Wednesday, 5 July 2017

कम्युनिस्ट आंदोलन के अच्छे भविष्य के लिए कुछ ठोस सुझाव

भारत में कम्युनिस्ट आंदोलन का लंबा व गौरवशाली परंतु गंभीर गलतियों का इतिहास रहा है। देश के स्वतंत्रता संग्राम में गदर पार्टी के बलिदान तथा कम्युनिस्टों का योगदान इतिहास के सुनहरी पन्नों का भाग है। यद्यपि, दूसरे विश्व युद्ध के समय, हिटलर के फाशीवाद को परास्त करने के उद्देश्य से, इस युद्ध में फाशीवाद विरोधी कैंप में इंग्लैंड की भागीदारी के कारण देश में बर्तानवी साम्राज्यवाद विरोधी आजादी की लड़ाई को भारत की कम्युनिस्ट पार्टी ने कुछ समय के लिए शिथिल कर दिया था तथा लोगों को अंग्रेजों की सैना में भर्ती होकर युद्ध में हिटलरशाही के विरुद्ध लडऩे के लिए प्रेरित करने का स्टैंड अपनाया। इसको ‘जन युद्ध’ का नाम दिया गया। यह स्टैंड पूरी तरह दरुस्त नहीं था। विश्व युद्ध में हिटलर को परास्त करने के लिए युद्धरत संयुक्त सैनाओं को समर्थन देना तो जायज था, परंतु देश के भीतर साम्राज्यवाद के विरुद्ध स्वतंत्रता संग्राम को थोड़े समय के लिए मुअत्तल करना सरासर गलत था। स्वतंत्रता प्राप्ति के उपरांत ही कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा इसको ‘काली आजादी’ कह कर निंदित किया गया, जो हकीकतों व जनभावनाओं के अनुरूप नहीं था।
यह बहुत ही गौरव की बात है कि स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद के वर्षों में मजदूरों, खेत मजदूरों, किसानों, नौजवानों, स्त्रियों अर्थात समस्त वर्गों के लोगों की मांगों व उमंगों की प्राप्ति के लिए, भारतीय सत्ताधारी वर्गों के हर दमन-अत्याचार का मुकाबला करने के लिए कम्युनिस्ट अग्रणीय कतारों में रहे। फिरकापरस्ती, अंधविश्वास व सामाजिक उत्पीडऩ के विरुद्ध तथा देश की एकता व अखंडता कायम रखने के लिए कम्युनिस्ट पक्षों ने अपनी जानों की आहुति दी है। लोगों की सेवा हेतू सहन किये इन कष्टों का देश के जन समूहों ने काफी हद तक बनता प्रतिक्रम भी दिया। परंतु यह हकीकत है कि देश का समूचा वाम आंदोलन अभी भी देश की राजनीति में कोई महत्त्वपूर्ण व निर्णायक भूमिका निभाने से कोसों दूर है। कई क्षेत्रों में तो इसके जन आधार में कमी भी आई है। इस कमी के अन्य अनेकों कारणों के साथ-साथ पिछली सदी के नवें दशक में सोवियत यूनियन में समाजवादी व्यवस्था के ढह जाने को आधार बना कर पूंजीपति वर्ग द्वारा माक्र्सवाद-लेनिनवाद की वैज्ञानिक विचारधारा पर किए जाने वाले हमले तथा कम्युनिस्ट आंदोलन के भीतर उपजे दक्षिण व वाम भटकावों का भी बड़ा योगदान है।
देश के कम्युनिस्ट आंदोलन में पैदा हुए भटकाव अभी भी निरंतर जारी हैं तथा दुर्भाग्यवश अपनी जड़ें और अधिक गहरी कर रहे हैं। कम्युनिस्ट आंदोलन के भीतर उपजे दक्षिण व वाम भटकावों पर वाम आंदोलन के नेता जितनी जल्दी आत्मचिंतन करके काबू पा लेंगे, क्रांतिकारी आंदोलन की बढ़ौत्तरी के लिए उतना ही लाभदायक सिद्ध होगा। क्रांतिकारी आंदोलन का भविष्य ही इन भटकावों पर विजय प्राप्त करने से बंधा हुआ है। देश की वर्तमान बाहरी स्थितियां क्रांतिकारी आंदोलन की बढ़ौत्तरी के लिए बहुत ही उपयुक्त हैं। सत्ताधारी पक्षों की जनविरोधी नवउदारवादी नीतियों के प्रति आम लोगों का मोह भंग हो रहा है तथा वे नए संघर्ष लामबंद करने के लिए अंगड़ाईयां ले रहे हैं। इन लोगों का नेतृत्व करके इन्हें संगठित शक्ल देने के लिए एक हकीकी क्रांतिकारी पार्टी तथा वामपंथी दलों की एकता दरकार है।
स्वतंत्रता प्राप्ति के तुरंत बाद कम्युनिस्ट आंदोलन के भीतर नेहरू सरकार के प्रति स्टैंड को लेकर मतभेद पैदा हो गए थे। कामरेड डांगे के नेतृत्व वाला गुट नेहरू सरकार से सहयोग करने की वकालत कर रहा था, जबकि कामरेड पी.सुंदरैय्या, बी.टी.रणदिवे  आदि नेता इस सरकार को पूंजीपतियों-जागीरदारों की प्रतिनिधि सरकार बताकर मूल रूप में इसका जोरदार विरोध करने के मुद्दई थे। भिन्न-भिन्न मुद्दों पर यह मतभेद चलते रहे तथा सन् 1964 में कम्युनिस्ट आंदोलन दो भागों, सीपीआई तथा सीपीआई(एम) के बीच बंट गया। सीपीआई ने सोवियत यूनियन के समर्थन से आगे बढऩे वाले नेहरू सरकार के आर्थिक विकास माडल को ‘‘गैर-पूंजीवादी प्रगति का रास्ता’’ का नाम दिया, जो आगे चलकर परिणामात्मक रूप में कांग्रेस-कम्युनिस्ट गठजोड़ के घातक रूप में सामने आया। सीपीआई(एम) ने समकालीन सरकार के विरुद्ध दरुस्त राजनीतिक स्टैंड लेकर जनआंदोलन तेज करने की नीति अपनाई, जिसके परिणामस्वरूप ये कम्युनिस्ट नेता नेहरू की केंद्र सरकार व भिन्न-भिन्न राज्य सरकारों के दमन का निशाना बने। सीपीआई द्वारा पूंजीपति-जागीरदार वर्गों का प्रतिनिधित्व करती कांग्रेस पार्टी से बनाया गठजोड़ इसको 1975 में स्वर्गीय प्रधानमंत्री श्रीमति इंदिरा गांधी द्वारा लगाए गए आपात्तकाल जैसे गैर-जनवादी कदम की खुली हिमायत करने तक ले गया। बाद के वर्षों के दौरान भी सीपीआई अवसरवादी संसदीय भटकाव का शिकार होकर शोषक वर्गों की राजनीतिक पार्टियों से गठजोड़ करने की आदी बन गई, यद्यपि इसका एक भाग इस राजनीतिक अवसरवाद के विरुद्ध अपनी आवाज उठाता आ रहा है। जबकि कई बार इस सहयोग के परिणाम के रूप में सीपीआई को कुछ संसदीय व विधानसभा सीटें तो मिलती रहीं, परंतु जन-आधार के पक्ष से यह निरंतर सिकुड़ती रही। इस वर्ग सहयोग का सबसे बड़ा नुकसान सीपीआई के नेताओं व कार्यकत्र्ताओं में कम्युनिस्ट नैतिकता व गुणवत्ता में आई गिरावट के रूप में निकला। इस संशोधनवादी भटकाव के बारे में सीपीआई को खुद कम्युनिस्ट आंदोलन को लाभ-हानि के नजरिये से विश्लेषित करने की जरूरत है।
सीपीआई(एम) ने दरुस्त वर्गीय दृष्टिकोण अपना कर शोषक वर्गों के शासन के विरुद्ध 1964 से लेकर आपात्तकाल की समाप्ति के वर्ष (1977) तक निरंतर संघर्ष करने का स्टैंड जारी रखा। इस दरूस्त राजनीतिक दिशा के कारण ही सीपीआई(एम) पश्चिम बंगाल, केरल, त्रिपुरा, आंध्र प्रदेश, आसाम, पंजाब, महाराष्ट्र आदि अनेकों राज्यों में एक मजबूत राजनीतिक पक्ष के रूप में उभरी। नौजवानों तथा विद्यार्थियों में से नया काडर भी भारी संख्या में पार्टी व जनसंगठनों में शामिल हुआ। परंतु अफसोस की बात यह है कि 1977 में केंद्र में जनता सरकार के कायम होने के बाद सीपीआई(एम) ने धीरे-धीरे वर्ग संघर्षों पर टेक रखने व सत्ताधारी वर्गों के साथ समझौता रहित संघर्ष जारी रखते हुए इससे सत्ता सांझी करने से पूरी तरह दूरी बनाए रखने की राजनीतिक समझदारी से किसी न किसी बहाने मुंह मोडक़र पार्टी नेताओं का एक भाग शोषक वर्गों से सहयोग करने व सत्ता के गलियारों में अपनी पैठ बढ़ाने के लिए अवसरवादी राजनीतिक स्टैंड लेने का शिकार बनता गया। वर्ग सहयोग का यह घातक रोग, 21वीं सदी के प्रारंभ में कांग्रेस की केंद्रीय सरकार में सीपीआई(एम) की खुली भागीदारी, सोमनाथ चटर्जी को लोक सभा स्पीकर बनाने तथा सरकार का नीतिगत नेतृत्व करने के लिए कांग्रेस-सीपीआई(एम) की बनाई गई संयुक्त को-आरडीनेशन कमेटी के गठन के साथ, एक राजनीतिक कैंसर का रूप धारण कर गया। पश्चिम बंगाल की वामपंथी सरकार जनवाद व वर्ग संघर्षों की सबसे अग्रणीय चौकी बनने की जगह साम्राज्यवाद निर्देशित नव-उदारवादी आर्थिक नीतियों की अगुवा बनकर पश्चिम बंगाल के लोगों पर अत्याचार ढाहने के रास्ते पर चल पड़ी। केरल में कांग्रेस के विरोध में वाम व जनवादी फ्रंट की सरकार की कायमी बड़ी हद तक अब सिर्फ नाम की ही तब्दीली है, बुनियादी आर्थिक व राजनीतिक दिशा के स्तर पर कुछ भी अलग नहीं है। केरल की वाम व जनवादी मोर्चे की सरकार का अपने विरोधियों, विशेषकर आरएमपीआई के नेताओं व कार्यकत्र्ताओं पर गुंडा हमले, असहनशीलता भरपूर कार्यवाहियां तथा साथी टी.पी.चंद्रशेखरन का सीपीआई(एम) के नेताओं व भाड़े के गुंडों द्वारा किया गया कत्ल वर्ग सहयोग की पटड़ी चढ़ी किसी सोशल डैमोक्रेट पार्टी का परिणामात्मक कुकर्म ही कहा जा सकता है। लोक लाज के लिए कागजों पर कई बार ठीक निर्णय करके भी बिल्कुल उसके विपरीत अमल करना सीपीआई(एम) के नेताओं की विशेषता बन गई है। वैसे सन 2000 में सीपीआई(एम) ने 1964 के पार्टी कार्यक्रम को समयाअनुकूल करने के बहाने इस कार्यक्रम की कई दरुस्त मूल धारणाओं को बदल दिया है। उदाहरणस्वरूप मौजूदा केंद्रीय पूंजीपति-जागीरदार सरकारें, जिसका नेतृत्व इजारेदार पूंजीपति कर रहे हैं, में भागीदारी करने के बारे में पार्टी की केंद्रीय कमेटी उपयुक्त फैसला ले सकती है। (जो शामिल होने की ओर ही अग्रसर है) जबकि यह 1964 के पार्टी के कार्यक्रम की भावना के अनुसार पूरी तरह वर्जित था। 1967 में कम्युनिस्ट आंदोलन में एक और भटकाव ने जन्म लिया, जो नक्सलवाड़ी के नाम से जाना जाता है। यह आंदोलन पश्चिम बंगाल के एक इलाके ‘नक्सलबाड़ी’ से उस समय आरंभ हुआ, जब राज्य में रक्तरंजित जन-आंदोलनों के परिणामस्वरूप वाम पक्ष   की सरकार अस्तित्व में आई थी। वह नई पार्टी, जो सीपीआई(एम-एल) के नाम से भी जानी जाती है, भारतीय लोगों द्वारा 1947 में प्राप्त की गई राजनीतिक आजादी को एक ढोंग मानती है तथा भारत की सरकार को साम्राज्यवाद की दलाल सरकार के रूप में आंकती है। इस पार्टी का निर्णय है कि आर्थिक संघर्ष करने की जगह किसी कोने से उठा चंद लोगों का सशस्त्र संघर्ष देश में क्रांतिकारी तब्दीली करने का कार्य परिपूर्ण कर सकता है। इस पार्टी ने भारतीय लोकतंत्र व वोट प्रणाली को पूरी तरह रद्द करके सिर्फ सशस्त्र संघर्ष को ही मूल संघर्ष माना। निस्संदेह नक्सलवाड़ी आंदोलन के गर्म नारों ने देश के कई भागों में बहुत सारे लोगों, विशेष कर नौजवान व विद्यार्थी वर्ग को काफी प्रभावित किया। बहुत सारे नक्सली कार्यकर्ता व नेता झूठे पुलिस मुकाबलों में मार दिए गए तथा बहुत सारों को कठोर पुलिस दमन का सामना करना पड़ा। क्योंकि यह आंदोलन प्रारंभ से ही वामपंथी भटकाव का शिकार था, इसके कारण जल्द ही इसको भारतीय राजसत्ता ने पुलिस व अन्य अद्र्ध सैनिक बलों के दमन से दबा दिया। अब नक्सलवाड़ी पार्टी आगे कई गुटों व छोटे-छोटे ग्रुपों में बंट गई है। आज भी सीपीआई(माओवादी) राजसत्ता पर काबिज होने के लिए केंद्रीय भारत के बिहार, झारखंड, उड़ीसा, पश्चिम में महाराष्ट्र तथा दक्षिण में आंध्र प्रदेश आदि प्रांतों में सशस्त्र संघर्ष कर रही है। नक्सलवाड़ी पार्टी के कई गुट इस वाम भटकाव से पीछा छुड़ाने का प्रयत्न भी कर रहे हैं तथा अन्य प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष ढंग से सैद्धांतिक रूप में माओवादियों का समर्थन भी कर रहे हैं। केंद्रीय सरकार व इसकी सहयोगी राज्य सरकारें पुलिस व सैना की मदद से माओवादी आंदोलन को खत्म करना चाहते हैं। इस बहाने अक्सर ही आम लोगों पर भी बर्बर दमन किया जाता है। यद्यपि इस आंदोलन का बड़ा भाग नक्सलबाड़ी आंदोलन में दुस्साहसवादी रुझान को नोट तो करता है, परंतु समूचे रूप में अभी इस भटकाव के प्रति डटकर सैद्धांतिक व राजनीतिक स्टैंड नहीं ले रहा। यहां हम इस आंदोलन के तय किए गए क्रांति के निशाने, सुहृद्य कार्यकत्र्ताओं की प्रतिबद्धता व उनके द्वारा किए गए बलिदानों पर कोई उंगली नहीं उठा रहे हैं तथा न ही सरकारी दमन को जायज  ठहरा रहे हैं। सिर्फ नक्सलवाड़ी के सैंद्धांतिक स्टैंड व लोगों के बड़े समर्थन के बिना चंद योद्धाओं के निजी हौंसले व सशस्त्र संघर्ष द्वारा क्रांति को परिपूर्ण करने की समझदारी तथा प्राप्त सीमित जनवादी आजादियों को क्रांतिकारी आंदोलन की बढ़ौत्तरी के लिए उपयोग करने की जगह नकारने की वाम-दुस्साहसवाद आधारित समझदारी पर ही किन्तु कर रहे हैं।
अन्य कमियों-कमजोरियों पर सही परिपेक्ष में विचार-विमर्श करने के साथ-साथ आज पहल के आधार पर दक्षिणपंथी संशोधनवादी वर्ग सहयोग की धारा, जन आंदोलन से रहित चंद योद्धाओं के सशस्त्र  संघर्ष द्वारा क्रांति को कामयाब करने की धारा तथा लिखित रुप में दरुस्त दिशा व निर्णय आंकने के बावजूद अमल में वर्ग सहयोग व संसदीय अवसरवाद के भटकाव की धारा के बारे में विचार करने तथा आत्म-आलोचना करके दरुस्त राजनीतिक दिशा तय करने की जरूरत है, समस्त कम्युनिस्टों के लिए, कोई एक धारा न तो पूरी तरह दोष मुक्त है तथा न ही माक्र्सवादी-लेनिनवादी विचारधारा को भारत की ठोस अवस्थाओं पर लागू करने की अक्लमंदी की इजारेदार।  समस्त धाराओं में कुछ अपनाने तथा सीखने वाले दिशा निर्देश हैं तथा कुछ त्यागने वाले। यह तब ही संभव है, यदि सारे ही कम्युनिस्ट व वामपंथी पक्ष आजादाना तौर पर अपने आप तथा संयुक्त रूप में सिर जोडक़र बैठें, विचार-विमर्श द्वारा अपने अतीत का मुल्यांकन करने तथा भविष्य की दिशा व योजनाएं तय करें। सामाजिक परिवर्तन का रास्ता मुश्किलों भरा, लम्बा व कठिन संघर्षों से भरा है। चाहे, हम इसको जल्द ही पूरा न कर सकें, परंतु मेहनतकशों के इस खूबसूरत आशा के महल की मजबूत नींव निर्मित करने में मददगार तो हो ही सकते हैं।
- मंगत राम पासला

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