Thursday 24 October 2013

भोजन सुरक्षा कानून व गरीबी रेखा का गोरख धंधा

रघबीर सिंह

केंद्रीय सरकार अनेक घोटालों, जन विरोधी कार्यों व गरीब लोगों  से हर कदम पर धोखाधड़ी करने के कारण देशवासियों का भरोसा व्यापक स्तर पर गंवा चुकी है। इसलिए उसके द्वारा पारित किए गए भोजन सुरक्षा बिल को भी संदेह की नजर से देखा जा रहा है। इस बिल के पारित होने के साथ देश की 67 फीसदी आबादी के प्रति व्यक्ति को 5 किलो अनाज देने की कानूनी व्यवस्था कर दी गई है। मोटे रूप से देखने पर इसे सरकार का एक जनपक्षीय कदम समझा जा रहा है पर सरकार द्वारा इसे अपने कार्यकाल के अंतिम साल में पहले अध्यादेश द्वारा लागू करना तथा बाद में संसद का विशेष अधिवेशन बुला कर अन्य राजनीतिक पार्टियों से पूरी तरह सहमति बनाए बिना जल्दबाजी में पास करवाना  इस बात का स्पष्ट संकेत करता है कि यह एक ईमानदार प्रयत्न नहीं, बल्कि यह 2014 के संसदीय चुनाव जीतने का एक हथकंडा है। इस कानून का घेरा इतना विशाल है कि इसे लागू करने से पहले इसके लाभपात्रियों की पहचान करना जरूरी है। परंतु यह कार्य राज्य सरकारों द्वारा किया जाना है। इसे लागू करने से राज्य सरकारों पर भी आर्थिक बोझ पड़ेगा जिसके लिए उनके पास वित्तीय साधन नहीं हैं। वे केंद्र सरकार से फंडों की मांग कर रहे हैं। इसके अतिरिक्त यह अच्छा जन-पक्षीय प्रयत्न भ्रष्टाचार की भेंंट न चढ़ जाए, इसके लिए भी ठोस व्यवस्था करनी जरूरी है। इस उद्देश्य के लिए वामपंथी पार्टियों द्वारा की जा रही मांग के अनुसार सार्वजनिक वितरण प्रणाली लागू की जाए। उपरोक्त समस्याओं को हल किए बिना यह कदम न तो मनभावन निशाने पूरे कर सकेगा तथा न ही सरकार अपने पर चुनाव जीतने के लिए इसे हथियार के रूप में इस्तेमाल करने के दोष से अपने आप को बरी कर सकेगी। वैसे तो हर गरीब पक्षीय देशवासी विशेषकर वामपंथी पार्टियां इस महत्त्वपूर्ण जनपक्षीय कदम को गंभीर विचार-विमर्श के बाद पारित करने तथा ठीक तरह लागू किए जाने के लिए पूरी तरह प्रयत्नशील थी। 
गरीबी रेखा निर्धारित करने का गोरखधंधा 
योजना आयोग ने गरीबी रेखा से ऊपर उठने वाले लोगों के आंकड़े छापकर सब को हैरान कर दिया है। परंतु इन आंकड़ों ने एक ओर सरकार की बदनीयती स्पष्ट कर दी है तथा दूसरी ओर योजना आयोग के अधिकारियों, विशेष रूप से इसके उपाध्यक्ष मोनटेक सिंह आहलूवालिया के मानसिक दिवालियापन तथा गरीब लोगों के प्रति उसमें भरी नफरत का पर्दाफाश कर दिया है। देश की पूंजीपति जागीरदार व्यवस्था चला रहे लोगों में भारी संख्या उन लोगों की हो गई है जो गरीब लोगों से अति घृणा करते हैं। वे उनको देश के पूर्ण नागरिक मानने की जगह धरती व यहां के आर्थिक ढांचे पर बोझ समझते हैं तथा मन से चाहते हैं वे काल के गाल में समा जाएं। मजबूरीवश उनको दी गई हर आर्थिक सहायता, सुविधा को फिजूलखर्ची व गैर-उत्पादक खर्चा मानते हैं। वे इन सुविधाओं को धोखाधड़ी द्वारा कांटते छांटते रहते हैं। मौजूदा समय में इनके नेता पहले मनमोहन-मोनटेक-चिदंबरम की तिकड़ी के रूप में जाने जाते हैं। अब इनमें रिजर्व बैंक के गर्वनर श्री रघुरामन भी आ मिले हैं। यह सारे शिकागो स्कूल की नवउदारवादी विचारधारा के अलंबरदार हैं जिन्हें साम्राज्यवादी देशों ने अपने शिक्षा संस्थानों में नव-उदारवादी नीतियों को विकासशील देशों में लागू करने के लिए तैयार किया हुआ है। यह विश्व बैंक या अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष में कार्यरत थे। विकासशील देश इनको अपने देशों में बहुत ही महत्त्वपूर्ण पदों पर तैनात करने के लिए साम्राज्यवादी देशों द्वारा मजबूर किए जाते हैं। इस तरह अब देश के नेतृत्व के लिए नव-उदारवादी नीतियों के अलंबरदारों की तिकड़ी की जगह चारों की चंडाल-चौकड़ी आसीन हो गई है। 
शिकागो स्कूल विचारधारा के ऐसे राजनीतिक व आर्थिक विशेषज्ञों द्वारा अपनी नव-उदारवादी नीतियों की झूठी व धोखाधड़ीपूर्ण सफलता दरशाने तथा गरीब लोगों को मिलती कुछेक रियायतों को छीनने के लिए आंकड़ों की जादूगरी की जाती है। वे अपने जैसे अन्य जनविरोधी आर्थिक विशेषज्ञों की कमेटियां बनाकर मेहनतकश लोगों से धोखाधड़ी करते हैं। इस संदर्भ में योजना आयोग ने अपनी रिपोर्ट में दर्शाया है कि 2004-05 से 2011-12 के वर्षों के दौरान देश के 13 करोड़ 70 लाख लोग सरकार की नीतियों के कारण गरीबी रेखा से ऊपर उठ गए हैं। उनके अनुसार 2009-10 तक गरीबी रेखा वाले लोगों की गिनती 7.4 प्रतिशत घटी तथा गरीब लोगों की संख्या 37.2 प्रतिशत से घटकर 29.8 प्रतिशत हो गई थी। आंकड़ों के इन जादूगरों के अनुसार अगले दो सालों 2010-11 तथा 2011-12 में गरीबी रेखा वाले लोगों की संख्या 8 प्रतिशत और घट गई है तथा यह अब 21.9 प्रतिशत रह गई है। पर देश के जन-पक्षीय आर्थिक विशेषज्ञों तथा वामपंथी इनके इस झूठ को नंगा करने के लिए पूरी तरह दृढ़ तथा प्रतिबद्ध हैं। इन सालों में रोजगार बढऩे की जगह बहुत घटा है। 2008 तक विकास दर बढ़ी है परंतु यह बढ़ौत्तरी रोजगार रहित थी। 2008 से 2010 तक विकास दर में बढ़ौत्तरी तो होती रही (पहले के मुकाबले घटी)। परंतु इस समय में रोजगार बढऩे की जगह बहुत घटा है। इससे बेरोजगारी बढ़ी है। दूसरी ओर आसमान छूती बढ़ती महंगाई विशेष रूप से खाद्य वस्तुएं तथा दवाईयों आदि की कीमतों में हुई बढ़ौत्तरी ने गरीब लोगों की खरीद शक्ति को जरूरत से अधिक कमजोर कर दिया है। यहां ही बस नहीं इस समय के दौरान गरीब लोगों को मिलती सबसिडियों में भी बड़े स्तर पर कटौती की गई है। इस सारे वातावरण में अमीर बहुत अमीर हो गया परंतु गरीबों की कमर टूट गई। इससे गरीबों की संख्या घटने की जगह बढ़ी है। अनेकों नये लोग गरीबी रेखा से नीचे खिसका दिए गए हैं। 
तिकड़मबाज विधि 
गरीबों की तबाही करने वाली नीतियों को सही सिद्ध करने तथा भविष्य में गरीब लोगों को दी जाने वाली थोड़ी बहुत आर्थिक रियायतों के लाभपात्रियों की संख्या घटाने के लिए गरीबी रेखा के स्तर का तथा तंगियों भरा जीवन बिताने वाले लोगों की संख्या घटाकर बताना हमारे सत्ताधारियों तथा उनके चाटुकार लालची आर्थिक विशेषज्ञों की मजबूरी है। परंतु वित्तीय पूंजी के मजबूत शिकंजे में फंसी विकासशील देशों की अर्थव्यवस्था में ऐसा करना बहुत मुश्किल होता है। इन देशों में राष्ट्रीय राज्य का संकल्प दिन प्रति दिन कमजोर होता जा रहा है। इसलिए इन देशों की सरकारें यदि कभी चाहें भी तो वे अपनी मर्जी से सार्वजनिक निवेश में बढ़ौत्तरी करके नए रोजगार पैदा करने वाले कार्य नहीं कर सकतीं।  उनके हाथ वित्तीय जिम्मेवारी व बजट प्रबंधन (Fiscal Responsibility and Budget Management) जैसे कानूनों द्वारा बांध लिए जाते हैं। इस संदर्भ में साम्राज्यवादी विश्वीकरण का पक्ष लेने वाले राजनीतिक नेताओं तथा आर्थिक विशेषज्ञों द्वारा आंकड़ों द्वारा की जाती ठगी पर मुलम्मा बहुत गहरा नहीं चढ़ाया जा सकता तथा वह जल्द ही उतर जाता है। 
इस हकीकत को पूरी तरह जानने के लिए हमें भारत में गरीबी रेखा निर्धारित करने के लिए भिन्न भिन्न समयों पर बनाई गई कमेटियों की सिफारिशों पर नजर मारनी होगी। सबसे पहले कमेटी 1978 में डाक्टर वाई.के. अलघ के नेतृत्व में बनाई गई। इस कमेटी ने देहाती क्षेत्र में 2400 कैलोरी प्रति व्यक्ति तथा शहरी क्षेत्र में 2100 कैलोरी वाली खुराक तथा अन्य जरूरी वस्तुओं पर आने वाले खर्च को आधार माने जाने की सिफारिश की। इसे मुख्य रखते हुए 1979 में केंद्रीय योजना आयोग ने देहाती क्षेत्र में 49 रुपए प्रति व्यक्ति तथा शहरी क्षेत्र में 56 रुपए प्रति व्यक्ति खर्च को गरीबी रेखा की सीमा माना। एन.एस.एस.ओ. (N.S.S.O.) के अनुसार 1993-94 में ग्रामीण क्षेत्र की 74 प्रतिशत आबादी 2400 कैलोरी नहीं जुटा पाती थी। इसलिए 1993 में एक अन्य कमेटी श्री लाकड़ावाला के नेतृत्व में बनाई गई। इस कमेटी में भी 2400 तथा 2100 कैलोरी का आधार कायम रखा। इस समय के दौरान नवउदारवादी नीतियों ने अपना गरीब विरोधी रंग दिखाना प्रारंभ कर दिया था। इसलिए 2004-05 तक ग्रामीण क्षेत्रों में 2400 कैलोरी प्राप्त न करने वाले लोगों की संख्या बढक़र 87 प्रतिशत हो गई थी। 
तेंदुलकर कमेटी 
इसी परिपेक्ष में मनमोहन टोले को और अधिक जनविरोधी आंकड़ों के जादूगर की जरूरत थी। इस कार्य के लिए डाक्टर सुरेश तेंदुलकर के नेतृत्व में 2005 में एक कमेटी का गठन किया गया। इस कमेटी ने सबसे घृणित कार्य कैलोरी आधार को समाप्त करके किया। दूसरा उसने डाक्टर लाकड़ावाला कमेटी द्वारा कैलोरी आधारित खर्च निश्चित करने के लिए राज्य आधारित सिफारिशों को रद्द कर दिया। डाक्टर तेंदुलकर का कहना था कि बदली हुई स्थितियों में  1800 कैलोरी से भी कार्य चल सकता है तथा उसने ग्रामीण व शहरी क्षेत्रों के अंतर को नजरअंदाज करते हुए समुचित विधि स्थापित किए जाने की सिफारिश की। इसको आधार मान कर योजना आयोग ने शहरी क्षेत्र में 32 रुपए तथा ग्रामीण क्षेत्र में 26 रुपए प्रति व्यक्ति खर्च को गरीबी रेखा मानने की घोषणा की। इसके विरुद्ध पूरे देश में बहुत रोष पैदा हुआ इसके फलस्वरूप योजना आयोग ने सुप्रीम कोर्ट में अपना हल्फनामा पेश करके अपना ब्यान वापिस ले लिया। 
परंतु देश में चल रहे वर्ग संघर्ष में सत्ताधारी वर्ग अपने जनविरोधी पैंतड़े से पीछे नहीं हट सकते। इसलिए तेंदुलकर कमेटी के आधार को कायम रखते हुए एक अन्य कमेटी सी.रंगराजन बना दी। इस कमेटी ने भी इसी दिशा में सिफारिशें कीं।  इन सब ने मिलजुलकर तेंदुलकर कमेटी की सिफारिशों के आधार पर ग्रामीण क्षेत्र में 27.2 रुपए प्रति व्यक्ति तथा शहरी क्षेत्र में 33 रुपए प्रति व्यक्ति खर्च को आधार मानकर गरीबी रेखा निर्धारित की। इन कमेटियों द्वारा निर्धारित किए गए आधारों पर भी गरीबी रेखा से ऊपर उठने वालों से लोगों की संख्या घटने के झूठे दावे किए जा रहे हैं। सत्ताधारी यह कहकर खुश हो रहे हैं कि उनके कार्यकाल 2004-05 से 2011-12 तक गरीबी रेखा से निचले लोगों की संख्या 37.2 से घट कर 21.9 पर आ गई है। परंतु यह आंकड़े गरीब लोगों के प्रति क्रूर मजाक हैं। सत्ताधारी वर्गों के नेताओं द्वारा गरीब लोगों से धोखा व उन्हें बेईज्जत व जलील करने की कहानी यहां ही खत्म नहीं होती। एक कांग्रेसी नेता राज बब्बर ने कहा कि मुंबई में 12 रुपए में पेट भर खाना मिल जाता है। एक अन्य कांग्रेसी नेता ने कहा कि खाना तो 5 रुपए में भी मिल जाता है। केंद्रीय मंत्री डाक्टर फारूख अब्दुल्ला और आगे बढ़े तथा उन्होंने कहा कि पेट भर खाना तो एक रुपए में भी मिल जाता है। कांग्रेस के मौजूदा दूसरे सबसे बड़े नेता श्री राहुल गांधी ने गरीबी के सार्थक अस्तित्व से ही इंकार कर दिया। उन्होंने कहा कि गरीबी तो सिर्फ एक मानसिक अवस्था है। इसकी कोई बुनियादी वास्तविकता नहीं है। इन लोगों की गरीबों का मजाक उड़ाने वाली तथा अपमान करने वाली बातों को देखते हुए फ्रांस में हुई 1789 की जनवादी क्रांति से पहले के फ्रांस की बदनाम व क्रूर महारानी के भूखे लोगों को कहे शब्द याद आ जाते हैं। भूख से सताए हुए लोग जब उसको भुखमरी का हल ढूंढने का निवेदन करने गए तो उसका उत्तर था कोई बात नहीं यदि रोटी नहीं मिलती तो बिस्कुट खाया करो। परंतु महान फ्रांसीसी आवाम ने अपने इस अपमान का बदला जल्द ही ले लिया। 1789 की क्रांति के समय फ्रांस के लोगों ने राजा तथा रानी का सिर काट कर चौराहे पर टांग कर जश्न मनाए। भारतीय सत्ताधारियों को इस बारे में सोचना चाहिए। हर जालिम के जुल्म की एक हद होती है तथा हर जालिम का अंत होना एक हकीकत होती है। 
भारत के गरीब लोगों से किए जा रहे क्रूर मजाक की पीड़ा इसलिए भी अधिक तीखी हो जाती है कि यहां गरीबी रेखा निर्धारित करने के लिए विश्व के भिन्न-भिन्न देशों द्वारा अपनाए जा रहे मापदंड़ों में से किसी को भी आधार नहीं बनाया जा रहा। 
विश्व बैंक द्वारा कहा गया है कि एक डालर तक प्रति दिन खर्च करने वाला व्यक्ति गरीबी रेखा के घेरे में आता है। बाद में इसे सवा डालर कर दिया गया था। पिछले 8-10 सालों में डालर की औसत कीमत 50 रुपए के बराबर रही है। इस तरह गरीबी रेखा तक के आदमी का प्रतिदिन खर्च 63 रुपए के लगभग होना चाहिए। परंतु भारत में शहरी लोगों के लिए 33 रुपए तथा ग्रामीणों के लिए 27 रुपए निर्धारित करना बहुत बड़ी ज्यादती है। 
यूरोप में प्रति व्यक्ति औसतन राष्ट्रीय आमदनी से 60 प्रतिशत कमाने वाला, परिवार गरीब माना जाता है। अमरीका में एक परिवार के खुराक के औसत खर्च से तीन गुणा कमाने वाला आदमी गरीब माना जाता है। दक्षिण अफ्रीका में खाद्य वस्तुओं पर आधारित गरीबी निर्धारित करने के साथ साथ बाकी वस्तुओं की जरूरतें भी जोड़ी जाती हैं। 
हम केंद्र सरकार से पुरजोर मांग करते हैं कि वे गरीबी रेखा निर्धारित करने के लिए मानवीय मुल्यों, मानवीय मान-सम्मान को सामने रखकर कोई वैज्ञानिक मापदंड निर्धारित किया जाए। हमारी समझ के अनुसार शहरी क्षेत्र में 2400 कैलोरी तथा ग्रामीण क्षेत्र में 2150 कैलोरी का आधार कायम रखना भारतीय अवस्थाओं में अधिक लाभकारी व सार्थक होगा। परंतु गरीब लोगों के विरोध का पैंतड़ा लेने वाली सरकार को जोरदार संघर्षों द्वारा ही ठीक रास्ते पर लाया जा सकता है।

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