Thursday 24 October 2013

वर्तमान राजनीतिक प्रसंग में नीतिगत तीसरे राजनीतिक विकल्प के निर्माण के लिए सही पहुंच

मंगत राम पासला

साम्राज्यवादी लुटेरों तथा कार्पोरेट घरानों के चाटुकारों व धनवानों के इशारों पर चलने वाले इलैक्ट्रोनिक मीडिया (टी.वी.) द्वारा अगले साल होने वाले चुनावों को सामने रखकर जितना भी झूठा व गुमराहकुन प्रचार किया जा सकता है, किया जा रहा है। इसका मकसद देश की सत्ता पर साम्राज्यवाद निर्देशित नवउदारवादी आर्थिक नीतियों को पूरे जोर व बिना किसी झिझक से लागू करने वाली सरकार को देश की बागडोर पुन: संभालने का है। पहले ज्यादा जोर मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यू.पी.ए. की केंद्रीय सरकार के गुण गाने पर लगाया जाता था। अब जब केंद्रीय सरकार लोगों में अप्रिय हो रही है तब भाजपा के नेता नरेंद्र मोदी की कमान में साम्राज्यवाद व कार्पोरेट घरानों की सेवा हेतु कार्य करने वाले लुटेरे टोले का गुणगान किया जा रहा है। उद्देश्य, दो लुटेरे सत्ताधारियों की छत्रछाया में देश की सत्ता का कार्यभार चलाने का है, जिसका परिणाम है : मुट्ठी भर धनकुबेरों की पौ-बारह तथा बहुसंख्यक  करोड़ों देशवासियों के लिए घोर गरीबी, मंदहाली, तंगदस्ती भरपूर जीवन जीने की मजबूरी। रोज ही लोगों के कानों में मोदी, राहुल, मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री के रूप में कुर्सी संभालने के अनुमान दरशाए जा रहे हैं तथा सचेत रूप में स्वार्थी हितों द्वारा प्रेरित ‘मनघड़ंत सर्वेक्षण’ पेश किए जा रहे हैं, ताकि लोग अपने सारे दुख दर्द भूलकर सिर्फ एक व्यक्ति विशेष के गुणों-अवगुणों के बारे में ही सोचने पर मजबूर हो जाएं। बार-बार झूठ बोलने का कुछ न कुछ प्रभाव तो पड़ ही जाता है। 
वैसे यह भी आम ही देखा जाता है कि व्यापारिक हितों को बढ़ावा देने के लिए टी.वी. चैनलों पर हर समय किसी एक घटना या खबर को उत्तेजना पैदा करने वाला मसाला लगाकर बार बार पेश किया जाता है। भूख, बिमारी या कुपोषण से रोजाना मरते बच्चों या व्यक्तियों की चाहे कभी चर्चा तक भी नहीं की जाती परंतु जन हितों की रक्षा के लिए किए जाते सरकार विरोधी ‘बंद’ या ‘रोष प्रदर्शन’ के दौरान घटी मामूली सी भी घटना को इस तरह पेश किया जाता है जैसे लोगों की समस्त मुसीबतों की जड़ संघर्षशील लोगों द्वारा किए जाते सरकार विरोधी एक्शन ही हैं, जो आम जनता के लिए समस्याएं पैदा करते हैं। 
मनमोहन व मोदी मारका आर्थिक नीतियों का विश्लेषण करते समय स्पष्ट हो जाता है कि दोनों पक्ष देश की अर्थव्यवस्था में साम्राज्यवादी घुसपैठ के पक्के मुद्दई हैं। देश के बुनियादी क्षेत्रों जैसे कि ऊर्जा, यातायात, बैंक, बीमा, दूरसंचार यहां तक कि सुरक्षा जैसे नाजुक व संवेदनशील क्षेत्रों में मनमोहन सिंह द्वारा सीधे साम्राज्यवादी पूंजीनिवेश के लिए सारे दरवाजे पूर्ण रूप से खोल दिए गए हैं। प्रचून व्यापार में सीधे विदेशी निवेश (स्नष्ठढ्ढ)द्वारा रोजगार व किसान हितों को प्रोत्साहित करने का कोरा झूठ बोलकर देश को गुमराह किया गया है। जबकि दुनिया के किसी भी भाग में सीधे साम्राज्यवादी पूंजी निवेश द्वारा किसानों व मजदूरों की आर्थिक तबाही के बिना और कुछ नहीं हुआ है। उपरोक्त विश्वीकरण, उदारीकरण व निजीकरण की जन-विरोधी नीतियों के बारे में कांग्रेस व भाजपा में रत्ती भर भी अंतर नहीं है। विदेशी लूट-खसूट, कुदरती संसाधनों की कौडिय़ों के भाव बिक्री, महंगाई, बेरोजगारी का जो तमाशा कांग्रेस के नेतृत्व वाली केंद्रीय सरकार की जन-विरोधी नीतियों के कारण समूचे देश में चल रहा है, वह नजारा मोदी के प्रांत गुजरात में भी देखने को मिलता है। कहीं विदेशी कंपनियों से मिलकर टाटा, बिरला, बजाज व जिंदल जैसे पूंजीपति लूट मचा रहे हैं तथा कहीं मोदी के आर्शीवाद से अदानी व अंबानी बंधुओं (रिलायंस ग्रुप) ने तबाही मचाई हुई है। रोजगार हर जगह सिकुड़ रहा है तथा महंगाई व भ्रष्टाचार द्वारा कार्पोरेट घरानों व सत्ताधारियों द्वारा लोगों की गाढ़े पसीने से कमाई गई धन दौलत से हाथ रंगे जा रहे हैं। खेतीबाड़ी के धंधे से रोजी-रोटी कमा रहे खेत मजदूर व किसान समूचे देश में ही भयंकर आर्थिक संकट का शिकार हैं जहां कर्ज के भार तले दबे होने के कारण लाखों लोग आत्महत्यायें कर रहे हैं। औरतों, दलितों, पिछड़े वर्गों तथा आदिवासियों पर दमन का कुल्हाड़ा हर जगह बराबर ही चलाया जा रहा है। अल्पसंख्यकों को दबाने व झूठे बहानों के अधीन विशेष रूप से सरकारी दरिंदगी का शिकार बनाने में कांग्रेस व भाजपा शासित प्रांत एक दूसरे से अगुआ भूमिका निभा रहे हैं। नरेंद्र मोदी तो गुजरात दंगों में हजारों मुस्लिमों का शिकार करने के कारण संसार भर में बदनाम हो चुका है। साम्राज्यवाद निर्देशित घातक आर्थिक नीतियों को लागू करने के लिए जम्हूरियत (जितनी कि पूंजीवादी व्यवस्था में संभव हो सकती है) का गला घुटना लाजमी है। इसलिए सााम्राज्यवादी लुटेरों व कार्पोरेट घरानों की सेवा में देश की समुची प्रशासनिक मशीनरी दिन रात कुकर्मी कारनामों में जुटी है। आर्थिक विकास के नाम पर पुलिस, अर्ध-सैनिक बलों व फौज की सहायता से किसानों व आदिवासियों को भूमि से बेदखल किया जा रहा है। पहले ही मौजूद काले कानूनों की सूची में निरंतर बढ़ौत्तरी की जा रही है, जिसके कारण जनवादी आजादियां सिर्फ कानून की किताब में लिखे शब्दों से ज्यादा और कुछ अर्थ नहीं रखतीं। पूंजीवादी व्यवस्था अपने बर्बर उत्पीडऩ के दौर में दाखिल हो गई है, जहां जनहितों की पूरी तरह अनदेखी की जा रही है। 
भ्रष्टाचार करने में मनमोहन सिंह व मोदी/अडवानी की टीम एक दूसरे से आगे होने की दौड़ में हैं। कोयला घोटाला, कामनवैल्थ खेल घोटाला, वाड्रा भूमि घोटाला आदि अनेकों ऐसे नाम है जिसमें कांग्रेस व इसके सहयोगियों ने देश की अरबों-खरबों रुपए की संपत्ति लूटी है। गुजरात में मोदी की मिलीभुगत द्वारा तेल कंपनियों के शहंशाह अंबानी बंधुओं की अनैतिक तरीकों द्वारा इक_ी की गई संपत्ति, रेड्डी बंधुओं द्वारा कर्नाटक में खदानों की संपत्ति पर डाके तथा नितिन गडकरी जैसे भाजपा नेताओं द्वारा झूठी कंपनियां बनाकर कमाया गया धन संघ परिवार के वष्ठि सदस्य, भाजपा की ‘ईमानदार व देशभक्त’ होने की छोटी सी उदाहरणें मात्र ही हैं। इसलिए स्पष्ट है कि देश के समक्ष खड़ी मौजूदा चौतरफा समस्याओं का हल मनमोहन सिंह/राहुल गांधी या नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने का से या कांग्रेस/भाजपा के नेतृत्व में नियोजित की जा रही केंद्रीय सरकारों की कायमी में कदाचित नहीं हो सकता। परंतु समूचा कार्पोरेट जगत व इनके द्वारा चलाया जा रहा प्रिंट व इलैक्ट्रानिक मीडिया झूठे आंकड़े व दावे दिखाकर जनसाधारण को कांग्रेस या भाजपा के आसपास एकत्र करना चाहता है ताकि अगली सरकार में इनके हित पूर्ण रूप में सुरक्षित हों तथा जनसाधारण मौजूदा दयनीय हालत में ही रेंगता रहे। 
लोकसभा चुनावों के मद्देनजर आजकल कांग्रेस व भाजपा के नेतृत्व वाले गठजोड़ों के अतिरिक्त तीसरे मोर्चे की दंत कथा भी सुनी जा सकती है। वर्तमान परिस्थितियों में यह एक ठोस हकीकत है कि देश में पूंजीपति-जागीरदार वर्गों के हितों की रक्षा के लिए काम कर रही गैर-कांग्रेस व गैर-भाजपा अनेकों क्षेत्रीय राजनीतिक पार्टियां भी मौजूद हैं। तामिलनाडु, यू.पी., बिहार, उड़ीसा, पश्चिम बंगाल, जम्मू-कश्मीर आदि प्रांतों में सत्ता इन क्षेत्रीय पार्टियों के हाथों में है। आज भी इन दलों का अच्छा जनआधार है, जिसके बल पर यह लोक सभा चुनावों में काफी सीटें जीत सकते हैं। शायद यह संख्या इतनी न हो जिससे कथित तीसरे मोर्चे की यह पार्टियां अपने बलबूते पर गैर-कांग्रेसी व गैर-भाजपा सरकार केंद्रीय सरकार बना सकें। इसलिए यह पार्टियां कांग्रेस या भाजपा के समर्थन से ही कोई सरकार स्थापित कर सकती हैं तथा या फिर कांग्रेस या भाजपा गठजोड़ खरीदोफरोख्त द्वारा इन दलों को अपने साथ मिलाकर गठजोड़ सरकार स्थापित कर ले। इस तथ्य से सिद्ध हो जाता है कि इन तीनों ही खेमों की राजनीतिक पार्टियों में आर्थिक व राजनीतिक नीतियों के बारे में न कोई अलग रहते समय तथा न ही एकजुट होते समय कोई अंतर है न ही कोई बुनियादी सैद्धांतिक अलगाव। कई बार यह धर्मनिरपेक्षता, संघवाद, अल्पसंख्यकों की रक्षा, स्थानीय हितों की अनदेखी आदि के मुद्दों के बारे में यदि केंद्र सरकार से कोई विवाद खड़ा करते दिखाई भी देते हैं तो मात्र वे अपनी राजनीतिक सुविधा के लिए या  लूटखसूट की खातिर राजसत्ता में भागीदार बनने के लिए। यदि हकीकी रूप में क्षेत्रीय पार्टियों द्वारा शासित प्रदेशों को देखें तो स्पष्ट हो जाता है कि जो नीतियां मनमोहन सिंह की केंद्रीय सरकार सारे देश में लागू कर रही है व भाजपा गुजरात, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ या अकाली दल से मिलकर पंजाब में लागू कर रही है, यह काम कथित तीसरे मोर्चे की पार्टियां भी अपने प्रांतों में कर रही हैं। इसलिए यदि कोई राजनीतिक पार्टी या व्यक्ति विशेष कांग्रेस या भाजपा के मुकाबले केंद्र में तीसरे मोर्चे की सरकार बनने में भारतीय आवाम का भला देखता है तो यह निरा धोखा व मृगतृष्णा ही होगा। इस तीसरे मोर्चे के भागीदारों के पास न कोई वैकल्पिक जनहितैषी नीतियां हैं तथा न ही वे अपने कार्यकालों के दौरान ऐसी नीतियां अपनाए जाने का दावा ही करते हैं। कांग्रेसियों व भाजपाईयों की तरह ही लालू प्रसाद यादव, मुलायम सिंह यादव, कुमारी जयललिता, कुमारी मायावती, नवीन पटनायक व उमर अब्दुल्ला साहिब, भ्रष्टाचार में पूरी तरह सराबोर हैं। संघर्षशील व आम जनता पर सरकारी दमन करने में भी यह पक्ष नहले पर दहला है। 
जब वामपंथी पार्टियां, विशेषकर सी.पी.आई.(एम) व सी.पी.आई., लोक सभा चुनावों के बाद तीसरे मोर्चे की सरकार की कायमी का राग अलापते हैं तो अगले पल ही सिर्फ व्यक्तियों के परिवर्तन की नहीं, बल्कि नीतियों के परिवर्तन का सिद्धांत पेश करते हैं तब लगता है कि इन पार्टियों के नेताओं ने सिर्फ क्रांतिकारी रास्ते से ही किनाराकशी नहीं की बल्कि लोगों को गुमराह करने के लिए पूंजीवादी व्यवस्था को कायम रखने के लिए वे धोखे व झूठ का सहारा भी लेने लग पड़े हैं। प्रकाश करात की पार्टी को तो तामिलनाडु की कुमारी जयललिता भी अब केंद्रीय सरकार की नीतियों के विरुद्ध संघर्ष करती दिखाई देती है। चुनावी सुविधा के अनुसार कभी इसके लिए डी.एम.के. हमख्याल पार्टी बन जाती है तथा कभी उसकी कट्टर विरोधी ए.आई.ए.डी.एम.के.। संसदीय अफसरवाद का शिखर है यह त्रुटिपूर्ण समझदारी। यदि अकेले वाम व जनवादी पार्टियां केंद्र में सरकार बनाने के योग्य हो जाएं तो फिर दावा वैकल्पिक आर्थिक नीतियां लागू करने का करें तो एक हद तक यह भरोसे योग्य माना जा सकता है। परंतु यदि केंद्रीय सरकार उपरोक्त तीन खेमों कांग्रेस, भाजपा व तीसरे मोर्चे की क्षेत्रीय पार्टियों के नेतृत्व या सहयोग से ही बननी है तो फिर ऐसी सरकार के हक में कार्य करना तथा वैकल्पिक नीतियों की जरूरत की रट भी लगाए रखना तर्कसंगत नहीं लगता। अभी तक इन वामपंथी दलों का एक भी नेता ऐसा नजर नहीं आता जो यह कहता हो कि आगामी लोकसभा चुनावों में मौजूदा राजनीतिक ताकतों के संतुलन को देखते हुए किसी जनपक्षीय सरकार बनने की तो कोई संभावना नहीं है बल्कि जन-सहिमती जुटाकर पूंजीवादी पार्टियों के विरोध में ज्यादा से ज्यादा बल्कि व नव-उदारवादी नीतियों के विरोध मेंं आवाज बुलंद करने वाले अधिक से अधिक सांसद चुनने का निशाना तय करना ही वर्तमान समय का सबसे योग्य, व्यवहारिक व सैद्धांतिक पैंतड़ा होगा। 
वास्तव में यहां स्मरणीय बात तो यह है कि मौजूदा साम्राज्यवाद निर्देशित नीतियों का विकल्प पेश करने का निशाना सिर्फ चुनावों के समय ही हासिल नहीं किया जा सकता। इसके लिए तो सरकारी नीतियों के विरोध में तथा वैकल्पिक नीतियों के हक में विशाल लामबंदी व जुझारू जनसंघर्षों की जरूरत होती है जिससे जनसमूहों को अपने तर्जुबों द्वारा जन-विरोधी सत्ताधारी वर्गों व लोकपक्षीय शक्तियों के हकीकी चरित्र का ज्ञान प्राप्त होता है। जनपक्षीय चुनाव परिणाम भी जनसंघर्षों के अनुपात में ही अनुमानित किए जा सकते हैं। इसलिए पारंपरिक वामपंथी दलों को आगामी लोकसभा चुनावों में मुलायम सिंह यादव व किसी अन्य ऐसे व्यक्ति के नेतृत्व में तीसरे मोर्चे की सरकार कायम करने के गैर-सैद्धांतिक, अवसरवादी व गैर-यर्थाथवादी हवाई नारे देने की जगह, वामपंथी व जम्हूरी शक्तियों के साथ मिलकर जनसंघर्ष तेज करने तथा लोकसभा चुनावों में नव-उदारवादी नीतियों के समर्थक हर रंग की राजनीतिक पार्टियों का जोरदार विरोध करने तथा जनपक्षीय नीतियों के हक में अधिक से अधिक जनसमर्थन जुटाकर लोकसभा में असल विरोधी वामपंथी पक्ष को मजबूत करने के लिए कार्य करना चाहिए। शोषक वर्गों के साथ सत्ता के गलियारों में बनाई गई भागीदारी का स्वाद चखने की आदत त्याग कर सत्ता के विरोध में खड़े होने की सैद्धांतिक आदत पुन: बहाल करने की जरूरत है इन वामपंथी नेताओं को। 
वैकल्पिक नीतियां क्या हैं, इसके बारे में भी आम लोगों को जानकारी देने की जरूरत है, क्योंकि स्वार्थी हित यह प्रचार कर रहे हैं कि मौजूदा आर्थिक नीतियों के मुकाबले में कोई और वैकल्पिक नीतियां हैं ही नहीं? यदि देश को गली-सड़ी पूंजीवादी व्यवस्था व मौजूदा आर्थिक संकट से बाहर निकालना है तो जरूरत है कि देश के हितों को अनदेखा करके सीधे साम्राज्यवादी पूंजी निवेश को बंद किया जाए तथा समानता के आधार पर अन्य देशों के साथ आपसी लेनदेन किया जाए। विदेश नीति को साम्राज्यवाद की पिछलग्गु न बनाया जाए बल्कि साम्राज्यवाद के विरोध में पिछड़े व गरीब देशों के साथ मिलकर साम्राज्यवाद लूट-खसूट के जोरदार विरोध का पैंतड़ा अपनाया जाना चाहिए। देश के अंदर कार्पोरेट घरानों व बड़े पूंजीपतियों के मुनाफों पर रोक लगाना समय की सबसे बड़ी जरूरत है। निजी बड़े उद्योगों व थोक व्यापार का राष्ट्रीयकरण किया जाए तथा सार्वजनिक क्षेत्र को मजबूत बनाया जाए व निजीकरण, उदारीकरण की प्रक्रिया बंद की जाए। महंगाई पर रोक लगाने के लिए प्रभावशाली सार्वजनिक वितरण प्रणाली एक कारगर उपाए है, जिसमें लोगों की भागीदारी यकीनी बनाई जाए। लोगों की खरीद शक्ति बढ़ाने के लिए हकीकी भूमि सुधार व बेरोजगारी दूर की जानी चाहिए। रोजगार के मौके पैदा करने के लिए छोटे व मध्यम उद्योगों का विकास किया जाए तथा खेती को लाभदायक धंधा बनाने के लिए आवश्यक कदम उठाए जाएं। शिक्षा व रोजगार प्राप्त करने को नागरिक व मौलिक अधिकारों में शामिल किया जाए। औरतों की सुरक्षा के लिए प्रभावशाली व फौरी कदम उठाए जाने की जरूरत है। प्राकृतिक संसाधनों के खजानों को लुटाने की प्रक्रिया बंद की जानी चाहिए। इसके अतिरिक्त भ्रष्टाचार व भाई-भतीजावाद को रोके जाना अति जरूरी है तथा भ्रष्टाचारियों को सख्त सजाएं देना लाजमी है। लोगों के जम्हूरी अधिकारों की रक्षा व सरकार के दमनात्मक कदमों का खात्मा भी वैकल्पिक नीतियों का महत्त्वपूर्ण भाग है। इन मुद्दों के बारे में जन चेतना व जरूरी ठोस जनसंघर्षों की जरूरत है। 
अन्य संघर्षशील, वामपंथी व जनवादी पक्षों के लिए भी यह जरूरी है कि वे सिर जोडक़र मिल बैठें तथा संयुक्त संघर्षों द्वारा जनता के हकीकी मुद्दों पर जन-लामबंदी करने के लिए भरसक प्रयत्न करें ताकि लोगों को कार्पोरेट घरानों के चाटुकारों व शोषक निजाम के हक में चल रहे मीडिया के गुमराहकुन प्रचार से खबरदार किया जा सके। सत्ताधारी पक्षों द्वारा झूठे आंकड़ों व तेज आर्थिक विकास के थोथे नारों से फैलाया जा रहा राजनीतिक कोहरा सिर्फ सैद्धांतिक व व्यवहारिक क्रांतिकारी पैंतड़े द्वारा ही दूर किया जा सकता है, जिसकी आज अति आवश्यकता है। 

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