली पृष्ठभूमि के कारण ही नहीं, बल्कि  उसकी फाशीवादी सांप्रदायिक करतूतों के कारण भी जिनका 2002 में हुए गोधरा कांड़ के दुखांत के बाद निरंतर इजहार होता आया है। अब तक यह तथ्य पूरी तरह स्थापित हो चुका है कि सरकारी शह पर, मोदी के कार्यकाल के दौरान, वहां सैंकड़ों मुस्लमानों का सरेआम कत्लेआम किया गया, उनके घर व जायदादों को बेरहमी से जलाया गया तथा  अनेक निर्दोष स्त्री पुरूषों को पुलिस द्वारा झूठे मुकाबलों में मारा गया। इन अत्याचारी शासकों की न्याय प्रणाली को काफी हद तक प्रभावित करने की योग्यता होने के बावजूद यह सारे गुनाह अब तक पूरी तरह साबित हो चुके हैं, तथा आज तक मोदी तो चाहे बचा हुआ है परंतु उसके मंत्री व अन्य कई गुर्गे जेलों की हवा खाने के लिए मजबूर हैं। 
यही कारण है कि भाजपा द्वारा मोदी को पार्टी के प्रमुख नेता के रूप में पेश करने पर देश भर के जम्हूरियत पसंद लोगों ने ही लाहनत-मलाहनत नहीं की बल्कि पार्टी के अंदर भी इसका तीव्र विरोध हुआ। परंतु इस व्यापक विरोध को नजरअंदाज करके भाजपा द्वारा उसे प्रधानमंत्री के उम्मीदवार के रूप में पेश करने का उद्देश्य देश को सांप्रदायिक आधार पर पूरी तरह विभाजित कर देना नहीं तो और क्या हो सकता है? स्पष्ट रूप में यह जनवादी लोक राय का नग्न अपमान है, तानाशाही धौंस पट्टी का इजहार है तथा भाजपा द्वारा हिटलर की बदनाम विरासत पर ‘गर्व’ करना है। इस देश के संविधान के धर्म निरपेक्षता के तत्व को नष्ट कर देने की स्पष्ट चुनौती है, जिसका इजहार भाजपा की राज्य सरकारों द्वारा शिक्षा के क्षेत्र में धार्मिक भावनाओं व धारणाओं को उभारकर पहले ही अक्सर किया जाता रहा है। 

जनवाद के लिए खतरा
मोदी के बारे में की गई इस घोषणा का दूसरा पक्ष है : जनवाद को चुनौती। सब जानते हैं कि देश में केंद्रीय व राज्य सरकारों के गठन के लिए संविधान के अनुसार एक चुनाव प्रणाली की व्यवस्था की गई है। जो चाहे आम आदमी के वास्तविक जनवाद को तो रूपमान नहीं करती परंतु सत्ताधारी वर्गों के हितों की रक्षा करने वाली राजनीतिक पार्टियों को भिन्न भिन्न पहुंचों व नीतियों पर आधारित चुनावों को लडऩे का अधिकार जरूर देती है। वे अपने अपने प्रभाव वाले लोगों व देश के समक्ष उत्पन्न समस्याओं के निपटारे के लिए अपनी अपनी समझदारी व दांव-पेंचों के अनुसार पांच साल बाद लोगों तक वोट डालने के लिए पहुंच करती हैं। इस तरह जो पार्टी या पार्टियों का गठजोड़ संबंधित सदन में बहुमत प्राप्त करता है वे अपना नेता चुनकर सरकार का गठन करता है। परंतु भाजपा ने इस बार चुनावों से पहले ही प्रधानमंत्री बनाकर इस समूची प्रक्रिया को सिर के बल खड़ा कर दिया है। तथा इस जनवादी प्रणाली का अच्छा खासा मजाक उड़ाया है। उसके लिए अब यह चुनाव नीतियां या पहुंचों की टक्कर नहीं रहा। बल्कि उसने स्पष्ट रूप में इस चुनाव को एक व्यक्ति का चुनाव करने का मुद्दा बना दिया है। यह पहुंच अपने अंतिम परिणाम के रूप में तानाशाही की ओर बढ़ती है तथा जनवाद को पूरी तरह रद्द करती है। तथा, जब आज मोदी के पीछे साम्राज्यवादी वित्तीय पूंजी तथा इजारेदार पूंजी भी साफ खड़ी दिखाई देती हो तो तानाशाही का यह खतरा और भी बढ़ जाता है, क्योंकि पूंजीवादी व साम्राज्यवादी शोषण के सताए लोगों को दबाने के लिए यह पूंजी अति बर्बर हो सकती है तथा क्रूर रूप धारण कर सकती है। इस तरह, भाजपा का यह फैसला न सिर्फ धर्म निरपेक्षता को खत्म करने की ओर बढ़ता दिखाई देता है। बल्कि यह जनवाद की भी जड़ों में तेल देने की ओर निर्देशित है। 
यह बात अलग है कि भाजपा द्वारा किए जा रहे इस सांप्रदायिक ध्रुवीकरण से देश में केवल धार्मिक अल्पसंख्यकों से संबंधित लोग ही नहीं बल्कि समूचे सैकुलर, जनवाद पसंद तथा इंसाफ पसंद लोग भी भाजपा के इन मनसूबों का निश्चित रूप में डटकर विरोध करेंगे। इसके फलस्वरूप भाजपा का राजनीतिक विरोध और बढ़ेगा तथा वह लोगों से और अधिक अलग-थलग हो सकती है। परंतु यहां बड़ी चिंता की बात यह है कि ऐसे ध्रुवीकरण का अधिक लाभ चुनावों के समय कांग्रेस पार्टी के पक्ष में भी जा सकता है, जिसने अपने लंबे शासनकाल के दौरान न सिर्फ मेहनतकश लोगों की सामाजिक आर्थिक हालत को और बर्बाद किया है बल्कि साम्राज्यवादी लुटेरों के हितों की खातिर देश की समूची अर्थव्यवस्था को भी तबाह कर दिया है। यही कारण है कि वर्तमान कांग्रेस पार्टी लोगों की नजरों में लुटेरों, ठगों, चोरों व रिश्वतखोरों की एक पार्टी बन चुकी है। जो केवल बड़े पूंजीपतियों, विदेशी कंपनियों व बड़े व्यापारियों की लूट-खसूट के लिए ही फिक्रमंद हैं, तथा जो आम लोगों को रंगीन सपनों द्वारा बहलाने व वोट बटोरने के लिए हर तरह का झूठा प्रचार कर रही हैं। चुनावों के समय इस समुची स्थिति का लाभ कुछ क्षेत्रीय पार्टियां भी लेने का प्रयत्न करेंगी, जिनका आर्थिक नीतियों के रूप तथा भ्रष्टाचार करने के नजरिये से कांग्रेस या भाजपा से बिलकुल भी कोई अंतर नहीं है। परंतु अधिक चिंताजनक बात यह है कि देश में वामपंथी शक्तियों के बीच विचारधारक व राजनैतिक एकजुटता की कमी होने के कारण पारंपरिक वामपंथी पार्टियां-सी.पी.आई. व सी.पी.आई.(एम) भी भाजपा द्वारा धर्म-निरपेक्षता के लिए उभारे गए इन नए खतरों के बहाने कांग्रेस को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष सहयोग दे सकती हैं। सी.पी.आई.(एम) के प्रमुख नेता सीता राम येचुरी द्वारा, पिछले दिनों अचानक ही सोनिया गांधी को ‘पिछले दशक की महत्त्वपूर्ण राजनीतिक नेता’ का दिया गया प्रमाण पत्र मौकापरस्ती के इस नर्क का नया द्वार ही समझा जाना चाहिए। कांग्रेस के नेतृत्व में काम करती यू.पी.ए. सरकार की नवउदारवादी नीतियों के कारण महंगाई की चक्की में पिसे जा रहे लोगों, बेरोजगारी के कारण निराश हुए तथा असमाजिक धंधों में फंस रहे नौजवान तथा कंगाल हो रहे करोड़ों लोगों के लिए ऐसा अनर्थ होना भी बहुत ही नुकसानदेह सिद्ध होगा। 
इन स्थितियों में क्रांतिकारी वामपंथी शक्तियों के लिए यह अहम व ऐतिहासिक कार्य बन जाता है कि वे एकजुट हों तथा देशवासियों के समक्ष एक क्रांतिकारी नीतिगत बदल उभारने के लिए जोरदार प्रयत्न करें। इस उद्देश्य के लिए जनसंघर्षों के मैदान में उतरना चाहिए तथा भाजपा, कांग्रेस व इनके सहयोगी राजनीतिक दलों के विरूद्ध जोरदार विचारधारक व राजनीतिक अभियान भी चलाया जाना चाहिए। सी.पी.एम. पंजाब इस दिशा में निरंतर प्रयत्नशील रहेगी।