Friday 11 October 2013

गदर आन्दोलन की गौरवशाली साम्राज्यवाद विरोधी और धर्मनिरपेक्ष विरासत को बुलन्द करें!

भारत की आजादी की लड़ाई में पहला बड़ा मील का पत्थर था 1857 का संग्राम अंग्रेजों ने उसे महज ‘सिपाही विद्रोह’ ‘म्युनिटी’ या ‘गदर’ कहा, लेकिन उस महासंग्राम में भारतीय राष्ट्र की प्रसव पीड़ा व्यक्त हुई। अंग्रेजों ने दुनिया के इतिहास की महान घटना की स्मृति तक मिटा डालने का अथक प्रयास किया। 1857 के दमन के बाद बाकी बची 19वीं सदी में अंग्रेजी आतंक के चलते उस महाविद्रोह का नाम भी लेना हराम था। लेकिन वह जन जन के दिलोदिमाग में एक तेजस्वी स्मृति की तरह, बंद आग की तरह सुगबुगाता रहा। 
1913 में ‘इन्डियन एसोसिएशन आफ पैसिफिक कोस्ट’ नाम से जिस पार्टी की नींव कनाडा और अमरीका में रह रहे हिन्दुस्तानियों ने डाली, वही आगे चलकर ‘हिन्दुस्तान गदर पार्टी’ कहलाई जिसके जन्म के आज सौ साल हो चुके हैं। बाबा सोहन सिंह भकना पार्टी के संस्थापक अध्यक्ष और लाला हरदयाल महासचिव बनाए गए। सैनफ्रांसिस्को, अमरीका में गदर पार्टी का केंद्रीय कार्यालय ‘युगांतर आश्रम’ के नाम से विख्यात था। यह दुनिया भर में फैले देशभक्त हिन्दुस्तानी नेताओं के बीच परस्पर आदान-प्रदान का अड्डा था। यहीं से पार्टी का समाचार पत्र ‘गदर’ का पहला संस्करण 1 नवम्बर, 1913 को उर्दू और पंजाबी में निकला। बाद में समाचारपत्र के बंगाली, हिन्दी और गुजराती संस्करण भी निकलने लगे। इस पार्टी ने भारत की आजादी की लड़ाई में 1857 की आग को, उसकी स्मृति को भारत और भारत के बाहर फिर से जीवित कर देने का शानदार कारनामा अंजाम दिया। 
अंग्रेजों ने जमीन पर मालगुजारी की जो प्रणाली लागू की, उसके चलते किसानों को लगान नगद चुकाना पड़ता था। जमीन का रकबा छोटा होता जाता था और जमीन जोतनेवालों के लिए नगद लगान देना बहुत भारी पड़ता था। दूसरी ओर गांव के कारीगर और बुनकर औपनिवेशिक नीतियों के चलते ब्रिटेन के औद्योगिक उत्पादन के आगे असहाय हो गए थे। किसान कर्ज में घिर कर अपनी जमीनें महाजनों के हाथ बेच देने को अभिशप्त थे। बेरोजगारी, अकाल और महामारी से त्रस्त किसान और कारीगर अंग्रेजी सेना में भर्ती होने को इन स्थितियों से निजात पाने के एक जरिए के रूप में देखते थे। सेना में भर्ती हुए ऐसे जवान जो पहले मलाया, हांगकांग या सिंगापुर पहुंचे, उनमें से बहुतों ने सेना की नौकरी पूरी होने के बाद चपरासी या चौकीदार के रूप में नौकरियां खोजीं और इस क्रम में कनाडा और अमरीका पहुंचे। बाद को खेतों, बागानों, रेलवे और फैक्ट्रियों में मजदूरी के लिए भारतीय मेहनतकशों का कनाडा और अमरीका पहुंचना जारी रहा। वे कम मजदूरी में काम करते थे। इससे स्थानीय कामगारों में उनके प्रति गुस्सा और नफरत कई बार नस्लीय हमलों में प्रकट होने लगा। 1905 में कनाडा में भारतीय लोगों की संख्या महज 45 थी वहीं 1908 में यह बढक़र 2633 हो गयी। इनमें से कुछ लोग अपनी मशक्क्त से संपन्न लोगों की श्रेणी में भी आ गए जिनके पास बड़ी-बड़ी जमीनों के टुकड़े भी थे। न केवल भारतीय कामगार, बल्कि प्रवासी भारतियों के संपन्न लोग भी नस्लीय घृणा और हमलों के शिकार थे। चूँकि कनाडा ब्रिटिश उपनिवेश था। अंत: हिन्दुस्तानियों में यह भावना थी कि काम की तलाश में कनाडा जाने पर कोई रोक-टोक हिन्दुस्तानियों के लिए नहीं होनी चाहिये। लेकिन कनाडा उस तरह का उपनिवेश न था जैसा कि भारत। वहां की सरकार और गोरी नस्ल के लोगों का बर्ताव हिन्दुस्तानियों के प्रति वैसा ही था जैसा कि अंग्रेजों का। धीरे धीरे भारतीय लोगों ने अपने बचाव में एकताबद्ध होना शुरू किया। उन्होंने यह समझना शुरू किया कि गोरे लोगों द्वारा उन पर हमले और उनके अपमान का खात्मा तब तक नहीं हो सकता जब तक कि अंग्रेजों की गुलामी से भारत आजाद नहीं होता। कनाडा और अमरीका में भारत की आजादी के लिए काम कर रहे कई समूह स्वत: स्फूर्त रूप से एक दूसरे के निकट आए और हथियारबंद तरीके से भारत की मुक्ति को हासिल करने के उद्देश्य से उन्होंने 1913 में इन्डियन एसोसिएशन आफ पैसिफिक कोस्ट नाम से एक केन्द्रीय संगठन की स्थापना की जो बाद में गदर पार्टी कहलाई। कई बार वंचित लोग जिस तरह खुद को दिए गए अपमानसूचक नामों को ही अपने स्वाभिमान की संज्ञा में तब्दील कर लेते हैं, उसी तरह ‘गदर’ नाम को 1857 के महासमर को नीचा दिखाने के लिए अंग्रेजों ने दिया था। उसे ही गदर पार्टी के संग्रामियों ने अपने स्वाभिमान का और अपनी क्रांतिकारी विरासत पर गर्व का हथियार बना लिया। इतिहास बताता है कि पराधीन कौमें अतीत में अपनी हार का बदला चुकाने को बार बार एकत्रित होती हैं, 1857 की हार को आधी सदी बाद जीत में तब्दील करने का ऐतिहासिक जज्बा गदर पार्टी के क्रांतिकारियों के दिलो दिमाग में हिलोरें ले रहा था। अगर 1857 की मूल प्रचालक शक्ति किसान और सैनिक थे। तो गदर पार्टी की रीढ़ थे प्रवासी हिन्दुस्तानी मजदूर और सैनिक जिनका खेती-किसानी से नाता टूटा नहीं था। सशस्त्र विद्रोह, मजदूर-किसान-सैनिकों और बुद्धिजीवियों के व्यापक मोर्चे की संकल्पना, हिन्दू-मुस्लिम-सिख एकता और गंगाजमुनी तहजीब की ताकत की असंदिग्ध पहचान- यह सब गदर पार्टी को 1857 के महासंग्राम से विरासत में मिला था। अगर 1857 के महांसंग्राम का नाभि-केंद्र हिंदी-उर्दू क्षेत्र था, तो गदर पार्टी की कार्रवाईयों का भारत के भीतर केंद्र बना पंजाब, पार्टी की शुरूआत ही अमरीका और कनाडा में जा बसे सिख किसान परिवारों के पूर्व-सैनिकों और कामगारों से हुई थी। 
जिन समूहों ने कनाडा और अमरीका में गदर पार्टी को बल प्रदान किया उनमें से एक का नाम था ‘खालसा दीवान सोसायटी’ जो कनाडा के वैंकुवर में गुरूद्वारे का प्रबंधन करने का काम देखती थी। लेकिन इस समूह ने कनाडा में भारतीय लोगों को बसाने, उनके परिवारों को वहां लाने, नस्लवाद से मुकाबला करने और भारत की मुक्ति के लिए गदर आन्दोलन को मजबूत करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। सैन फ्रांसिस्को के युगांतर आश्रम की तरह ही वैंकुवर का गुरुद्वारा भी अनेक देशों में सक्रिय भारत की मुक्ति के दीवानों का मिलनस्थल था। इसी गुरुद्वारे में उसके प्रबंधन में मुख्य भूमिका निभानेवाले भाई भाग सिंह और भाई बतन सिंह की कनाडा सरकार ने अपने दलाल बेला सिंह के हाथों हत्या करा दी। गदर पार्टी से सहानुभूति रखने वाले मेवा सिंह ने बेला सिंह के सरपरस्त हापकिंस की हत्या करके इसका बदला लिया जिसके लिए मेवा सिंह को जनवरी 1914 में फांसी दे दी गयी। इस घटना से कनाडा में जो जातीय और राजनीतिक उबाल आया, उसका लाभ उठाते हुए कनाडा सरकार ने भारत से कनाडा आने वाले लोगों को रोकने के लिए कई काले कानून पारित किये। ऐसे किसी भी हिन्दुस्तानी का कनाडा की भूमि में प्रवेश करने पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया जिसने भारत से सीधी यात्रा न की हो, जिसके पास भारत से कनाडा का सीधा टिकट न हो तथा जिसके पास कम से कम 200 डालर न हों, इस तरह के प्रतिबन्ध ने कनाडा में किसी भी भारतीय का प्रवेश लगभग नामुमकिन बना दिया क्योंकि कोई भी नौपरिवहन कंपनी भारत से सीधे कनाडा के लिए यात्री जहाज नहीं चलाती थी। ऐसे प्रतिबंधों का विरोध करते हुए गुरदित सिंह सरहाली ने ‘गुरूनानक शिपिंग कंपनी’ खोली और जापान की एक नौपरिवहन कंपनी से किराए पर ‘कामागाटा मारू’ नाम का जहाज  लिया। यह जहाज 4 अप्रैल 1914 को हांगकांग के तट से 374 यात्रियों को लेकर रवाना हुआ। भाई भगवान सिंह और मौलवी बरकतुल्ला योकोहामा बंदरगाह पर जहाज के यात्रियों से मिले और उन्हें अमरीका और कनाडा के राजनैतिक और प्रसासनिक हालात से अवगत कराया। हर बंदरगाह पर यात्रियों को ‘गदर’ समाचारपत्र तथा अन्य क्रांतिकारी साहित्य वितरित किया गया। जब जहाज 26 मई, 1914 को विक्टोरिया बंदरगाह पहुंचा तो उसे समुद्र में ही रोक दिया गया और किसी भी यात्री को उतरने नहीं दिया गया। कनाडा में इन राज्य-समर्थित नस्लवाद के शिकार इन यात्रियों के समर्थन में पहले ही एक कमेटी का गठन किया जा चुका था। कनाडा के गवर्नर जनरल भारत और ब्रिटिश सरकारों को तार भेजे गए कि इन यात्रियों को कनाडा की धरती पर उतरने दिया जाए। लेकिन औपनिवेशिक सरकारों ने एक भी न सुनी। प्रशासन ने पहले तो कामागाटामारू जहाज को एक दूसरे जहाज के साथ बांध कर उसे खींच कर बंदरगाह से दूर ले जाने की कोशिश की। यात्रियों ने ईंट-पत्थर, कोयले और लोहे के सरियों से पुलिस अमले पर हमला कर इस कोशिश को नाकाम कर दिया। इसके बाद कनाडा की सरकार ने एक जंगी जहाज कामागाटा मारू के नजदीक उतार कर उसकी तोपों का मुंह कामागाटा मारू की ओर कर दिया। यात्री कनाडा में अपना मुकदमा 17 जुलाई को पहले ही हार चुके थे। ऐक्शन कमेटी ने जापानी नौपरिवहन कंपनी के मालिकों को देने के लिए 60,000 डालर इक_े किए। जहाज को वापस लौटना पड़ा। लौटने के रास्ते में बाबा सोहन सिंह भकना नस्लवादी कनाडा सरकार के खिलाफ गुस्से को नया मोड़ देने के उद्देश्य से योकोहामा तट पर हथियारों के जखीरे और क्रांतिकारी साहित्य के साथ यात्रियों से मिले और उन्हें गदर पार्टी के उद्देश्य के बारे में बताया। लेकिन जहाज जब भारतीय तट के नजदीक पहुंचा, गुरदित सिंह ने शासन-प्रशासन की बदनीयती भांपते हुए बाबा भकना के दिए हथियार और साहित्य को समुद्र में फिंकवा दिया। 27-28 सितंबर को जहाज कलकत्ता के निकट डायमंड हार्बर पहुंचा। दो दिन तक जहाज की सघन तलाशी के बावजूद पुलिस और भारतीय प्रशासन को कुछ भी नहीं मिला जो बगावत के आरोप को पुष्ट कर सकता। 26 सितंबर को बजबज बंदरगाह पर 17 यात्रियों ने एक अलग नौका में चढक़र निकल जाने का फैसला लिया जबकि शेष सभी कलकत्ता ले जाए जाने पर अड़े रहे। पुलिस ने गोलियां चलाई और 19 यात्री मारे गए। 96 गिरफ्तार किए गए और उन्हें जेल भेज दिया गया। मियांवाली जेल में दो यात्रियों अमर सिंह और नौध सिंह की हत्या कर दी गई। दो सिंधी यात्रियों को आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई। गुरदित सिंह सहित कई यात्री फरार होने में सफल हुए बाद में नागरिक आन्दोलन के दबाव में एक जांच कमीशन बिठाया गया जिसने 1915 में फैसला सुनाते हुए 33 यात्रियों की सजा को बहाल रखा और बाकी की रिहाई के आदेश दिए। डा. मथुरा सिंह और बाबा गुरूमुख सिंह ललतों सहित कामागाटा मारू के अनेक यात्री आगे आनेवाले दिनों में गदर पार्टी के महत्त्वपूर्ण नेता और सक्रिय कार्यकर्ता बने। 
पार्टी ने 1914 में तीन बार बगावत के आरंभिक, किन्तु असफल प्रयास किए। गदर पार्टी जर्मनी और ब्रिटेन के बीच आसन्न युद्ध का फायदा उठाते हुए भारत में क्रांति की योजना को अंजाम देना चाहती थी। उनके आकलन में युद्ध 1920 के आस-पास शुरू होना था। लेकिन वह 1914 में ही शुरू हो गया। पार्टी की तैयारी पूरी नहीं थी, लेकिन पहला विश्व-युद्ध घोषित हो जाने के बाद इस अवसर को गंवाया भी नहीं जा सकता था। उत्तरी अमेरिका के हिन्दुस्तानियों के बीच गदर पार्टी एक हद तक अपनी पैठ और साख जमा चुकी थी। अब गदर के क्रांतिकारियों ने बाकी देशों में भी तेजी से अपने कदम बढ़ाए मुल्क की आजादी के लिए दीवानगी लिए हुए-संपत्ति से लेकर जान की कुर्बानी देने से पीछे न हटने का संकल्प लिए गदर के योद्धा न केवल उत्तरी अमेरिका, बल्कि फिलिपीन्स, हांगकांग, चीन, जापान, सिंगापुर और थाईलैंड तक से मातृभूमि की मुक्ति के लिए कूच कर गए। विश्वयुद्ध के पहले दो वर्षों में ही दुनिया भर से लगभग गदर योद्धा क्रांन्ति के लिए भारत पहुंच चुके थे। पार्टी का लाल, पीले और हरे रंग का झंडा हिन्दु, सिख और मुसलमानों की एकता का प्रतीक था। कनाडा और अमरीका से बड़े पैमाने पर गदर समर्थकों के आने की खुफिया सूचना सरकार को थी। इसलिए उत्तरी अमेरिका में बड़े जत्थों में आने वाले गदर समर्थक प्राय: पानी के जहाज से उतरते ही भारतीय तटों पर गिरफ्तार कर लिए गए। बावजूद इसके भारी संख्या में वे भारत में प्रवेश कर चुके थे। आम लोगों और सैनिकों के बीच क्रांन्ति के प्रचार के लिए अड्डे स्थापित कर लिए गए। करतार सिंह सराभा ने भारत भर में क्रांन्ति का सन्देश पहुंचाने का जिम्मा लिया हुआ था। ‘गदर का सन्देश’ और ‘युद्ध की घोषणा पत्र’ जैसे क्रांतिकारी पर्चें हजारों की तादाद में सेना के बैरकों और आम लोगों के बीच बांटे गए, जिस समय ब्रिटिश सैनिक दूसरे देशों में विश्वयुद्ध के मोर्चे पर थे। उन्हीं दिनों भारतीय सैनिकों की मार्फत बैरकों पर कब्जा करते हुए क्रांन्ति को आंजाम देने की योजना गदर पार्टी की थी। 
इस समय तक नौ आर्मी डिवीकानों में से गदर क्रांन्तिकारियों का संपर्क लाहौर, रावलपिन्डी, मेरठ, लखनऊ, पेशावर और बन्नू डिवीजनों से था। योजना के मुताबिक लाहौर डिवीजनल हैडक्वार्टर को बगावत की शुरूआत करनी थी। फिर राज्य की सरकार को गिराना आसान होता और फिरोजपुर छावनी जो उत्तरी कमांड का मुख्यालय भी था। वहां से हथियार प्राप्त करके ब्रिटिश सेना को परास्त करना था। बंगाल के क्रांन्तिकारियों ने लखनऊ डिवीजन और पूर्वी बिहार की छावनियों में पैठ बना ली थी। पार्टी ने हांगकांग, पेनांग, रंगून और बर्मा में तैनात भारतीय सैनिकों के बीच अच्छी साख बना ली थी। 21 फरवरी 1915 गदर की तारीख  तय की गई। लाहौर और अमृतसर के गदर क्रांन्तिकारियों को प्रेम सिंह और जगत सिंह के नेतृत्व में मियाँ मीर छावनी तथा करतार सिंह सराभा के नेतृत्व में फिरोजपुर छावनी को कब्जे में लेना था, लेकिन मुखबिरी के चलते पार्टी ने उसे 2 दिन पहले यानी 19 फरवरी को ही अंजाम देकर शत्रु को चकित कर देने का फैसला लिया। लेकिन दुर्भाग्य से इस योजना की भी मुखबिरी हो गयी और जब तयशुदा तारीख पर ग्रामीण जनता क्रांन्ति का सहयोग करने शहर में बड़े पैमाने पर दाखिल हुई तो उसे यह जान कर गहरा झटका लगा कि सेना से हथियार रखवा लिए गए थे और सराभा, जगत सिंह सहित तमाम नेता गिरफ्तार कर लिए गए थे। फिर भी गिरफ्तारी से बच निकले प्रेम सिंह आदि नेताओं ने हिम्मत नहीं खोई और पार्टी को फिर से संगठित करने की कोशिशों में जुट गए। अनेक गद्दारों और सरकार के दलालों को मौत के घाट उतार दिया गया। दूसरी ओर गिरफ्तार किए गए नेताओं को मौत की सजा, आजीवन कारावास और काला पानी की सजायें सुनाई गई। कनाडा, अमेरिका और दूसरी जगहों के बच रहे गदर क्रांन्तिकारियों ने सशस्त्र संघर्ष जारी रखने की शपथ ली। इसी बीच 1917 की रूसी क्रांन्ति हुई और तमाम गदर क्रांतिकारी क्रांन्ति का प्रशिक्षण लेने गुप्त रूप से रूस पहुंचे, पार्टी महासचिव भाई संतोख सिंह रूस से भारत लौटे और समसामयिक विश्व-क्रांतिकारी आन्दोलनों को पंजाबियों की क्रांतिकारी विरासत से जोडऩे के लक्ष्य से उन्होंने  ‘किरती’ नाम से एक लोकप्रिय पत्रिका निकाली। शहीद-ए-आकाम भगत सिंह इस पत्रिका में लिखा करते थे। 
प्रथम लाहौर षड्यंत्र केस में करतार सिंह सराभा, विष्णु गणेश पिंगले, जगत सिंह, सुरेैन सिंह बड़ा तथा सुरैन सिंह छोटा सहित सहित सात गदर क्रांतिकारियों को फांसी हुई, और 27 को काला पानी भेज दिया गया। इसी तरह षड्यंत्र के दूसरे, तीसरे और चौथे मुकदमे भी चले, दूसरे मुकदमें में पांच को फांसी और 46 को काला पानी, तीसरे में पांच को फांसी और 6 को काला पानी तथा चौथे और पांचवे में दो को फांसी की सजा हुई। इसके अतिरिक्त 145 गदर क्रांतिकारी फांसी लगने से या फिर जेल में भूख हड़ताल करते हुए या फिर यातनाओं का शिकार होकर शहीद हो गए। 306 को काला पानी भेजा गया तथा 77 को कमतर सजाएं मिली। गदर आन्दोलन की अंतर्राष्ट्रीय पहुंच तो व्यापक थी ही। उपनिवेशवाद के खिलाफ संघर्ष में धार्मिक विभाजनों के ऊपर भाईचारे के मामले में भी यह आन्दोलन बेमिसाल था। सिंगापुर में गदर आन्दोलन की प्रेरणा से जिन भारतीय टुकडिय़ों ने बगावत की। वे मुख्यत: मुस्लिम सैनिको की टुकडिय़ां थीं। 15 और 22 फरवरी, 1915 को इनकी बगावत को बुरी तरह कुचल दिया गया। 41 भारतीय मुस्लिम सैनिक गोलियों से उड़ा दिए गए। 3 को फांसी हुई और बाकियों को या तो उम्र कैद या दूसरी कड़ी सजाएं सुनाई गईं। 
गदर आन्दोलन ने न केवल 1857 की विरासत को फिर से जीवित किया। भारतीय क्रांन्ति के अंतर्राष्ट्रीय फलक को जबरदस्त विस्तार दिया। बल्कि भारत में क्रांन्ति के विचार और उसकी ताकतों को कम्युनिस्ट विचारधारा से जोडऩे वाली ऐतिहासिक कड़ी के बतौर भारत के भीतर विभिन्न क्रांतिकारी समूहों और कार्रवाइयों को एक साथ लाने और भविष्य के क्रांतिकारी उभारों के प्रेरणास्रोत के रूप में उसकी भूमिका भारतीय इतिहास का एक गौरवशाली अध्याय है। गदर आंदोलन ने बंगाल से तारक नाथ दास, रास बिहारी बोस और शचीन्द्रनाथ सान्याल, संयुक्त प्रांत से आजाद और उनके साथियों, महाराष्ट्र से विष्णु गणेश पिंगले और पांडुरंग खानखोजे सहित तमाम क्रांतिकारियों को आकर्षित करके बीसवीं सदी के दूसरे और तीसरे दशक में भी काफी हद तक साम्राज्यवादी शिकंजे से भारत की आजादी और भारतीय क्रान्ति के लक्ष्यों को एकमेक करने वाले केंद्र के रूप में अपनी प्रेरणादायी भूमिका को स्थापित किया। पंजाब तो गदर की प्रधान रंगस्थली था है, अकारण नहीं की महज 20 साल की उम्र में शहीद हुए अदभुत प्रतिभासंपन्न क्रांतिकारी करतार सिंह सराभा किशोर भगत सिंह के रोल माडल थे। 
गदर पार्टी जिसकी स्थापना के सौ साल होने पर हम आज यहीं इक_ा हैं वह भारतीय जनता की मुक्ति के उस वैकल्पिक रास्ते की अत्यंत महत्वपूर्ण कड़ी है जो 1857 से शुरू होकर गदर आंदोलन, भगत सिंह की विरासत 1964 के नौसैनिक विद्रोह से होता हुआ कम्युनिस्टों के क्रांतिकारी संघर्षों से गुजरते हुए क्रांतिकारी कम्युनिस्ट आन्दोलन में पर्यवसित हुआ। आज के भारत के सभी कम्युनिस्ट क्रांन्तिकारियों की यह साझी विरासत है, गदर पार्टी जिसका एक अत्यंत जरूरी पड़ाव है। 1885 में कांग्रेस की स्थापना के साथ कांग्रेस नेतृत्व में समझौतापरस्त उद्योगपति वर्ग और मध्यवर्गीय बौद्धिक तबकों के नेतृत्व में जो स्वाधीनता संघर्ष चला, वह इस पूरी विरासत के खिलाफ चला। उसने सत्ता हस्तांतरण के जरिए आजादी दो टुकड़ों में प्राप्त की और गोरे अंग्रेजों की जगह काले अंग्रेजों को भारत की तकदीर सौंप दी। संघ परिवार जिसका आजादी के आंदोलन से कोई वास्ता नहीं रहा वह आज भारत में फिरकापरस्ती और हिंदू राष्ट्रवाद के हथियारों से लैस होकर आजादी के आंदोलन की महान साम्राज्यवाद विरोधी, गंगा-जमुनी विरासत को मटियामेट करने पर आमादा है। आज भी भारतीय जनता की मुक्ति की चाहत और सपने साम्राज्यवाद और उसके देशी आधारों से खिलाफ लड़ाई में अभिव्यक्त हो रहे हैं। सारे ही देशभक्त कम्युनिस्ट क्रांतिकारियों का यही लक्ष्य है जो गदर आन्दोलन की महान विरासत के उत्तराधिकारी है। 
(आल इण्डिया लैफ्ट कोआर्डीनेशन द्वारा ग़दर लहर शताब्दी के संबंध में 11 अगस्त को नई दिल्ली में की गई कन्वैन्शन के समय जारी किया गया)

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