Thursday, 2 February 2017

देश की एकता-अखंडता के लिये भी खतरनाक हैं पूंजीवादी समर्थक राजनीतिक पार्टियां

हरकंवल सिंह 
भारत के स्वतंत्रता संग्राम के दौरान, यहां की बाशिंदा भिन्न भिन्न राष्ट्रीयताओं,धर्मों तथा क्षेत्रों से संबंधित लोगों द्वारा मिलकर कुर्बानियां करने के परिणामस्वरूप विशाल भारतीय राष्ट्र की नींव भी रक्खी गई, इस देशव्यापी संघर्ष की यह एक संभावनाओं से भरपूर उपलब्धि थी। इससे, 15 अगस्त 1947 के बाद देश की भूगोलिक एकजुटता को सुरक्षित बनाने की महत्त्वपूर्ण आवश्यकता भी उभर कर सामने आई। इस आवश्यकता की पूर्ति हेतु देश में एक संघीय ढांचा विकसित करने, लोकतांत्रिक राजनीतिक व्यवस्थायें स्थापित करने तथा धर्म निरपेक्षता पर आधारित राजनीतिक पहुंच अपनाने तथा इन्हें मजबूत बनाने की जरूरतें भी उभरीं। इसीलिये भारती गणतंत्र के संविधान में इन समस्त आवश्यक धारणाओं की व्यवस्था की गई।
यद्यपि दुख की बात है कि अंग्रेजों से राजनीतिक स्वतंत्रता प्राप्त करने के उपरांत राजसत्ता पर काबिज हुये पूंजीवादी-जागीरदार हाकिमों तथा उनके लुटेरे वर्गीय हितों की रक्षा करने वाली सरकारों ने इन महत्त्वपूर्ण सामाजिक राजनीतिक व्यवस्थाओं तथा सिद्धांतों का पालन करने तथा वैज्ञानिक पदचिन्हों पर इन्हें आगे और विकसित करने के लिए आवश्यक प्रयत्न नहीं किये। इसके विपरीत, इन भारतीय हाकिमों ने अपने लुटेरे वर्गीय हितों की खातिर तथा संकुचित राजनीतिक लाभों हेतु उपरोक्त तीनों ही दिशाओं में, संविधान में दर्ज व्यवस्थाओं को निरंतर क्षरित किया। जम्हूरियत सिर्फ समय समय पर होते चुनावों तक ही सीमित होकर रह गई। आर्थिक समानता व सामाजिक न्याय जैसे इसके पक्ष तो अब किसी को याद भी नहीं रहे। निजीकरण की अंधेरी ने तो इन्हें पूरी तरह ही नष्ट भ्रष्ट कर दिया है। चुनावों पर भी पहले ल_मार काफी हद तक भारी रहे, तथा अब, धीरे-धीरे धन कुबेरों ने इन्हें पूंजी की जकड़ में इस कदर बंदी बना लिया है कि आम लोगों में इनके प्रति अविश्वास व निराशा काफी हद तक पसर गई है। पिछले 70 सालों के दौरान देश में बनी केंद्रीय सरकारों के लगातार बढ़ते गये एकाधिकारवादी रूझानों ने संघवाद को भारी चोट पहुंचाई है। जिससे लोगों की क्षेत्रीय समस्यायें निरंतर उपेक्षित रहने के कारण दिन प्रतिदिन और अधिक गंभीर व पेचीदा होती जा रही हैं। धर्म-निरपेक्षता के सर्व-स्वीकार्य तथा वैज्ञानिक सिद्धांत के प्रति तो यह भारतीय हाकिम कभी भी सुहृदय दिखाई नहीं दिये। कांग्रेस पार्टी समेत हाकिम वर्गों की सारी ही राजनीतिक पार्टियां शुरू से ही धर्म-निरपेक्षता की धारणा की अपनी संकुचित राजनीतिक जरूरतों (वोटें बटोरने) के लिये भरपूर दुरुपयोग करती आ रही हैं। भारतीय जनता पार्टी के रूप में, संघ परिवार के राजसत्ता पर काबिज हो जाने के साथ तो इन प्रतिक्रियावादी, सांप्रदायिक व अलगाववादी शक्तितों ने धर्म निरपेक्षता के सिद्धांत को वास्तव में  ही आँखों से ओझिल कर दिया है। जिससे अल्प संख्यकों के हितों की लगभग पूर्ण रूप से उपेक्षा होने के साथ तथा उन पर सांप्रदायिक दमन बढऩे के कारण उनकी जीवन स्थितियां और भी अधिक अंधेरी गली में धकेली जा रही हैं।
इस समूची पृष्ठभूमि में देश के भीतर मेहनतकश जनसमूहों की सामाजिक-आर्थिक मुश्किलों के निरंतर बढ़ते जाने के साथ साथ देश की एकता-अखंडता के लिये खतरे भी निरंतर बढ़ते जा रहे हैं। वास्तव में किसी भी देश/राष्ट्र की मजबूती तथा एकता-अखंडता तो काफी हद तक आम लोगों की सद्भावना तता परस्पर एकजुटता पर ही निर्भर करती है। जिसके लिए लोगों की सामाजिक,आर्थिक व सांस्कृतिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये संबंधित सरकारों को निरंतर रूप में प्रयत्नशील रहने की जरूरत होती है। देश की एकता-अखंडता को सरकारों के डंडे द्वारा या पुलिस, फौज व अद्र्धसैनिक बलों के दमनात्मक हथकंडों द्वारा कदाचित भी मजबूत नहीं बनाया जा सकता। परंतु यहां, दुर्भाग्यवश भारतीय हाकिमों ने पहली दिशा में कोई जन पक्षीय या अग्रगामी पहुंच अपनाने की जगह पिछले लंबे समय के दौरान राजशक्ति का दुरुपयोग करके तथा भ्रामक व भावनात्मक ब्यानबाजी द्वारा ही राष्ट्रीय एकजुटता की डींगे मारी हैं। जो कि वास्तव में असफल सिद्ध हो रही हैं। यही कारण है कि देश के भिन्न भिन्न भागों में अक्सर ही अलगाववादी व विद्रोही स्वर उभरते रहते हैं, जो कि कई बार हिंसक रूप भी धारण कर जाते हैं। पूंजीवादी पार्टियां, तथा प्रतिक्रियावादी सांप्रदायिक शक्तियों की संकुचित राजनीतिक हितों से प्रेरित कुचालें अक्सर ही चिंताजनक नस्ली, धार्मिक, भाषाई व क्षेत्रीय भिन्नताओं को और भी अधिक भयानक बना देती हैं। महाराष्ट्र में भारतीय जनता पार्टी की भागीदार शिव सैना द्वारा ‘‘धरती पुत्रों’’ के विषैले नारे के अधीन उत्तरी व दक्षिण भारत से आये मेहनतकशों से किया गया हिंसक व बर्बर व्यवहार इस मानव विरोधी पहुंच की अति घिनौनी उदाहरण है। देश की राजधानी दिल्ली तथा उसके आसपास उत्तर-पूर्वी भारत से आये विद्यार्थियों आदि पर नस्ली भिन्नताओं के आधार पर किये गये हिंसक हमले भी अत्यंत चिंता का विषय हैं। इसी तरह, जम्मू कश्मीर की स्थिति भी व्यापक चिंता का विषय बनी हुई है। मोदी सरकार के संरक्षक संघ परिवार से संबंधित हुल्लड़बाज संगठनों द्वारा अल्प संख्यक समुदाय के लोगों पर पूर्ण निडरता सहित तथा सरेआम ढाया जा रहा बर्बर दमन तो आज देश में सबसे बड़ी राजनीतिक समस्या का रूप धारण करता जा रहा है। अपने संकुचित राजनीतिक उद्देश्यों के लिए ‘आरक्षण’ के मुद्दे को समय-समय पर जातीवादी भिन्नताओं के रूप में उभारते रहना भी इस सारी ही पूंजीवादी पार्टियों का आजकल एक अति शर्मनाक मनोरंजन बना हुआ है। इन पार्टियों के यह सारे कुकर्म, देश के भीतर, मेहनतकश लोगों की एकता को ही ठेस नहीं पहुंचाते बल्कि देश/राष्ट्र की एकता-अखंडता को भी भारी आघात पहुंचा रहे हैं तथा कमजोर बना रहे हैं।
वैसे तो पूंजीवादी प्रणाली के मौजूदा दौर, वित्तीय पूंजी की साम्राज्यवादी लूट खसूट के अंतर्गत अधिक से अधिक मुनाफा कमाने की चूहा दौड़, में राष्ट्रीय एकजुटता के लिये ऐसे खतरों का बढऩा एक पक्ष से स्वाभाविक भी है। जब किसी देश में आम लोगों की जीवन की जरूरतों की पूर्ति के लिये आवश्यक भौतिक पैदावार बढ़ाने हेतु रोजगार के पर्याप्त संसाधन पैदा ही नहीं होने तो लोगों को ऐसी गैर वर्गीय भिन्नताओं का दुरुपयोग करके आसानी से भडक़ाया व भ्रमित किया जा सकता है, जिससे परस्पर मानवीय सौहार्द टूटता है तथा भाईचारक एकजुटता के लिये खतरे बढ़ते हैं। यद्यपि यह बात उस समय और भी अधिक खतरनाक रूप धारण कर जाती है जब पूंजीपति वर्गों की पार्टियां बाकायदा जानबूझ कर परस्पर विरोधी झगड़े उभारती हैं। जो कि मानवीय भाईचारे, सामाजिक सद्भाव तथा भूगोलिक एकजुटता के लिये घातक रूप धारण कर जाते हैं। इस पक्ष से यह भी एक बड़ी त्रासदी ही है कि हमारे देश की अब तक बनी केंद्रीय सरकारों ने क्षेत्रीय, भाषाई व नदी जल के न्यायपूर्ण व तर्कसंगत बटवारे जैसे महत्त्वपूर्ण मुद्दे भी आज तक नहीं निपटाये हैं। बल्कि सत्ताधारी पार्टियों द्वारा जानबूझ कर इस तरह के मुद्दे लटकाये जाते हैं, जो कि भारत के राष्ट्रीय विकास के लिये बहुत महत्त्वपूर्ण हैं। इस संदर्भ में पंजाब के नदी जल से जुड़ा हुआ सतलुज-यमुना लिंक नहर का मुद्दा एक ताजा उदाहरण है। देश की केंद्रीय सरकारों ने पिछले पूरे 50 सालों से पंजाब के नदी जल के बंटवारे के मुद्दे को जानबूझ कर उलझाया हुआ है। अब सारी भी पूंजीवादी पार्टियां अकाली-भाजपा गठजोड़, कांग्रेस पार्टी, आम आदमी पार्टी आदि, निकट भविष्य में होने वाले विधान सभा चुनावों को मद्देनजर रखकर इस मुद्दे को कट्टड़पंथी रंग चढ़ा रही हैं ताकि लोगों का ध्यान उनके वास्तविक मुद्दों से भटकाकर अधिक से अधिक वोट बटोरे जायें। केंद्र में सत्ता पर बैठी भारतीय जनता पार्टी की भूमिका तो सबसे अधिक शर्मनाक व निंदनीय है। इस पार्टी का सूत्रधार आर.एस.एस. अक्सर ही देश की एकता-अखंडता की रक्षा के बारे में सबसे बड़ा चिंतातुर दिखाई देने का पाखंड करता है। इस बहाने उसके नेताओं द्वारा अल्प संख्यकों के विरूद्ध घृणा  फैलाने के लिए विषैला प्रचार भी सरेआम किया जाता है। परंतु एस.वाई.एल. मुद्दे पर तीनों की राज्यों-पंजाब, हरियाणा व राजस्थान के संघ परिवारों के कार्यकत्र्ता, एक दूसरे राज्य की जरूरतों को अनदेखा करके अपने-अपने राज्य के लोगों को भडक़ाने तथा एक दूसरे के दुश्मन बनाने में स्पष्ट रूप में जुटे हुए दिखाई देते हैं। अजीब तमाशा है यह! एक ओर पंजाब में भाजपा का वरिष्ठ नेता मदन मोहन मित्तल विधान सभा में एक प्रस्ताव पेश करता है कि पंजाब के नदी जल के अब तक किये गये उपयोग के लिये राजस्थान व हरियाणा से रायल्टी वसूली जायेगी तथा आगे से उन्हें पानी की एक बूंद भी नहीं दी जायेगी। दूसरी ओर हरियाणा में भाजपा का ही मंत्रिमंडल इस मुद्दे पर लोगों को पंजाब के लोगों के विरुद्ध उकसाता है तथा पंजाब का दिल्ली से नाता तोड़ देने के डरावे देता है। इसी तरह का ही संकीर्ण प्रचार राजस्थान की भाजपा सरकार के मंत्री कर रहे हैं। जबकि केंद्र की भाजपा सरकार इस मुद्दे पर निष्पक्ष रहने का ढौंग रच रही है तथा सुप्रीम कोर्ट में भी ऐसी ही गैर जिम्मेवाराना पहुंच अपना रही है। ऐसी साजिशी पहुंच अपनाकर भारतीय जनता पार्टी देश की एकता-अखंडता को मजबूत नहीं कर रही बल्कि इन तीनों राज्यों के लोगों के बीच परस्पर विरोधों के बीज वो रही है। जो कि निश्चित रूप में भविष्य में खतरनाक अवस्थाओं को जन्म देंगे। यह स्थिति कावेरी नदी के जल बंटवारे को लेकर कर्नाटक व तामिलनाडु के बीच है। वहां भी केंद्रीय सरकार की पहुंच इसी तरह की गैर जिम्मेदार ही है। जबकि केंद्र सरकार की जिम्मेदारी बनती है कि वह खुद पहलकदमी करके राज्यों के बीच के ऐसे विवादों को सुलझाये ताकि देश की एकता-अखंडता को कमजोर करते ऐसे विवाद बहुत समय तक लंबित अवस्था में ना रहें। परंतु लगता है कि इन सत्ताधारी पार्टियों के लिये ऐसी समस्यायें चिंता का विषय ही नहीं हैं।
यहां अच्छी बात यह है कि आम मेहनतकश लोग ऐसे भ्रष्ट राजनीतिज्ञों की ऐसी चालों से अधिक प्रभावित नहीं हो रहे। वे अपनी दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही समस्याओं के कारण निराश तो हैं, परंतु सत्ताधारियों द्वारा की जा रही भाई से भाई को लड़ाने हेतु भडक़ाहटों में कम ही शामिल होते हैं। इन स्थितियों में वामपंथी व क्रांतिकारी शक्तियों की यह भी एक महत्त्वपूर्ण जिम्मेवारी बनती है कि जम्हूरियत व धर्म निरपेक्षता की रक्षा के लिये संघर्षशील रहने के साथ साथ क्षेत्रीय, भाषाई, जातिवादी तथा अन्य परस्पर विवादों के न्यायसंगत समाधान के लिये भी पहिलकदमी करके जन लामबंदी की जाये तथा ऐेसे उद्देश्यों के लिये पूंजीपति लुटेरी सरकारों पर जन दबाव बनाया जाये। ऐसे ठोस व निरंतर प्रयत्नों द्वारा ही न्यायसंगत व स्वस्थ सामाजिक विकास के महत्त्वपूर्ण कार्य की ओर आगे बढ़ा जा सकता है। पंजाब की चार वामपंथी पार्टियों द्वारा नदी जल बंटवारे के मुद्दे पर 23 नवंबर को जालंधर में की गई एक प्रभावशाली कन्वैनशन करके इस दिशा में एक प्रशंसनीय कदम उठाया गया है। इस कन्वैनशन का संदेश देश के कोने कोने तक पहुंचाने के लिये हर संभव उपाय किया जाना चाहिये।
(दिसंबर 2016 अंक का संपादकीय)

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