Tuesday 5 July 2016

देश अथवा आवाम की बेहतरी के लिये जनवादी सोच होना जरूरी

(आम जनता को विषमुक्त भोजन कपड़ा, आवास, शिक्षा, स्वास्थ्य सुविधाएं, शुद्ध जल उपलब्धता के लिये  लोकसभा सासंद श्री शांता कुमार जी के 19/03/2016 के पंजाब-केसरी समाचार-पत्र में प्रकाशित लेख ‘‘देश के लिये राष्ट्रवादी सोच होना जरूरी’’ के प्रत्युतर में कुछ शब्द।)
 
- सुदर्शन कन्दरोड़ी 
साम्यवादी चिन्तन पर बहस न तो पांच राज्यों के चुनावों से, न ही भारतीय जनता के ‘अच्छे दिनों के सपने दिखा कर’ सत्तासीन होने, न ही दक्षिणपंथीयों द्धारा जेएनयु में संशोधित सीडीज बना कर रचे षडयंत्रों के चलते सुर्खियों में आये तथाकथित देशद्रोह के आरोपी कन्हैया कुमार की आड़ में तेज हुई, बल्कि, समानता मूलक समाज की समाप्ति के बाद, धूर्त राजाओं व चालाक भूपतियों द्वारा सब प्रकार के प्राकृतिक संसाधनों पर अधिपत्य स्थापित करने के काल से अलग-अलग रूपों में सदियों से जारी है। इसी अन्यायपूर्ण व्यवस्था को देख कर किसी भक्त कवि ने शिकायत करते हुये कहा है : ‘‘हे भगवान! तूने यह कैसी दुनिया बनाई है, यहां एक आदमी के पास इतना नमक है, जितना एक आदमी के पास आटा, बहुत सारों के पास नमक जितना आटा भी नहीं।’’ यहां पर कवि प्राकृतिक संसाधनों पर कुछेक परिवारों के कब्जे को इंगित कर जनव्यथा कह रहा है। इसलिये यह बहस तब तक जारी रहेगी जब तक एक मानव के हाथों अनेकों आदमियों का शोषण करने वाली व्यवस्था जारी रहेगी। जिसमें चालाक आदमी जनता को बेवकूफ बना कर धर्म, जाति, रंग, लिंग तथा इलाके की भावना को इस्तेमाल कर अपना उल्लू सीधा रख धन-धान्य पर कब्जा कर बड़े-बड़े होटलों, महलों व तथाकथित जनहित में अस्पतालों का निर्माण करके सर्व हित को ठेंगा दिखाकर निज हित में प्रयोग करता रहेगा। जब इन महल, होटल, अस्पतालों, विश्वविद्यालयों, कालेजों, उद्योगों, खेती का इस्तेमाल ‘‘सर्वजन हिताय सर्वजन सुखाय’’ के वैदिक उद्घोष को सार्थक करेगा, तब यह बहस स्वत: रूप में समाप्त हो जायेगी। 
1917 से पहले, जार शाही रूस के आस-पास के इलाके कई देशों (राष्ट्रों) में बंटे थे। अलग-अलग अच्छे बुरे कारणों के चलते वो सारे राष्ट्र, एक राष्ट्र सोवियत रूस (.स्.स्.क्र.-यूनियन आफ सोवियत सोशलिस्ट रिपब्लिक) में शामिल हुये। कालान्तर 25 साल के अरसे में पहले विश्वयुद्ध में बर्बाद हुआ रूस इस योग्य हो गया कि उसने एडोल्फ हिटलर शासित जर्मन के हमले को रोकने में सफलता पाई, परिणामस्वरूप हिटलर आत्महत्या करने को मजबूर हुआ। बेशक आज के भारत में भी हिटलर के पैरोकार हैं। उसी तथाकथित राष्ट्रवादी जर्मन के हिटलर की सेना ने उस से पहले ताकतवर इंग्लैंड, फ्रांस-पोंलैड सहित कई राष्ट्रों, तकरीबन पूरे योरप को तबाह-बर्बाद कर दिया था। तब बहु-राष्ट्रों को संविधानिक मान्यता देने वाले सोवियत रूस द्वारा युद्ध में दिखाई राष्ट्रभक्ति पूर्ण वीरता से फासीवादी जर्मन द्वारा तबाह हुये योरप के राष्ट्र फिर सांस लेने लगे तथा उन का राष्ट्रवाद पुनर्जीवित हो गया। इसी प्रकार वियतनाम दो राष्ट्रों में बंट कर फिर से एक रूप में हम सब के सामने है। उसी बहुराष्ट्रीय सोवियत रूस ने 1971 में भारत-पाक युद्ध में साम्राज्यवादी अमेरिका के जल-युद्धपोत सातवें बेड़े को हिन्दमहासागर में न आने की चेतावनी देकर न केवल भारतीय सीमाओं में अमेरिका साम्राज्यवाद को घुसने से सफलता पूर्वक रोका, बल्कि बंगला देश की आजादी सुनिश्चित करने में भी अपना योगदान दिया। उसी सोवियत रूस का नाम लेने मात्र से ही हमारे राष्ट्रभक्तों की भक्ति खंडित हो जाती है।
1947 से पहले भारत, बंगला देश तथा पकिस्तान एक राष्ट्र थे लेकिन तथाकथित धार्मिक जुनूनियों, इन्हीं राष्ट्रवादियों के तथाकथित धर्म व राष्ट्र प्रेम के चलते आज तीन राष्ट्र बने खड़े हैं। जिस प्रकार का व्यवहार इन तीनों उपराष्ट्रों में राष्ट्रभक्त कर रहे हैं, उससे निकलने वाले सम्भावित नतीजों के बारे में सोच कर तन-मन सिहर जाता है। पिछले चार-पांच दशकों से धर्मान्धता, इलाकावाद, जातिवाद आधारित विदेशी ताकतों की शह पर चले अंादोलनों को एकबारगी भुला भी दिया जाये तो भी हाल ही में निरन्तर घट रही घटनायें जैसे, दादरी में क्या खा रहे हो, जे.एन.यु. में देशद्रोह बनाम देशभक्ति की बहस को चला कर तथा हरियाणा व राजस्थान में एक-एक जाति को आरक्षण हेतु भडक़ा कर, जिस प्रकार की आराजकता फैलाई गई उससे उपजी असुरक्षा व मानवता विरोधी भावनाओं को, साम्राज्यवाद अपनी मन्डी के विस्तार के हित में अलगाव की भावनाओं में परिवर्तित कर देगा। पहले भी खालिस्तान, द्राविड़ राज तथा सात बहनों के आजाद देश-राष्ट्र (उत्तर पूर्वी राज्य) की स्थापना के संकल्प का दंश हमने झेला है। हमने 25000 से ज्यादा प्राणों की आहुति अकेले पंजाब में दी है, जिसमें कन्हैया कुमार की समानता मूलक शोषण मुक्त समाज की स्थापना की विचारधारा वाले बड़ी गिनती में शहीद हुये थे, इन शहादत को पाने वाले  बहनों-युवाओं व बजुर्गों सब ने तथाकथित खालिस्तानी राष्ट्रवादियों की ए.के.-47 तथा मार्टरों से निकली गोलियों का सामना अपनी छातियों से किया था।
आज दुनिया के समस्त राष्ट्रों से ताकतवर अमेरिका अपनी टैक्स कुलैकशन का बड़ा हिस्सा दूसरे राष्ट्रों को तबाह करने वाले हथियारों पर खर्च करता है तथा कमाता भी ज्यादातर, मानवता को नष्ट कर देने वाले हथियारों को बेच कर ही है। हम राष्ट्रभक्त भारतीय भी अपने बजट का बड़ा हिस्सा तकरीबन 45 फीसदी रूस, फ्रांस, इग्लैंड, अमेरिका आदि से युद्ध सामग्री की खरीद पर दशकों से भेंट कर रहे हैं। कमोबेश यही हाल पाकिस्तान का है। राष्ट्रभक्त सरकारों की नीतियों के चलते करोड़ों-करोड़, उच्च शिक्षा प्राप्त युवक-युवतियां बेरोजगार रह कर नशे में गर्क होकर असमय मृत्यु का ग्रास बन रहे हैं अथवा अपराध में शामिल हो रहे हैं। राष्ट्रभक्त खेती नीति की वजह से गत दो दशकों में  भारत में 3 लाख से ज्यादा कृषक आत्म हत्या कर अकाल मौत को प्राप्त हो चुके हैं।
क्या सारे 200 से ज्यादा राष्ट्रों के राष्ट्रभक्त अपने-अपने देशों में इस युद्ध उन्माद को रोक कर अपने राष्ट्रों की गरीब जनता को रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा, स्वास्थ्य सुविधाएं, साफ  हवा, पानी देने का सफल प्रयास कभी करेगें?    
केवल भारत का ही नहीं, पूरी दुनिया का इतिहास इस बात का साक्षी रहा है कि सब लोगों की आजादी, समानता व खुशहाली की चाहत रखने वाले-सब धर्मों को बराबर एक समान मानने वाले जन हितैषी राष्ट्रभक्त हुये हैं, आप उन्हें साम्यवादी कहें या जनवादी! दूसरी ओर  अपने अपने धर्म, जाति, रंग, वर्ण, क्षेत्र को श्रेष्ठ तथा अन्य को हेय मानने वालों ने दूसरों तथा अंतत: स्वयं को तबाह किया है। पुरातन काल में गौर वर्ण के महान महाराजा द्वारा तब के कलिंगा, आज के उड़ीसा के लोगों के कत्लेआम की कहानी सब पढ़ते सुनते हैं, तब भी उसी कातिल को महान कह कर तथाकथित गौर वर्णिय गौरव का अनुभव करते हैं। अफरीका के अश्वेत लोगों को किस प्रकार गोरों ने लूटा आज भी विस्तृत खोज का विषय है अमेरिका के अश्वेत नागरिकों को आज भी अमेरिका पर काबिज योरपियन गोरे ब्लैकी कह कर प्रताडि़त करते हैं। जबकि अमेरिका की धरती के मूल मालिक अश्वेत ही हैं। इस तरह यह स्थापित निर्विवाद सत्य है कि सब का भला, बराबरी चाहने वाला साम्यवादी ही हो सकता है साम्य का अर्थ समान है। इसीलिये ‘सर्वे सुखन्तु’ की भावना हमारा आदर्श है।   
‘‘देश के लिये राष्ट्रवादी सोच का होना जरूरी’’ लेख लिखने वाले विद्वान लेखक लिखते हैं कि 1924 में कानपुर षडयंत्र केस में कुछ साम्यवादी भी पकड़े गए थे। यह अर्ध सत्य है,  दरअसल हकीकत यह है कि 1924 के कानपुर षडय़ंत्र केस में जो  पकड़े गये उन में ज्यादातर साम्यवादी ही थे क्यों कि वे अंग्रेजों से अपने देश भारत को आजाद करवा कर अम्बानी अडानी जैसे इजारेदार घरानों टाटा, बिरला, डालमिया तथा गौर परिवार के हवाले न करके किसानों मजदूरों की बहुसंख्या का राज्य स्थापित करना चाहते थे। चुनाव में जुमलेबाजी से जनता को भरमा कर वोट की ठगी मारना अगर आप को राष्ट्रभक्ति लगता है तो आप को यह सोच मुबारक। वे बहु-राष्ट्रीय विदेशी देवकद कम्पनियों को भारत की सस्ती मजदूरी, सस्ती उपजाऊ जमीन तथा बहूमुल्य प्राकृतिक संसाधनों को लूटने की इजाजत देने के खिलाफ थे, वे साम्यवादी अपने स्वदेशी उद्योग, स्वदेशी कृषि तथा स्वदेशी भाषाओं में शिक्षा प्रणाली लागू करना चाहते थे, जब कि आजादी के बाद वाले आज के कथित देशभक्त इस साम्यवादी विचार के खिलाफ  काम कर रहे हैं। 1980 में अपना नया अवतार लेते समय तथाकथित राष्ट्रभक्तों नेे गान्धीवादी समाजवाद स्थापित करने का वचन देश की जनता को दिया था किन्तु आज यह राष्ट्रभक्त सब से ज्यादा समाजवाद शब्द पर ही क्रोधित होते हैं।
साम्यवादी सिर्फ 1924 के कानपुर साजिश केस में ही अग्रेजों ने आरोपी नहीं बनाये, बल्कि उन्होंने, भारतीय जनता की आजादी-समानता तथा सब धर्मों को अपनी-अपनी धार्मिक मर्यादाओं के अनुसार जीने की चाहत को मूर्त रूप देने की खातिर चले अन्दोलनों में भारी योगदान दिया है। सरदार अजीत सिंह जी की पगडी संभाल लहर, गदर पार्टी, बबर अकाली लहर, शहीद भगत सिंह, बुट्केश्वरदत्त, चंद्रशेखर आजाद, भगवती चरण, जतिन दास व अशफाकुल्ला खां, पंडित किशोरी लाल, शिव वर्मा, अजय घोष, सुखदेव, राजगुरू की हिन्दोस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी में   शामिल रहे ज्यादातर कार्यकर्ता, बाद में, साम्यवादी अंादोलन के पुरोधा रहे तथा समाजवाद, मानवतावाद, अन्तरराष्ट्रीयवाद तथा अपने-अपने धर्मों को मानने की आजादी के लिये संघर्षरत रहे। वहीं कथित राष्ट्रभक्त वीर सावरकर जी किस प्रकार गदर पार्टी वाले, देशभक्तों को, जो अन्डेमान-निकोबार काले-पानी की जेल में बन्द थे, को माफी मांग कर रिहाई लेने के लिये उत्साहित करते थे। इस का वर्णन प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी, गदर पार्टी के प्रधान बाबा सोहन सिह भकना जी ने अपनी संक्षिप्त जीवन गाथा में किया है। इसी पुस्तक में पुणे की यरवदा जेल में, गदरी सिक्ख कैदियों की पगड़ी तथा कछहरा (कच्छा) उतारने के खिलाफ  चली एक महीना लम्बी भूख-हड़ताल में पंडित परमानन्द झांसी तथा श्री हृदय राम मन्डी का शामिल होना उन गदरियों का सब धर्मों को समान मानने का ज्वलन्त उदाहरण है। सरकारपरस्तों ने इन दोनों हिन्दू स्वन्त्रतता सेनानियों को समझाने का भरसक प्रयास किया कि पगडी व कछहरा सिक्खों का मामला है। लेकिन यह धरती के सपूत अपने उसूलों पर अडिग रहे। बाबा सोहन सिंह भकना साम्यवादी पार्टी के सदस्य थे। इसी प्रकार बाबा सन्तोख सिंह, बाबा ज्वाला सिंह, बाबा रतन सिंह समेत सैंकड़ों गदर पार्टी के बलिदानी योद्धे बाद में साम्यवादी पार्टी के कार्यकर्ता बने। भगत सिंह के साथी पंडित किशोरी लाल, शिव वर्मा, अजय घोष सहित कई साम्यवादी पार्टी में आखरी सांसों तक काम करते रहे। भारत आजाद होने के बाद भी इन्हें जेल में डाला गया। यह करती हैं कथित राष्ट्रभक्तों की सरकारें अपने स्वन्त्रंता सेनानियों के साथ।  एमरजैंसी के दौर में महज जेलों में रहे अपने हितैषियों को सम्मानों से सुशोभित करने का आज प्रयास किया जा रहा है। पदमश्री तथा भारत रत्न जैसे सरकारी सम्मानों को लेने के लिये जुगतें लगाई जा रही हैं, जबकि पंडित किशोरी लाल जी को पहली बार पैंशन की किश्त तब मिली जब वो योद्धा आखिरी सांस ले चुका था। इन सब वास्तविक देश भक्तों की सुस्मृतियों को जालन्धर में स्वत्रंत्ता सेनानियों के वारिसों ने देश भगत यादगार भवन में बिना किसी जाति, धर्म, रंग, लिंग, इलाके के भेद के सँजो कर रखने का सार्थक प्रयास किया है। हर साल आम जन के हित में समारोह आयोजित किया जाता है। इसके अतिरिक्त सब प्रकार के मेहनतकश लोग इस भवन में अपनी समस्याओं पर विचार हेतु एकत्र होते रहते हैं। क्या नागपुर अथवा झंडेवालान में ऐसा कुछ होने का है कोई साक्ष्य, न है, न होगा।
क्या तथाकथित राष्ट्रवादी सोच के पैरोकार सारे इतिहास पर निष्पक्ष शोध करवाने का साहस रखते हैं?
राष्ट्रवादी सोच के विद्वानों के अनुसार हिटलर की बढ़ती ताकत ने इग्लैंड तथा रूस को आपस में समझौता करने के लिये विवश कर दिया तो साम्राज्यवादी विश्व युद्ध एक ही रात में जन-युद्ध बन गया। बेशक बन गया। क्या तथाकथित राष्ट्रवादी सोच के विद्वान आज भी फासीवादी हिटलर की जीत होने की कामना नहीं कर रहे हैं।
सोवियत रूस के तत्कालीन नेता जोसफ  स्टालिन की पार्टी ने इसे बहुत पहले साम्राज्यवादी युद्ध कह कर इस में न पडऩे का ऐलान किया था। साम्राज्यवादी ताकतें यह चाहती थीं कि अभी किशोर अवस्था का सोवियत रूस इस साम्राज्यवादी युद्ध में अपने को बरबाद होने देता। स्टालिन ने उस समय हिटलर की तुलना पागल कुत्ते से की थी जो उस समय पूरे आवेग में था तथा अपने देशवासियों को इस कुत्ते को रोकने के लिये एक-एक इंच पर लडऩे मरने की प्रेरणा दी थी व वह खुद भी मोर्चे पर था। उसका लडक़ा, जो मोर्चे से वापिस आ गया था स्टालिन ने उसे जिंदगी भर मुंह नहीं लगाया। क्या आज के राष्ट्रवाद के पुरोधा पुत्रमोह से निर्लिप्त हैं? सत्य यह है कि सातवीं पीढ़ी तक की चिन्ता से ग्रस्त भ्रद्रजन भ्रष्ट आचरण से जनता का शोषण करके अपनी तिजौरियां भरने में लगे हैं।
 सोवियत रूस निश्चिय ही भारत का मुसीबतों में अजमाया हुआ दोस्त था, एक सच्चे दोस्त की तरह भारत समेत तीसरी दुनिया के तमाम प्रगतिशील राष्ट्रों को दी गई सहायता का कोई मोल आज के स्वयंभु राष्ट्रभक्त कहाँ लगा सकते हैं। यह महानुभव भूल जाते हैं कि 1971 के भारत-पाक युद्ध में आज के इनके सबसे प्यारे दोस्त बाराक ओबामा के देश अमेरिका ने भारत को अपने सातवें युद्धपोत से भयभीत करने की नापाक कोशिश की थी, जबकि सोवियत रूस अपने आठवें युद्धपोत के साथ हिन्द महासागर में अमेरिका की धमकियों का मुंह तोड़ जबाब देने के लिये आ हाजिर हुआ था।
कृत्घनता की कोई हद नहीं होती शायद !    
सोवियत रूस ने हमारे देश की लोहे की बुनियादी आवश्यकता की पूर्ति के लिये लोहे का कारखाना, भिलाई स्टील प्लांट सार्वजनिक क्षेत्र में दिया, जिसे भारत के नवरत्नों में से एक कहा गया। आज इन्हीं नवरत्नों को निजी व भ्रष्ट उद्योगपतियों को बेचने की साजिशें विनिवेश के नाम पर जारी हैं। नेताजी सुभाष चन्द्र बोस को कांग्रेस का अध्यक्ष बनाने में उस समय कांग्रेस में काम कर रहे समाजवादियों व साम्यवादियों का समर्थन हासिल था। कांग्रेस छोडऩे के बाद नेता जी ने फार्बर्ड ब्लाक की स्थापना की। नेता जी और साम्यवादियों का आपसी सहयोग इस बात से प्रगट होता है कि नेता जी को भारत से निकाल कर अफगानिस्तान के रास्ते रूस तक जाने के लिये उन्होंने साम्यवादियों पर भरोसा किया। नेता जी की महिला ब्रिगेड की लक्ष्मी सहगल साम्यवादी पार्टी की कर्मठ कार्यकर्ता थीं। नेता जी के साथ-साथ रहने वाले नम्बियार को नेता जी स्वयं माक्र्सवादी पुकारते थे। नेता जी के साथ रहे (आई.ऐन.ऐ) के कृष्ण कुमार पल्टा (चंडीगढ़) जो हिमाचल प्रदेश के ही रहने वाले थे भी साम्यवादी विचारक थे। कैप्टन लक्षमी सहगल के पति के बारे में तो पूरा देश नारे लगाता था ‘‘लाल किले से आई आवाज, सहगल, ढिल्लों, शहनवाज।’’ वही कै. लक्षमी सहगल जब राष्ट्रपति पद की उम्मीदवार थी तो इन्हीं तमाम राष्ट्रभक्तों ने उन के खिलाफ  मतदान किया। क्योंकि इन राष्ट्रभक्तों का राष्ट्रप्रेम का रंग अलग है।                                            
साम्यवादियों द्वारा देश की आजादी तथा देश की गरीब तथा दलित शोषित जनता की मुक्ति के हित में निभाये किरदार को आप भले आदमी बार-बार मिथ्या-भाष्य से कमतर नही कर पायेंगे। साम्यवादी मेजर जयपाल तथा उनके साथियों द्वारा अंग्रेज को भगाने तथा भारतीय शोषक लम्पट जगीरदारों से भूमिहीन किसानों की मुक्ति खातिर चलाये गये तेलंगाना अन्दोलन के बारे में राष्ट्रवादी क्या राय रखते हैं। अरूणा आसिफ अली क्या राष्ट्रवादी नहीं थीं? साम्यवादियों द्वारा नेता जी को दगा देने बारे में आप का बखान नया नहीं, क्योंकि आपके गुरूजनो का यह विश्वास था कि एक झूठ को सौ बार बोलने से वह सच बन जाता है। यह स्वत: असत्य के बारे में आप भद्रजनों का संकल्प हो सकता है। लेकिन सत्य-सत्य ही रहता है सत्य को प्रमाण की आवश्यकता नहीं होती। आप के असत्य का पर्दाचाक करने के लिये उसी समय की तीन  टिप्णियों को उदघृत करना काफी है।  
1939 में वाम की ललकार थी-त्रिपुरी को युद्ध का नगाड़ा जरूर पीटना चाहिये। सुभाष को वोट-संघर्ष को वोट। तमाम सोशलिस्टो, कांग्रेस-सोशलिस्ट पार्टी के अन्दर आओ! कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी जिंदाबाद।
इसीलिये सुभाष जी की अध्यक्ष पद पर जीत तथा महात्मा जी के उम्मीदवार सीता रमैया जी की हार के बाद गांधी जी को सुनना आवश्यक है, ‘‘मौलाना साहब ने जब खड़ा होने से इन्कार कर दिया तो डा. पटटाभि को उम्मीदवारी से अपना नाम वापस लेने को न कहकर मैं (गांधी) उन्हें उकसाने का साधन बन गया, इसलिये यह उनसे अधिक मेरी हार है। मैं निश्चित उसुलों व नीति का प्रतिनिधित्व करता हंू, इनकी अनुपस्थिति में मेरा कोई अस्तित्व नहीं। इसलिये मेरे सामने यह स्पष्ट है कि प्रतिनिधि लोग उन उसुलों व नीतियों की तसदीक नहीं करते जिनका मैं प्रतिनिधि हूं।’’ गांधी जी ने सुभाष समर्थक प्रतिनिधियों को एक तरह से धमकाते हुये कहा कि सुभाष को वोट देकर आपने मेरे विरूद्ध वोट किया है। गांधी जी ने आगे सुभाष जी को आशीर्वाद देते हुये कहा ‘‘अगर तुमने पूर्ण बहुमत द्वारा निर्धारित संसदीय कार्यक्रम में परिवर्तन किया तो मंत्रिमंडल इस्तीफा भी दे सकता है।’’
अब सुभाष जी की एकता की अपील पढ़े :
‘‘तर्क के वास्ते यह मान लेने से कि चुनाव परिणाम वाम की विजय का प्रतीक है, हम वामपंथ के कार्यक्रम पर गौर करना बंद कर देगें, वामपंथी लोग निकट भविष्य में कांग्रेस की एकता और संघ योजना का अथक विरोध चाहते हैं। इसके अतिरिक्त वे जनवादी उसुलों के पक्ष में हैं। वामपंथी लोग कांग्रेस में फूट की जबाबदेही स्वीकार नहीं करेंगें। (जोर हमारा) अगर फूट पड़ी तो यह उनके कारण नहीं उनके बगैर पड़ेगी’’, (टाइम्स आफ  इंडिया 4.02.1939) यह कुछेक इतिहास की बातें जो पहले भी सामने थीं फिर से उजागर करने का एक लघु प्रयास करने का प्रयत्न किया है।
‘‘देश के लिये राष्ट्रवादी सोच का होना जरूरी’’ के माननीय लेखक जे.एन.यू. को साम्यवाद की गिरती ताकत का प्रतीक बताने का प्रयास करते हैं। श्रीमान! सिर्फ जे.एन.यू. ही नहीं हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय शिमला भी गिरती साख का ही प्रतीक है। हैदराबाद, मद्रास, जादवपुर भी गिरती साख के ही निशान हैं। और उत्तर प्रदेश के एक गांव मे एक अल्पसंख्यक के घर में देशभक्तों की भीड़ द्वारा जबरदस्ती घुस कर उस निस्सहाय को ईंट डंडों से पीट-पीट कर मार देना बढ़ती ताकत का शंखनाद। हरियाणा में आम जन के घरों दुकानों को जला कर कमजोरों को मारना पीटना राष्ट्रभक्ति की मजबूत होती भावना को स्पष्ट कर रहा है। अभी हाल ही में श्रीमान जी के देशभक्त सहयोगियों द्वारा माननीय सर्वोच्च अदालत के आदेशों को धता बता कर नहर को पाटने का जो कार्य किया गया, उसे आप राष्ट्रभक्ति के कौन से स्थान में रखेंगे? तब भी वहां पर सत्ता का लुत्फ  उठाने में किचिंत  हया का अनुभव नहीं होता है। क्या  महामानव जी निश्चिय ही गिरती साख वाले विश्वविद्यालयों से मानवतावादी सोच के प्रहरी आगे आयेंगें, तथा आम जन को आजादी व समानता प्राप्त करने के लिये प्रेरित करेंगे? जिसके लिये यह विश्वविद्यालय पहले से प्रमाणित हैं, क्योंकि वहां के विद्यार्थी, शोधार्थी सोचते हैं। क्योंकि आप भी शायद सोचते हैं तथा आप राष्ट्रवादी सोच के सांसद होने के साथ आपकी एक राजनीतिक हस्ती है, के कारण क्या यह अपेक्षा रखें कि आप अपने प्रांत में शहीद भगत सिंह, जो आप के अनुसार राष्ट्रवादी थे, हमारे लिये भगत सिंह मानवतावादी, अन्तरराष्ट्रीयवादी, समाजवादी जो साम्यवादी होने की प्रक्रिया में थे, के नाम पर एक  विश्वविद्यालय बनवा दें, जिसमें शहीद भगत सिंह तथा उन की पार्टी की विचारधारा पर सही में खोज-शोध कार्य हो सके, भले ही आज हर कोई आप समेत अपने स्वार्थ के लिये भगत सिंह जी का प्रयोग कर रहा है। हिन्दोस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन पार्टी के कार्यकत्र्ताओं ने असहनीय कष्टों को सहा तथा फांसियों, उम्र कैद समेत लम्बी जेल-यातनाएं सहीं ताकि समतामूलक समाज स्थापित किया जा सके।        
श्रीमान,  जहां तक आर्थिक भ्रष्टाचार की बात है, राष्ट्रवादी पार्टी का चुना हुआ आम विधायक जो चुनाव से पहले साधारण जीवन जीता है, पांच साल में ही अपनी गरीबी के सारे धोने धो लेता है।  राष्ट्रवादी सांसदों की घोषित-अघोषित सम्पतियों में कई-कई गुणा वृद्धि के अज्ञात स्त्रोतों का पता लगाना आमजन के लिये सच में ही दुष्कर कार्य है। आप सब स्वयंभु घोषित राष्ट्रवादी मंत्रियों मुख्यमंत्रियों के कार्यकाल के दौरान अर्जित संपत्ति की निष्पक्ष जांच करवायें तो आम जन का चौंक कर भौचक्का रह जाना तय है। मुख्यमंत्री बनने से पहले कंधे पर खादी का थैला लटका कर घूमने वाला कैसे करोड़ों की चल-अचल सम्पति बना लेता है? क्या आप बताएंगे? वहीं दूसरी और वैचारिक मतभेदों के होते हुए विरोधी भी वाम नेताओं के त्याग को नम्न करते हंै।        
बजुर्गवार! यह नियम आम प्रचलित है कि सोये हुये को जगाया जा सकता है लेकिन सोने का नाटक करने वाले को जगाना असम्भव है। लेकिन हर नियम का अपवाद होता है। इसलिये हमने यह लिखने का प्रयास किया है। शायद अपवाद वाली बात सच हो। वैसे भी वानप्रस्थ के समय आदमी दुनियावी मोह-माया से निर्लिप्त होने का दिखावा करने का प्रयत्न कहीं अधिक करता है।

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