Friday 7 April 2017

चुनाव सुधारों का महत्त्वपूर्ण मुद्दा

हरकंवल सिंह 
हमारे देश में चुनाव सुधारों का मुद्दा बार-बार उभरता रहता है।  जबकि इस दिशा में सरकार द्वारा अभी तक कोई ठोस व गंभीर पहुंच नहीं अपनाई गई है। लोक सभा या विधान सभाओं के चुनावों के समय, जब प्रचलित चुनाव प्रणाली की त्रुटियां उभरकर सामने आती हैं, तब इस महत्त्वपूर्ण विषय पर चलंत सी ब्यानबाजी होती है, परंतु चुनावों का शोर खत्म होने के उपरांत यह चर्चा अक्सर ही ठंडी हो जाती है।
बहुत से राजनीतिक चिंतकों द्वारा इस तथ्य को भलीभांति महसूस किया जा रहा है कि हमारी मौजूदा चुनाव प्रणाली वास्तविक व न्याय-संगत जनमत को प्रकट नहीं करती। चाहे सरकारी तंत्र द्वारा तो, 5 सालों बाद करवाए जाते चुनावों के आधार पर, यह दावे बार-बार दोहराए जाते हैं कि ‘भारतीय लोकतंत्र संसार का सबसे बड़ा व संपूर्ण लोकतंत्र है’, परंतु चुनावों के समय जनमत को प्रभावित करने तथा भ्रमित करने के लिए सत्ताधारियों द्वारा जिस तरह के अनैतिक हथकंडे प्रयोग किए जाते हैं, वे इस जम्हूरी प्रक्रिया को बुरी तरह कलंकित करते हैं तथा लोकतंत्र के वास्तविक तत्व को बड़ी हद तक खत्म कर देते हैं। हर बार सरकार द्वारा अधिक से अधिक वोट डलवाने तथा चुनावों को ‘‘जम्हूरियत के पर्व’’ के रूप में पेश करने के लिए भी कई तरह के पापड़ बेले जाते हैं। पर इस तथ्य को छुपाया नहीं जा सकता कि सत्ताधारी वर्गों की पार्टियों द्वारा जिस तरह धर्मों, जातियों तथा उपजातियों का इस्तेमाल किया जाता है, वोटरों को डराया धमकाया जाता है तथा लोभ-लालच दिए जाते हैं, उनके कारण यह स्वस्थ जम्हूरियत कैसे रह जाती है? ऐसी स्थितियों में स्वतंत्र तथा निरपक्ष चुनावों के सारे सरकारी दावे पूर्ण रूप से ढकोंसलेबाजी प्रतीत होते हैं। क्योंकि जनमत को गुमराह करके प्राप्त किए गए चुनाव परिणाम किसी तरह भी जम्हूरी व न्यायसंगत नहीं कहे जा सकते।
 
चुनाव सुधारों की जरूरत 
देश के संविधान में दर्ज संघीय व जम्हूरी ढांचे से संबंधित लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में जम्हूरियत के तत्त्वों का निरंतर कमजोर होते जाना निश्चय ही एक चिंता का विषय है। शुरू से ही पूंजीपतियों-जागीरदारों की लुटेरे सत्ताधारी वर्गों की पार्टियों द्वारा बूथों पर कब्जे करके अपने उम्मीदवारों को जिताने व जरूरत अनुसार जोर जबरदस्ती बहुमत बनाने के घिनौने कांड होते रहे हैं। चाहे अब, स्थानीय पुलिस के साथ साथ केंद्रीय कंट्रोल वाले अद्र्ध-सैनिक बलों की चुनाव डयूटियां लगने से, बूथों पर कब्जे करने जैसी जोर-जबरदस्तियों को तो जरूर एक हद तक रोका गया है, परंतु इन धनाढ पार्टियों द्वारा जाली वोटें डालने के लिए अभी भी कई तरह के हथकंडे अक्सर ही इस्तेमाल किये जाते हैं। जम्हूरियत की रक्षा के लिए ऐसी गैर-जम्हूरी व गैर कानूनी कार्यवाहियों को और अधिक सख्ती से रोकना अति जरूरी है। इस के बिना, इन पार्टियों द्वारा जाति, धर्मों आदि की विभिन्नताओं का आज भी चुनावों के समय सरेआम दुरुपयोग किया जाता है। उनके द्वारा इस गैर वर्गीय व फिरकू अलगाव पर आधारित गणित को आधार बनाकर केवल चुनाव गठजोड़ ही नहीं बनाए जाते, बल्कि वोटरों को प्रभावित करने के लिए कई प्रकार के दंभ भी रचे जाते हैं। इस उद्देश्य के लिए ‘विशेष सम्मेलन’ आयोजित किए जाते हैं व धर्म तथा जाति पर आधारित भावनात्मक मुद्दे उभारकर मीडिया द्वारा भी जनमत को प्रभावित किया जाता है। यह पार्टियां उम्मीदवारों का चुनाव करते समय भी, किसी खास क्षेत्र में धर्म व जाति पर आधारित समीकरणों को अक्सर ही केंद्र में रखती हैं। और, आगे उम्मीदवारों द्वारा तो भद्दी अपीलें खुले रूप में की जाती हैं। जिससे चुनावों के समय  आवश्यक जम्हूरी माहौल बुरी तरह दूषित हो जाता है।
यहां ही बस नहीं, इन पूंजीवादी पार्टियों द्वारा, चुनाव जीतने के लिए, लोगों को डरा धमका कर वोटें प्राप्त करने के लिए सरेआम षडयंत्र रचे जाते हैं। इस उद्देश्य के लिए कई बार तो बाहुबलियों व अपराधी ग्रुपों का भी बिना किसी भय से दुरुपयोग किया जाता है। इसी की नतीजा है कि अपराधी प्रवृति वाले कई ‘भद्रपुरुष’ लोक सभा व विधान सभाओं तक पहुंच चुके हैं। यह शर्मनाक हकीकत आधुनिक भारतीय लोकतंत्र के एक बहुत ही चर्चित पक्ष के रूप में उभर कर सामने आ चुकी है।
इसके बिना, यह भी एक कड़वी हकीकत है कि पूंजीवादी पार्टियां चुनाव जीतने के लिए लोगों से तरह-तरह के झूठे वायदे करती हैं। उन्हें कई प्रकार के लालच दिए जाते हैं। साडिय़ां, अन्य कपड़े व वस्तुएं बांटी जाती हैं। नशों के लंगर लगाए जाते हैं, तथा वोटें खरीदने के लिए, ठगी, भ्रष्टाचार के साथ कमाए काले धन का सरेआम प्रयोग किया जाता है। इस घोर अनैतिकता को रोकने के लिए चुनाव आयोग द्वारा अब तक किए गए सभी प्रयत्न बुरी तरह असफल सिद्ध हुए हैं। चुनाव खर्चे की अधिकतम निर्धारित की गई सीमा की जरा सी भी परवाह नहीं होती और वह तय की गई सीमा से कई गुणा ज्यादा खर्च करते हैं। चुनाव खर्चे पर नजर रखने के लिए ‘‘खर्च पर्यवेक्षक’’ नियुक्त करने से भी गरीब लोगों के हितों का प्रतिनिधित्व करने वाले उम्मीदवार या साधारण आजाद उम्मीदवारों की परेशानियां में बढ़ौत्तरी ही हुई है; पूंजीवादी पार्टियों के उम्मीदवारों ने तो अपनी धन शक्ति के जोर पर उन पर्यवेक्षकों को भी ठेंगा भर जाना है। अभी-अभी 5 राज्यों की विधान सभाओं के लिए हुए चुनावों में यह तथ्य भी उभरकर सामने आए हैं कि इन पर्यवेक्षकों ने गाडिय़ों, स्पीकरों व खुराक आदि के मनोकल्पित खर्चे जोर-जबरदस्ती से डालकर, चुनाव आयोग की आचार-संहिता का पालन करने वाले उम्मीदवारों को तो हैरान-परेशान किया है परंतु इस संहिता का उल्लंघन करने वाली सत्ताधारी वर्गों की पार्टियों को बड़ी हद तक आखों से ओझल  ही किया है। यहां तक कि पंजाब में तो आखिरी दो दिनों के दौरान, जब वह पार्टियां सरेआम नशा व पैसे बांट रही थीं, सडक़ों पर चैकिंग के लिए लगाए गए पुलिस व अद्र्ध-सैनिक बलों के नाकों को भी पूरी तरह हटा लिया गया। जिसके चलते इस बार भी लगभग समूचे प्रांत में ऐसी अनैतिक व अपराधिक कार्यवाहियां सरेआम हुई हैं।
मौजूदा चुनाव प्रणाली की एक और प्रमुख कमी भी बहुत अखरती है। इस प्रणाली के अधीन चुनावों में हिस्सा लेने वाली सभी पार्टियों को एक समान माहौल (Level Playing field) नहीं मिलता। केंद्र व राज्यों की सत्ताधारी पार्टियां चुनाव आयोग की बंदिशों के बावजूद सरकारी मशीनरी का जमकर दुरुपयोग करती हैं।  विशेष  रूप से सरकारी प्रचार साधन जैसे कि टीवी (दूरदर्शन) तथा रेडियो (आकाशवाणी) तो चुनावों के समय सरकारी पक्ष के पूर्ण रूप से भोंपू ही बन जाते हैं तथा विपक्ष के विरुद्ध हर तरह का जहर उगलते हैं। जिससे जनमत निश्चित ही प्रभावित होता है। इन चुनावों में भी यह दोनों सरकारी संस्थान भाजपा के, विशेष रूप से प्रधानमंत्री के, शर्मनाक प्रवक्ता ही बन गए थे।
इस चुनाव प्रणाली की एक और स्पष्ट त्रुटि यह है कि इस में सब से अधिक मत प्राप्त करने वाला उम्मीदवार विजयी घोषित किया जाता है, जबकि अक्सर वह  बहुमत का प्रतीक नहीं होता। इस तरह ही सबसे अधिक सीट जीतने वाली पार्टी को सरकार बनाने के लिए पहल के आधार पर बुलाया जाता है, चाहे उसे कुल पड़े मतों का आधे से भी कम का समर्थन ही प्राप्त हो। इस आधार पर 2014 में चुनावों के बाद भाजपा ने 31 प्रतिशत मत प्राप्त करके ही केंद्र में सरकार पर कब्जा कर लिया था जबकि देश के 69 प्रतिशत मतदाताओं ने उनको स्पष्ट रूप से रद्द किया था। इस तरह यह सरकार निश्चित ही बहुमत सरकार तो नहीं कहला सकती, जबकि बहुमत का होना जम्हूरी प्रणाली का एक महत्त्वपूर्ण व मुख्य आधार माना जाता है।
 
चुनाव सुधारों के बारे में अव्यवहारिक सुझाव 
उपरोक्त समस्त तथ्य इस बात की तो मांग करते हैं कि इन समस्त कमियों-कमजोरियों को दूर करने के लिए तथा हर तरह की गैर जम्हूरी व अनैतिक कार्यवाहियों को असरदार ढंग से रोकने के लिए मौजूदा चुनाव प्रणाली में पर्याप्त सुधार किए जाएं। परंतु एकाअधिकारवादी शासक वर्गों के चिंतकों द्वारा, विशेष रूप से उनके राजनीतिक नेताओं द्वारा, इस दिशा में अब तक पेश किए गए सारे सुझाव, इन त्रुटियों को दूर करने की जगह बल्कि और अधिक उलझाने वाले ही सिद्ध हुए हैं। उनके द्वारा अक्सर ही यह सुझाव दिया जाता है कि चुनावों पर बढ़ती जा रही धन शक्ति की जकड़ को रोकने के लिए ‘‘सारे उम्मीदवारों का समस्त खर्चा सरकारी खजाने में से दिया जाए।’’ यह सुझाव पूरी तरह हास्यस्पद है तथा इस पक्ष से हो रही अनैतिकता पर पर्दा डालने वाला है। चुनावों के समय शासक पार्टियों के उम्मीदवार अधिकतर खर्चा सिर्फ गुमराहकुन चुनाव प्रचार पर ही नहीं करते। वे ऐसे प्रचार के लिए अधिक से अधिक व अति महंगे साधन जुटाने के अतिरिक्त बहुत बड़ा खर्च तो लोगों को गुप्त रूप से तोहफे आदि देकर लोभ-लालच के जाल में फंसाने तथा वोट खरीदने के लिए करते हैं। इसलिए प्रचार साधनों आदि पर सरकार द्वारा किए गए एकसार खर्च से उनके ऐसे अनुचित खर्चों को कैसे रोका जा सकता है? इन कुकर्मों के लिए तो उनके पास बल्कि और अधिक राशियां उपलब्ध हो जाएंगी।
बार-बार होते चुनावों के प्रबंधों आदि पर सरकार द्वारा किए जाते खर्च को घटाने के लिए पिछले दिनों, भारतीय जनता पार्टी की मोदी सरकार व उसके समर्थकों द्वारा यह सुझाव पेश किया गया है कि समस्त विधान सभाओं व लोक सभा के चुनावों को एक ही समय पर इक_े ही करवाया जाना चाहिए। देश के फैडरल ढांचे को कमजोर करने तथा केंद्र को और अधिक शक्तिशाली बनाने की ओर निर्देशित इस जम्हूरियत विरोधी सुझाव को जनपक्षीय  सिद्ध करने के लिए यह दलील भी दी गई है कि इस से चुनाव संहिता के अधीन चुनाव आयोग द्वारा बार-बार विकास कार्यों को रोकने की प्रक्रिया भी बंद हो जाएगी। इस गलत सुझाव की देश के राष्ट्रपति के भाषण द्वारा पुष्टि भी करवा दी गई है। जबकि वास्तव में यह सुझाव जम्हूरियत विरोधी ही नहीं बल्कि अव्यवहारिक भी है। जम्हूरियत तो चुने गए प्रतिनिधियों को वापिस बुलाने का अधिकार भी देती है। परंतु ऐसी अवस्था में तो किसी पार्टी की सरकार के विरुद्ध अविश्वास मत भी पेश नहीं हो सकेगा। प्रांत में भी एक बार चुनी गई अच्छी बुरी सरकार पूरे पांच वर्ष राज करेगी। इस सुझाव की ऐसी विसंगतियों के कारण ही कई राजनीतिक चिंतकों ने इस का तथ्यों तथा ठोस दलीलों के आधार पर विरोध करते कुछेक लेख अखबारों में लिखे हैं।
 
अनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली की आवश्यकता 
हमारा यह परिपक्व मत है कि वर्तमान चुनाव प्रणाली की बहुत सी कमियों पर अनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली द्वारा काबू पाया जा सकता है। परंतु इस दिशा में शासक वर्गों की पार्टियों के नेता कभी भी कोई बात नहीं करते। इस प्रणाली को अपनाने से  व्यक्तियों की जगह राजनीतिक पार्टियों का महत्त्व अधिक बन जाता है। वैसे भी शासन व्यवस्था को बेहतर व जनपक्षीय बनाने से संबंधित समस्त सरोकार किसी भी शासक पार्टी की नीतियों पर निर्भर करते हैं, उसके किसी व्यक्ति विशेष के निजी गुणों-अवगुणों पर नहीं। अनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली में वोट पार्टियों को पड़ते हैं। उनकी सामाजिक-आर्थिक नीतियों के अनुसार, ना कि किसी जाति या धर्म के आधार पर। तथा, हर पार्टी द्वारा प्राप्त किए गए वोटों के अनुपात में उसके प्रतिनिधि लोक सभा या संबंधित विधानसभा में जाएंगे। इस तरह निश्चित ही सरकार बनाने वाली पार्टी या गठजोड़़ के पास लोगों का आवश्यक बहुमत होगा। यहां तक ही नहीं, यदि संबंधित पार्टी का कोई प्रतिनिधि लोगों की इच्छाओं-उम्मीदों के अनुकूल व्यवहार नहीं करता तो, लोगों के प्रति जवाबदेही के मामले में अकुशल सिद्ध होता है, तो वह पार्टी उसको वापिस बुला कर उसकी जगह किसी और को अधिकृत कर सकती है। ऐसी ठोस प्रणाली विकसित करके निश्चय ही मौजूदा चुनाव प्रणाली की जम्हूरियत को चोट पहुंचाने वाली बिमारियों से काफी हद तक मुक्ति प्राप्त की जा सकती है।

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