ररघुबीर सिंह
कृषि संकट अपनी चरम सीमा पर पहुंच चुका है। यह कृषि व्यवसाय के घाटे वाला व्यवसाय बन जाने, किसानों के सिर पर कर्ज का बोझ निरंतर बढ़ते जाने के दबाव के कारण हो रही आत्म-हत्याओं व इनमें निरंतर बढ़ौत्तरी होते जाने के रूप में प्रकट हो रहा है। केंद्र सरकार व पूंजीपति-जागीरदार पार्टियों वाली समस्त प्रांतीय सरकारों द्वारा लागू की जा रही नीतियों के कारण यह संकट और अधिक गहरा व जानलेवा सिद्ध हो रहा है। इन सरकारों की समस्त नीतियां कृषि व्यवसाय में से विशेष रूप से निम्न व मध्यम किसानों तथा खेत मजदूरों को, कृषि क्षेत्र से बाहर करके कंगालीकरण के रास्ते पर धकेल रही हैं। ऐसे देश विरोधी कृत्य को इन सरकारों ने देश के कारपोरेट मुखी विकास का केंद्रीय बिंदु बना लिया है।
संकट के कारण
भारत जैसा देश जिसके पास गंगा-यमुना के मैदान, पंजाब की नदियां तथा पश्चिमी पूर्वी घाट के मैदानों की सोना पैदा करने वाली धरती हो तथा नदियों में इसकी सिंचाई करने की जरूरत से भी अधिक जल हो, उसके खेती व्यवसाय तथा उसके किसानों से घट रही इस त्रासदी के कारणों को जानना बहुत जरूरी है। इनको जान कर ही इसका विरोध करने वाला किसान आंदोलन अपनी मुख्य मांगों व नारों का सृजन करके अपने संघर्षों के ठीक दिशा दे सकेगा।
देश की स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद शासक वर्गों द्वारा स्वतंत्रता-संग्राम में किसान आंदोलन द्वारा निभाई गई क्रांतिकारी भूमिका के दबाव में जागीरदारी खत्म करके जमीन वास्तविक हल जोतने वाले व अन्य भूमिहीन किसानों, मजदूरों को देने के किये गये वायदे को पूरा ना करना, इसका सबसे बड़ा कारण है। नेहरू व उसके उत्तराधिकारियों द्वारा भूमि सुधार आधे-अधूरे मन से लागू किये गये तथा इनमें अनेकों छेद रख कर जागीरदारों के बेनामी इंतकालों तथा बाग बगीचों के नाम पर जमीनें खुर्द-बुर्द करने के मौके दिये गये। सरप्लस जमीनों व इनके वितरण के बारे में 1973 में छपे आंकड़े इस बारे में स्थिति को स्पष्ट करते हैं। इन आंकड़ों के अनुसार देश में 6 करोड़ 30 लाख हैक्टेयर सरप्लस जमीन का अनुमान लगाया गया था, परंतु 1973 तक मात्र 77 लाख हैक्टेयर जमीन ही सरप्लस ऐलानी गयी थी। इसमें से 47 लाख हैक्टेयर जमीन ही सरकारी कब्जे में ली गई तथा मात्र 27 लाख हैक्टेयर ही भूमीहीन व गरीब किसानों में वितरित की गई। भूमि-सुधारों में की गई एक व्यवस्था के अनुसार खुद-काश्त करते हुए जागीरदारों ने मुजारों को उजाड़ कर उन्हें खेत-मजदूरों का रूप दे दिया तथा खुद पूंजीपति-जागीरदारों के रूप में जमीनों के मालिक बन गये। पीड़ादायक बात यह हुई कि स्वतंत्रता-संग्राम का ज्वलंत नारा ‘‘किसान लहर पुकारती, जमीन जोतने वाले की’’ धीरे-धीरे ठंड़ा पड़ता गया। सिर्फ बंगाल व केरल में ही इस पर कुछ सीमा तक अमल हुआ, जिसका वहां के मुजारा काश्तकारों व छोटे किसानों को बड़ा लाभ मिला। भूमि संघर्ष का दूसरा बड़ा केंद्र बिहार था, जहां रणबीर सेना के ल_मारों से हुई खूनी झड़पों में प्रसिद्ध किसान नेता तथा विधायक अजीत सरकार की शहादत हुई। पर दुखद बात यह हुई कि बिहार की दो बड़ी किसान सभाओं ने भूमि-सुधारों की इस रक्त रंजित लड़ाई को धीमा कर दिया। इससे किसान आंदोलन को क्षति पहुंची है। यदि ऐसा ना होता तो बिहार की आर्थिक व राजनीतिक तस्वीर भिन्न होती। 1991 के पश्चात अपनाई गई नवउदारवादी नीतियों में से उभरे विशेष आर्थिक जोनों, रीयल इस्टेटों तथा अन्य बहु उद्देश्यीय परियोजनाओं ने इस बुनियादी नारे को और धुंधला कर दिया तथा भूमि के जनपक्षीय वितरण की जगह हजारों व लाखों एकड़ों पर आधारित स्वतंत्र परिसंपत्तियां खड़ी कर दीं, पर यह नारा बुनियादी नारा है। इसे व्यवहारिक रूप दिये बिना भारत जैसे अद्र्ध-सामंती-पूंजीवादी ढांचे में किसान संकट पर काबू पा सकना असंभव है।
गलत कृषि नीतियां
भूमि के जनपक्षीय पुन: वितरण के नारे से विश्वासघात का कारण भी बुनियादी रूप में केंद्र सरकार की वर्गीय संरचना था। इस संरचना में से ही उसकी कृषि नीतियों की उत्पत्ति हुई आरंभ में लगभग 1960 के दशक के अंत तक, नीतियों में कुछ किसान-पक्षीय तत्व भी शामिल थे, जिनका हरी क्रांति वाले क्षेत्रों मेें किसानों को कुछ लाभ भी जरूर हुआ। आरंभ में समस्त कृषि विशेषज्ञों ने सरकार को अपनी नीति का केंद्रीय बिंदु छोटी कृषि को बनाने की सलाह दी थी। उनका विचार था कि छोटी कृषि अधिक उपजाऊ होने के कारण किसान की खुशहाली को अधिक प्रफुल्लित कर सकती है। छोटी कृषि को आधार बनाने की जोरदार वकालत डाक्टर स्वामीनाथन भी कर रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र ने वर्ष 2015 को छोटी कृषि को प्रफुल्लित करने वाले वर्ष के रूप में मनाने का नारा दिया था।
परंतु देश की केंद्रीय सरकार तथा उसकी नवउदारवादी नीति की अलंबरदार बनी प्रांतीय सरकारों ने 1970 के पश्चात नीतियों के मामने में उद्योग मुखी तथा कृषि विरोधी नीतियां अपना कर सब कुछ उल्टा-पुल्टा कर दिया है। छोटी कृषि की रक्षा का मुद्दा तो बिल्कुल ही ऐजंडे से दूर कर दिया गया। इससे आरंभ में कृषि उत्पादन में भारी बढ़ौत्तरी हुई। संगठित मंडीकरण में न्यूनतम सहायक मूल्य मिलने से किसानों की आर्थिक स्थिति में कुछ सुधार भी हुआ, पर कृषि व्यापार की नींव उद्योग मुखी होने के कारण मशीनीकरण की दौड़ में किसानों को फंसा दिया गया। बैंकों को छूट मिल गई कि वे एक एकड़ वाले किसान को भी ट्रैक्टर के लिए सस्ता कर्ज दे सकते हैं। इससे भूमि के स्वामित्व के अनुपात में टै्रक्टरों की संख्या आवश्यकता से कहीं अधिक हो गई। यही स्थिति अन्य मशीनरी व ट्यूबवैलों के मामले में हो गई। पंजाब कृषि विश्वविद्यालय ने बीजों व पशु नस्लों के सुधार के क्षेत्र में बड़ी उपलब्धियां प्राप्त कीं, पर इन खोजों का मूल आधार साम्राज्यवादी देशों द्वारा सप्लाई किये गये बुनियादी बीज थे। हमारे अपने देसी बीज जो हमारी धरती के अधिक अनुकूल थे, बिलकुल भुला दिये गये। यही स्थिति हमारी विश्व प्रसिद्ध पशु नस्लों के मामले में हुई। यदि केंद्र व राज्य सरकारें सहिकारिता आंदोलन को मजबूत करतीं तथा सरकारी केंद्र खोल कर छोटे किसानों को सस्ती दरों पर कृषि मशीनरी प्रदान करतीं तो किसान कर्ज के बोझ तले इतना ना दबता। देसी बीजों व पशु नस्लों तथा खादों व कीट नाशकों का विकास किया जाता तो आज हमारा देश बड़ी विदेशी कंपनियों के रहमो-कर्म पर ना होता।
साम्राज्यवादी आर्थिक व्यवस्था का गला-घोंटू फंदा
वर्तमान कृषि संकट का तीसरा मुख्य कारण भारतीय सत्ताधारियों द्वारा 1991 में नव उदारवादी नीतियों का झंडा बरदार बनना है। भारतीय सत्ताधारी देश के विकास को कारपोरेट मुखी बना कर अपने निजी व वर्गीय लाभों के लिये भारतीय अर्थव्यवस्था को साम्राज्यवादी अर्थव्यवस्था के गला घोंटने वाले फंदे में फंसा रहे हैं। इस गठजोड़ को और अधिक मजबूत व टिकाऊ बनाने के लिये वे साम्राज्यवादी लूट की तिकड़ी विश्व बैंक, आंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष तथा विशेषतय: विश्व व्यापार संस्था की समस्त शर्तें खुशी-खुशी स्वीकार कर रहे हैं। वे इन घातक शर्तों को मेहनतकशों पर लागू करने के लिये हर तरह से झूठ, मक्कारी, धोखाधड़ी तथा अत्याचार करने में कोई झिझक महसूस नहीं करते। यह तिकड़ी, विशेष रूप में अंतर्राष्ट्रीय मुद्धा कोष तथा विश्व व्यापार संस्था की शर्तों के अधीन देश के आर्थिक ढांचे व विदेशी व्यापार में ढांचागत तब्दीलियां की गई हैं। इनके निर्देशों के कारण सार्वजनिक क्षेत्र लगभग समाप्त कर दिया गया है, गरीब लोगों को सस्ती बुनियादी सार्वजनिक सेवाओं स्वास्थ्य व शिक्षा देने की जिम्मेवारी निभाने से सरकार पीठ दिखा रही है। किसानों व मजदूरों को मिलती सब्सीडियों में निरंतर कटौतियां की जा रही हैं, पर कारपोरेट घरानों को हर साल लगभग साढे पांच लाख करोड़ के आर्थिक प्रोत्साहन दिये जा रहे हैं। हर प्रकार की खोजें बंद की जा रही हैं। पंजाब कृषि विश्वविद्यालय जैसी विश्व प्रसिद्ध कृषि खोज संस्थाओं को फंड देने से पूर्ण रूप से इंकार किया जा रहा है तथा उनके कृषि फार्म बेचे जा रहे हैं या बहुराष्ट्रीय कंपनियों को दिये जा रहे हैं। किसानों की जमीनें जोर-जबरदस्ती कारपोरेट घरानों को देने के मंसूबे निरंतर बनाये जा रहे हैं। भारत के कृषि क्षेत्र पर जोरदार चोट विश्व व्यापार संस्था के नैरोबी (केन्या) में हुए 15वें सम्मेलन में मारी गई है। वहां भारत व अन्य विकासशील देशों के कृषि क्षेत्र की रीढ़ की हड्डी तोडऩे का मानव विरोधी फैसला किया गया है। इस फैसले से 2017 के पश्चात विश्व व्यापार संस्था की सदस्य सरकारें कृषि उत्पादों की खरीद व भंडारण नहीं कर सकेंगीं। इसके अतिरिक्त किसानों व मजदूरों को कृषि व अनाज के लिये मिलती समस्त सबसीडियां लगभग बंद हो जायेंगी। कृषि उत्पादन महंगा हो जायेगा, मंडी में मूल्य ठीक न मिलने के कारण निम्न व मध्यम किसान बर्बाद हो जायेगा। दूसरी ओर मजदूरों को भी मिलने वाला सस्ता अनाज नहीं मिल सकेगा। इस जन विरोधी फैसले की नीेंव कांग्रेस शासन के समय 2013 में हुए बाली सम्मेलन में रख दी गई थी।
सत्ताधारी पार्टियों की साजिश भरी चुप्पी
समस्त सत्ताधारी पार्टियां इस अमानवीय व देश विरोधी फैसले के प्रति साजिशी व अपराधिक चुप्पी धारण किये बैठी हैं। कांग्रेस पार्टी ने बाली सम्मेलन में सिर्फ चार साल का समय मिलने की शर्त दिखावा मात्र नकली विरोथ करके मान ली थी। भारत में आकर इसका कोई विरोध नहीं किया तथा न ही यह मुद्दा उसके वर्तमान ऐजंडे पर है। इसी मद को नैरोबी में कानूनी रूप दिया गया। वहां गई केंद्रीय मंत्री श्रीमति निर्मला सीतारामन ने दिखावे के तौर पर घडिय़ाली आंसू को बहाए पर इधर आकर सब कुछ शांत है। उनकी पार्टी इस सम्मेलन के फैसलों को अपनी सफलता मान कर साम्राज्यवादी देशों से अपनी घनिष्ठता बढ़ाने के लिये हाथ-पैर मार रही है। किसी भी अन्य क्षेत्रीय पार्टी समेत पंजाब के अकाली दल को भी इसके बारे में कोई चिंता नहीं। इस कठिन परस्थति में सिर्फ संघर्षशील किसान-मजदूर संगठन व वामपंथी पार्टियां ही इसके विरूद्ध गंभीर संघर्ष लड़ रही हैं। पंजाब के 12 किसान-मजदूर संगठनों का संयुक्त मंच इस मुद्दे पर जोरदार संघर्ष कर रहा है।
वर्तमान किसान संघर्ष
देश के कृषि क्षेत्र की भयंकर तस्वीर हर देशभक्त व किसान-मजदूर हितैषी देशवासी में यह जानने की जिज्ञासा पैदा करती है कि क्या भारत में काम कर रहे किसान संगठनों का नेतृत्व ठोस स्थितियों के ठोस निरीक्षण के सिद्धांत के अनुसार अपने संघर्षों के लिये ठोस मांगें व नारे तय करने तथा संघर्ष के ठीक रूप अपना सकने के योग्य हो सकते हैं? देश के किसान आंदोलनों का एक शानदार इतिहास है, जिसमें बहुत कुछ सीखने व करने को मिलता है। इन आंदोलनों का इतिहास किसानों के संघर्ष करने तथा सरकारी अत्याचार सहनेे के सामथ्र्य का साक्षी है। पंजाब के स्वतंत्रता संग्राम से जुड़े बड़े किसान आंदोलन, पगड़ी संभाल जट्टा (1907), 1930 के दशक का कर्ज मुक्ति संग्राम, पैप्सू का मुजारा आंदोलन तथा 1959 का खुशहैसियती टैक्स के विरूद्ध आंदोलन अपनी विशालताओं व तीक्ष्णताओं के पक्ष से बेमिसाल आंदोलन थे। इनकी ठोस उपलब्धियां हैं, जो ठीक मांगों व संघर्ष के ठीक रूपों की उपज थीं।
परंतु इस सच्चाई से इंकार नहीं किया जा सकता कि समूचे देश में हो रही कृषि क्षेत्र की बर्बादी को रोकने के लिये राष्ट्रीय स्तर पर संगठित व लड़ाकू किसान आंदोलन नहीं $खड़े किया जा सके। यह चिंता का विषय जरूर है, पर देश के कई क्षेत्रों में काफी शक्तिशाली किसान संघर्ष चल रहे हैं तथा उनकी कुछ उपलब्धियां भी हैं। उड़ीसा में पास्को कंपनी के विरूद्ध जबरदस्त लंबा संघर्ष, परमाणु प्लांटों के विरूद्ध संघर्ष, कई विशेष आर्थिक जोनों को रद्द करवाने के लिये चले संघर्ष, कांग्रेस के शासनकाल के समय भूमि अधिग्रहण के विरूद्ध संघर्ष तथा मौजूदा मोदी सरकार द्वारा तीन बार भूमि अधिग्रहण आर्डीनेंस लाने के विरूद्ध सफल संघर्ष इसकी कुछ विशेष मिसालें हैं। इन संघर्षों ने संयुक्त संघर्ष के संकल्प को मजबूत किया है।
पंजाब में संयुक्त संघर्षों का दौर 2010 के प्रारंभ में बादल सरकार द्वारा बिजली नलकूपों पर दुबारा बिजली बिल लगाने तथा अनूसूचित जाति मजदूरों को मिलती 200 यूनिट बिजली की मुफ्त रियायत वापिस लेने के विरूद्ध संघर्ष के रूप में शुरू हुआ। इस पहले दौर के संघर्ष का शिखर 6 से 11 दिसंबर 2011 तक नैशनल हाईवे पर स्थित ब्यास नदी के पुल को जाम करने तथा मालवा क्षेत्र में रेल यातायात रोकने के रूप में हुआ। इसके परिणाम स्वरूप नलकूपों के बिजली बिल पहले की तरह माफ हो गये तथा मजदूरों को मिलती घरों के लिये बिजली संबंधी रियायत पुन: बहाल हो गई। इसी संघर्ष के दौरान ही गोबिंदपुरा (मानसा) थर्मल प्लांट से संबंधित किसानों को जमीन के बदले जमीन मिली तथा मजदूरों को विस्थापन का मुआवजा भी मिला।
8 किसान तथा 4 मजदूर संगठनों के मौजूदा संघर्ष का दौर जो सितंबर 2015 में अधिक तीव्र हुआ, ठोस मांगों पर आधारित है। इसलिये वैज्ञानिक समझ पर आधारित संघर्ष के रूप तैयार किये गये थे। फसलों की तबाही का पूरा पूरा मुआवजा मिले, आबादकार किसानों को मालिकाना अधिकार दिये जायें, बासमती चावल की निश्चित मूल्यों (4000 से 5000 रुपए) पर प्रति किवंटल खरीद यकीनी बनाई जाये, गन्ने के बकायों की फौरी अदायगी की जाये, गन्ना मिलें 15 अक्तूबर से चलाई जायें, गरीब किसानों व खेत मजदूरों के कर्ज माफ किये जायें, आत्महत्या करने वाले किसान, मजदूर के परिवार को 5 लाख रूपये मुआवजा तथा परिवार को नौकरी दी जाये, किसानों की समस्त फसलों की खरीद तथा जन वितरण प्रणाली द्वारा इसका वितरण सुनिश्चियत किया जाये। मजदूरों को घरों के लिये 10-10 मरले के प्लाट व निर्माण के लिये 3 लाख रूपये का अनुदान दिया जाये, यह इस संघर्ष की मांगें हैं।
6 अक्टूबर से 12 अक्टूबर 2015 तक निरंतर रेलें रोकना तथा 22-27 जनवरी 2016 के रायके कलां व अमृतसर के मोर्चे इस संघर्ष के विशाल व जुझारू एक्शन हंै। इस एक्शन की ठोस उपलब्धियां भी हैं, जो प्रैस में बहुत बार छप चुकी हैं। बाकी मांगों पर संघर्ष जारी है।
पंजाब के संघर्ष के सकारात्मक बिंदु
1. एक संयुक्त संगठन के ना होने पर भी संयुक्त संघर्षों द्वारा लंबे तथा जोरदार संघर्ष लडऩे के लिये सफल संयुक्त मंच खड़ा करना एक बड़ी उपलब्धि है।
2. मांगों व संघर्ष के रूप लंबे विचार-विमर्श के बाद आम सहमति के आधार पर तैयार करने की प्रथा विकसित हुई है।
3. कृषि क्षेत्र में पूंजी के तीव्र प्रवेश से किसानों व खेत मजदूरों की कई मांगें बहुत भिन्नता वाली हैं तथा कई बार आपस में टकराव वाली होने के बावजूद आम सहमति से कुछ संयुक्त मांगों पर खड़ा हुआ जुझारू किसान-मजदूर संयुक्त मोर्चा पंजाब में भविष्य में जनपक्षीय विकल्प का निर्माण करने में सहायक होगा।
4. संयुक्त मोर्चे के सभी घटकों में आम सहमति है कि देश की कृषि नीति निम्न व मध्यम किसानों पर आधारित हो। इसका उद्देश्य सिर्फ उत्पादन बढ़ाना ही ना हो बल्कि किसान की खुशहाली तथा देशवासियों को सस्ता व पेट भर अनाज मुहैय्या करवाना भी हो।
हमारा अटल विश्वास है कि कृषि व्यवसायको मुनाफा देने योग्य बनाया जा सकता है, पर इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिये देश स्तर पर विशाल व शक्तिशाली आंदोलन खड़ा करना समय की सबसे बड़ी जरूरत है।
यह आंदोलन निम्नलिखित बुनियादी मांगों पर संघर्ष करके देश के कृषि क्षेत्र की तस्वीर बदल सकता है :
(क) विश्व व्यापार संस्था की नवउदारवादी नीतियों को परास्त करने के लिये शक्तिशाली आंदोलन खड़ा किया जाये।
(ख) सरकार समस्त कृषि उत्पादनों की खरीद डाक्टर स्वामीनाथन आयोग की सिफारशों के अनुसार करना सुनिश्चित करे। कृषि सब्सीडियों में बढ़ौत्तरी की जाये। कृषि व्यापार में देशी-विदेशी बड़ी कंपनियों का प्रवेश बंद किया जाये।
(ग) सर्वव्यापी जन वितरण प्रणाली लागू की जाये।
(घ) किसानों को 3 प्रतिशत साधारण ब्याज की दर पर कर्ज दिया जाये।
(ण) फसल बीमा योजना लागू की जाये, पर निम्न व मध्यम किसानों की किश्तें सरकार खुद अदा करे।
(च) कृषि में सार्वजनिक निवेश बड़े व्यापक स्तर पर बढ़ाकर सिंचाई व्यवस्था व खोज संस्थाओं का बुनियादी ढांचा मजबूत किया जाये। सहकारिता आंदोलन को पुन: जीवित किया जाये।
(ज) भूमि का भेदभाव पूर्ण वितरण समाप्त करने के लिये सरप्लस भूमि गरीब किसानों व मजदूरों में बंटवाने तथा छोटी कृषि को प्रफुल्लित करने के लिये संघर्ष को तीव्र किया जाये।
कृषि संकट अपनी चरम सीमा पर पहुंच चुका है। यह कृषि व्यवसाय के घाटे वाला व्यवसाय बन जाने, किसानों के सिर पर कर्ज का बोझ निरंतर बढ़ते जाने के दबाव के कारण हो रही आत्म-हत्याओं व इनमें निरंतर बढ़ौत्तरी होते जाने के रूप में प्रकट हो रहा है। केंद्र सरकार व पूंजीपति-जागीरदार पार्टियों वाली समस्त प्रांतीय सरकारों द्वारा लागू की जा रही नीतियों के कारण यह संकट और अधिक गहरा व जानलेवा सिद्ध हो रहा है। इन सरकारों की समस्त नीतियां कृषि व्यवसाय में से विशेष रूप से निम्न व मध्यम किसानों तथा खेत मजदूरों को, कृषि क्षेत्र से बाहर करके कंगालीकरण के रास्ते पर धकेल रही हैं। ऐसे देश विरोधी कृत्य को इन सरकारों ने देश के कारपोरेट मुखी विकास का केंद्रीय बिंदु बना लिया है।
संकट के कारण
भारत जैसा देश जिसके पास गंगा-यमुना के मैदान, पंजाब की नदियां तथा पश्चिमी पूर्वी घाट के मैदानों की सोना पैदा करने वाली धरती हो तथा नदियों में इसकी सिंचाई करने की जरूरत से भी अधिक जल हो, उसके खेती व्यवसाय तथा उसके किसानों से घट रही इस त्रासदी के कारणों को जानना बहुत जरूरी है। इनको जान कर ही इसका विरोध करने वाला किसान आंदोलन अपनी मुख्य मांगों व नारों का सृजन करके अपने संघर्षों के ठीक दिशा दे सकेगा।
देश की स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद शासक वर्गों द्वारा स्वतंत्रता-संग्राम में किसान आंदोलन द्वारा निभाई गई क्रांतिकारी भूमिका के दबाव में जागीरदारी खत्म करके जमीन वास्तविक हल जोतने वाले व अन्य भूमिहीन किसानों, मजदूरों को देने के किये गये वायदे को पूरा ना करना, इसका सबसे बड़ा कारण है। नेहरू व उसके उत्तराधिकारियों द्वारा भूमि सुधार आधे-अधूरे मन से लागू किये गये तथा इनमें अनेकों छेद रख कर जागीरदारों के बेनामी इंतकालों तथा बाग बगीचों के नाम पर जमीनें खुर्द-बुर्द करने के मौके दिये गये। सरप्लस जमीनों व इनके वितरण के बारे में 1973 में छपे आंकड़े इस बारे में स्थिति को स्पष्ट करते हैं। इन आंकड़ों के अनुसार देश में 6 करोड़ 30 लाख हैक्टेयर सरप्लस जमीन का अनुमान लगाया गया था, परंतु 1973 तक मात्र 77 लाख हैक्टेयर जमीन ही सरप्लस ऐलानी गयी थी। इसमें से 47 लाख हैक्टेयर जमीन ही सरकारी कब्जे में ली गई तथा मात्र 27 लाख हैक्टेयर ही भूमीहीन व गरीब किसानों में वितरित की गई। भूमि-सुधारों में की गई एक व्यवस्था के अनुसार खुद-काश्त करते हुए जागीरदारों ने मुजारों को उजाड़ कर उन्हें खेत-मजदूरों का रूप दे दिया तथा खुद पूंजीपति-जागीरदारों के रूप में जमीनों के मालिक बन गये। पीड़ादायक बात यह हुई कि स्वतंत्रता-संग्राम का ज्वलंत नारा ‘‘किसान लहर पुकारती, जमीन जोतने वाले की’’ धीरे-धीरे ठंड़ा पड़ता गया। सिर्फ बंगाल व केरल में ही इस पर कुछ सीमा तक अमल हुआ, जिसका वहां के मुजारा काश्तकारों व छोटे किसानों को बड़ा लाभ मिला। भूमि संघर्ष का दूसरा बड़ा केंद्र बिहार था, जहां रणबीर सेना के ल_मारों से हुई खूनी झड़पों में प्रसिद्ध किसान नेता तथा विधायक अजीत सरकार की शहादत हुई। पर दुखद बात यह हुई कि बिहार की दो बड़ी किसान सभाओं ने भूमि-सुधारों की इस रक्त रंजित लड़ाई को धीमा कर दिया। इससे किसान आंदोलन को क्षति पहुंची है। यदि ऐसा ना होता तो बिहार की आर्थिक व राजनीतिक तस्वीर भिन्न होती। 1991 के पश्चात अपनाई गई नवउदारवादी नीतियों में से उभरे विशेष आर्थिक जोनों, रीयल इस्टेटों तथा अन्य बहु उद्देश्यीय परियोजनाओं ने इस बुनियादी नारे को और धुंधला कर दिया तथा भूमि के जनपक्षीय वितरण की जगह हजारों व लाखों एकड़ों पर आधारित स्वतंत्र परिसंपत्तियां खड़ी कर दीं, पर यह नारा बुनियादी नारा है। इसे व्यवहारिक रूप दिये बिना भारत जैसे अद्र्ध-सामंती-पूंजीवादी ढांचे में किसान संकट पर काबू पा सकना असंभव है।
गलत कृषि नीतियां
भूमि के जनपक्षीय पुन: वितरण के नारे से विश्वासघात का कारण भी बुनियादी रूप में केंद्र सरकार की वर्गीय संरचना था। इस संरचना में से ही उसकी कृषि नीतियों की उत्पत्ति हुई आरंभ में लगभग 1960 के दशक के अंत तक, नीतियों में कुछ किसान-पक्षीय तत्व भी शामिल थे, जिनका हरी क्रांति वाले क्षेत्रों मेें किसानों को कुछ लाभ भी जरूर हुआ। आरंभ में समस्त कृषि विशेषज्ञों ने सरकार को अपनी नीति का केंद्रीय बिंदु छोटी कृषि को बनाने की सलाह दी थी। उनका विचार था कि छोटी कृषि अधिक उपजाऊ होने के कारण किसान की खुशहाली को अधिक प्रफुल्लित कर सकती है। छोटी कृषि को आधार बनाने की जोरदार वकालत डाक्टर स्वामीनाथन भी कर रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र ने वर्ष 2015 को छोटी कृषि को प्रफुल्लित करने वाले वर्ष के रूप में मनाने का नारा दिया था।
परंतु देश की केंद्रीय सरकार तथा उसकी नवउदारवादी नीति की अलंबरदार बनी प्रांतीय सरकारों ने 1970 के पश्चात नीतियों के मामने में उद्योग मुखी तथा कृषि विरोधी नीतियां अपना कर सब कुछ उल्टा-पुल्टा कर दिया है। छोटी कृषि की रक्षा का मुद्दा तो बिल्कुल ही ऐजंडे से दूर कर दिया गया। इससे आरंभ में कृषि उत्पादन में भारी बढ़ौत्तरी हुई। संगठित मंडीकरण में न्यूनतम सहायक मूल्य मिलने से किसानों की आर्थिक स्थिति में कुछ सुधार भी हुआ, पर कृषि व्यापार की नींव उद्योग मुखी होने के कारण मशीनीकरण की दौड़ में किसानों को फंसा दिया गया। बैंकों को छूट मिल गई कि वे एक एकड़ वाले किसान को भी ट्रैक्टर के लिए सस्ता कर्ज दे सकते हैं। इससे भूमि के स्वामित्व के अनुपात में टै्रक्टरों की संख्या आवश्यकता से कहीं अधिक हो गई। यही स्थिति अन्य मशीनरी व ट्यूबवैलों के मामले में हो गई। पंजाब कृषि विश्वविद्यालय ने बीजों व पशु नस्लों के सुधार के क्षेत्र में बड़ी उपलब्धियां प्राप्त कीं, पर इन खोजों का मूल आधार साम्राज्यवादी देशों द्वारा सप्लाई किये गये बुनियादी बीज थे। हमारे अपने देसी बीज जो हमारी धरती के अधिक अनुकूल थे, बिलकुल भुला दिये गये। यही स्थिति हमारी विश्व प्रसिद्ध पशु नस्लों के मामले में हुई। यदि केंद्र व राज्य सरकारें सहिकारिता आंदोलन को मजबूत करतीं तथा सरकारी केंद्र खोल कर छोटे किसानों को सस्ती दरों पर कृषि मशीनरी प्रदान करतीं तो किसान कर्ज के बोझ तले इतना ना दबता। देसी बीजों व पशु नस्लों तथा खादों व कीट नाशकों का विकास किया जाता तो आज हमारा देश बड़ी विदेशी कंपनियों के रहमो-कर्म पर ना होता।
साम्राज्यवादी आर्थिक व्यवस्था का गला-घोंटू फंदा
वर्तमान कृषि संकट का तीसरा मुख्य कारण भारतीय सत्ताधारियों द्वारा 1991 में नव उदारवादी नीतियों का झंडा बरदार बनना है। भारतीय सत्ताधारी देश के विकास को कारपोरेट मुखी बना कर अपने निजी व वर्गीय लाभों के लिये भारतीय अर्थव्यवस्था को साम्राज्यवादी अर्थव्यवस्था के गला घोंटने वाले फंदे में फंसा रहे हैं। इस गठजोड़ को और अधिक मजबूत व टिकाऊ बनाने के लिये वे साम्राज्यवादी लूट की तिकड़ी विश्व बैंक, आंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष तथा विशेषतय: विश्व व्यापार संस्था की समस्त शर्तें खुशी-खुशी स्वीकार कर रहे हैं। वे इन घातक शर्तों को मेहनतकशों पर लागू करने के लिये हर तरह से झूठ, मक्कारी, धोखाधड़ी तथा अत्याचार करने में कोई झिझक महसूस नहीं करते। यह तिकड़ी, विशेष रूप में अंतर्राष्ट्रीय मुद्धा कोष तथा विश्व व्यापार संस्था की शर्तों के अधीन देश के आर्थिक ढांचे व विदेशी व्यापार में ढांचागत तब्दीलियां की गई हैं। इनके निर्देशों के कारण सार्वजनिक क्षेत्र लगभग समाप्त कर दिया गया है, गरीब लोगों को सस्ती बुनियादी सार्वजनिक सेवाओं स्वास्थ्य व शिक्षा देने की जिम्मेवारी निभाने से सरकार पीठ दिखा रही है। किसानों व मजदूरों को मिलती सब्सीडियों में निरंतर कटौतियां की जा रही हैं, पर कारपोरेट घरानों को हर साल लगभग साढे पांच लाख करोड़ के आर्थिक प्रोत्साहन दिये जा रहे हैं। हर प्रकार की खोजें बंद की जा रही हैं। पंजाब कृषि विश्वविद्यालय जैसी विश्व प्रसिद्ध कृषि खोज संस्थाओं को फंड देने से पूर्ण रूप से इंकार किया जा रहा है तथा उनके कृषि फार्म बेचे जा रहे हैं या बहुराष्ट्रीय कंपनियों को दिये जा रहे हैं। किसानों की जमीनें जोर-जबरदस्ती कारपोरेट घरानों को देने के मंसूबे निरंतर बनाये जा रहे हैं। भारत के कृषि क्षेत्र पर जोरदार चोट विश्व व्यापार संस्था के नैरोबी (केन्या) में हुए 15वें सम्मेलन में मारी गई है। वहां भारत व अन्य विकासशील देशों के कृषि क्षेत्र की रीढ़ की हड्डी तोडऩे का मानव विरोधी फैसला किया गया है। इस फैसले से 2017 के पश्चात विश्व व्यापार संस्था की सदस्य सरकारें कृषि उत्पादों की खरीद व भंडारण नहीं कर सकेंगीं। इसके अतिरिक्त किसानों व मजदूरों को कृषि व अनाज के लिये मिलती समस्त सबसीडियां लगभग बंद हो जायेंगी। कृषि उत्पादन महंगा हो जायेगा, मंडी में मूल्य ठीक न मिलने के कारण निम्न व मध्यम किसान बर्बाद हो जायेगा। दूसरी ओर मजदूरों को भी मिलने वाला सस्ता अनाज नहीं मिल सकेगा। इस जन विरोधी फैसले की नीेंव कांग्रेस शासन के समय 2013 में हुए बाली सम्मेलन में रख दी गई थी।
सत्ताधारी पार्टियों की साजिश भरी चुप्पी
समस्त सत्ताधारी पार्टियां इस अमानवीय व देश विरोधी फैसले के प्रति साजिशी व अपराधिक चुप्पी धारण किये बैठी हैं। कांग्रेस पार्टी ने बाली सम्मेलन में सिर्फ चार साल का समय मिलने की शर्त दिखावा मात्र नकली विरोथ करके मान ली थी। भारत में आकर इसका कोई विरोध नहीं किया तथा न ही यह मुद्दा उसके वर्तमान ऐजंडे पर है। इसी मद को नैरोबी में कानूनी रूप दिया गया। वहां गई केंद्रीय मंत्री श्रीमति निर्मला सीतारामन ने दिखावे के तौर पर घडिय़ाली आंसू को बहाए पर इधर आकर सब कुछ शांत है। उनकी पार्टी इस सम्मेलन के फैसलों को अपनी सफलता मान कर साम्राज्यवादी देशों से अपनी घनिष्ठता बढ़ाने के लिये हाथ-पैर मार रही है। किसी भी अन्य क्षेत्रीय पार्टी समेत पंजाब के अकाली दल को भी इसके बारे में कोई चिंता नहीं। इस कठिन परस्थति में सिर्फ संघर्षशील किसान-मजदूर संगठन व वामपंथी पार्टियां ही इसके विरूद्ध गंभीर संघर्ष लड़ रही हैं। पंजाब के 12 किसान-मजदूर संगठनों का संयुक्त मंच इस मुद्दे पर जोरदार संघर्ष कर रहा है।
वर्तमान किसान संघर्ष
देश के कृषि क्षेत्र की भयंकर तस्वीर हर देशभक्त व किसान-मजदूर हितैषी देशवासी में यह जानने की जिज्ञासा पैदा करती है कि क्या भारत में काम कर रहे किसान संगठनों का नेतृत्व ठोस स्थितियों के ठोस निरीक्षण के सिद्धांत के अनुसार अपने संघर्षों के लिये ठोस मांगें व नारे तय करने तथा संघर्ष के ठीक रूप अपना सकने के योग्य हो सकते हैं? देश के किसान आंदोलनों का एक शानदार इतिहास है, जिसमें बहुत कुछ सीखने व करने को मिलता है। इन आंदोलनों का इतिहास किसानों के संघर्ष करने तथा सरकारी अत्याचार सहनेे के सामथ्र्य का साक्षी है। पंजाब के स्वतंत्रता संग्राम से जुड़े बड़े किसान आंदोलन, पगड़ी संभाल जट्टा (1907), 1930 के दशक का कर्ज मुक्ति संग्राम, पैप्सू का मुजारा आंदोलन तथा 1959 का खुशहैसियती टैक्स के विरूद्ध आंदोलन अपनी विशालताओं व तीक्ष्णताओं के पक्ष से बेमिसाल आंदोलन थे। इनकी ठोस उपलब्धियां हैं, जो ठीक मांगों व संघर्ष के ठीक रूपों की उपज थीं।
परंतु इस सच्चाई से इंकार नहीं किया जा सकता कि समूचे देश में हो रही कृषि क्षेत्र की बर्बादी को रोकने के लिये राष्ट्रीय स्तर पर संगठित व लड़ाकू किसान आंदोलन नहीं $खड़े किया जा सके। यह चिंता का विषय जरूर है, पर देश के कई क्षेत्रों में काफी शक्तिशाली किसान संघर्ष चल रहे हैं तथा उनकी कुछ उपलब्धियां भी हैं। उड़ीसा में पास्को कंपनी के विरूद्ध जबरदस्त लंबा संघर्ष, परमाणु प्लांटों के विरूद्ध संघर्ष, कई विशेष आर्थिक जोनों को रद्द करवाने के लिये चले संघर्ष, कांग्रेस के शासनकाल के समय भूमि अधिग्रहण के विरूद्ध संघर्ष तथा मौजूदा मोदी सरकार द्वारा तीन बार भूमि अधिग्रहण आर्डीनेंस लाने के विरूद्ध सफल संघर्ष इसकी कुछ विशेष मिसालें हैं। इन संघर्षों ने संयुक्त संघर्ष के संकल्प को मजबूत किया है।
पंजाब में संयुक्त संघर्षों का दौर 2010 के प्रारंभ में बादल सरकार द्वारा बिजली नलकूपों पर दुबारा बिजली बिल लगाने तथा अनूसूचित जाति मजदूरों को मिलती 200 यूनिट बिजली की मुफ्त रियायत वापिस लेने के विरूद्ध संघर्ष के रूप में शुरू हुआ। इस पहले दौर के संघर्ष का शिखर 6 से 11 दिसंबर 2011 तक नैशनल हाईवे पर स्थित ब्यास नदी के पुल को जाम करने तथा मालवा क्षेत्र में रेल यातायात रोकने के रूप में हुआ। इसके परिणाम स्वरूप नलकूपों के बिजली बिल पहले की तरह माफ हो गये तथा मजदूरों को मिलती घरों के लिये बिजली संबंधी रियायत पुन: बहाल हो गई। इसी संघर्ष के दौरान ही गोबिंदपुरा (मानसा) थर्मल प्लांट से संबंधित किसानों को जमीन के बदले जमीन मिली तथा मजदूरों को विस्थापन का मुआवजा भी मिला।
8 किसान तथा 4 मजदूर संगठनों के मौजूदा संघर्ष का दौर जो सितंबर 2015 में अधिक तीव्र हुआ, ठोस मांगों पर आधारित है। इसलिये वैज्ञानिक समझ पर आधारित संघर्ष के रूप तैयार किये गये थे। फसलों की तबाही का पूरा पूरा मुआवजा मिले, आबादकार किसानों को मालिकाना अधिकार दिये जायें, बासमती चावल की निश्चित मूल्यों (4000 से 5000 रुपए) पर प्रति किवंटल खरीद यकीनी बनाई जाये, गन्ने के बकायों की फौरी अदायगी की जाये, गन्ना मिलें 15 अक्तूबर से चलाई जायें, गरीब किसानों व खेत मजदूरों के कर्ज माफ किये जायें, आत्महत्या करने वाले किसान, मजदूर के परिवार को 5 लाख रूपये मुआवजा तथा परिवार को नौकरी दी जाये, किसानों की समस्त फसलों की खरीद तथा जन वितरण प्रणाली द्वारा इसका वितरण सुनिश्चियत किया जाये। मजदूरों को घरों के लिये 10-10 मरले के प्लाट व निर्माण के लिये 3 लाख रूपये का अनुदान दिया जाये, यह इस संघर्ष की मांगें हैं।
6 अक्टूबर से 12 अक्टूबर 2015 तक निरंतर रेलें रोकना तथा 22-27 जनवरी 2016 के रायके कलां व अमृतसर के मोर्चे इस संघर्ष के विशाल व जुझारू एक्शन हंै। इस एक्शन की ठोस उपलब्धियां भी हैं, जो प्रैस में बहुत बार छप चुकी हैं। बाकी मांगों पर संघर्ष जारी है।
पंजाब के संघर्ष के सकारात्मक बिंदु
1. एक संयुक्त संगठन के ना होने पर भी संयुक्त संघर्षों द्वारा लंबे तथा जोरदार संघर्ष लडऩे के लिये सफल संयुक्त मंच खड़ा करना एक बड़ी उपलब्धि है।
2. मांगों व संघर्ष के रूप लंबे विचार-विमर्श के बाद आम सहमति के आधार पर तैयार करने की प्रथा विकसित हुई है।
3. कृषि क्षेत्र में पूंजी के तीव्र प्रवेश से किसानों व खेत मजदूरों की कई मांगें बहुत भिन्नता वाली हैं तथा कई बार आपस में टकराव वाली होने के बावजूद आम सहमति से कुछ संयुक्त मांगों पर खड़ा हुआ जुझारू किसान-मजदूर संयुक्त मोर्चा पंजाब में भविष्य में जनपक्षीय विकल्प का निर्माण करने में सहायक होगा।
4. संयुक्त मोर्चे के सभी घटकों में आम सहमति है कि देश की कृषि नीति निम्न व मध्यम किसानों पर आधारित हो। इसका उद्देश्य सिर्फ उत्पादन बढ़ाना ही ना हो बल्कि किसान की खुशहाली तथा देशवासियों को सस्ता व पेट भर अनाज मुहैय्या करवाना भी हो।
हमारा अटल विश्वास है कि कृषि व्यवसायको मुनाफा देने योग्य बनाया जा सकता है, पर इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिये देश स्तर पर विशाल व शक्तिशाली आंदोलन खड़ा करना समय की सबसे बड़ी जरूरत है।
यह आंदोलन निम्नलिखित बुनियादी मांगों पर संघर्ष करके देश के कृषि क्षेत्र की तस्वीर बदल सकता है :
(क) विश्व व्यापार संस्था की नवउदारवादी नीतियों को परास्त करने के लिये शक्तिशाली आंदोलन खड़ा किया जाये।
(ख) सरकार समस्त कृषि उत्पादनों की खरीद डाक्टर स्वामीनाथन आयोग की सिफारशों के अनुसार करना सुनिश्चित करे। कृषि सब्सीडियों में बढ़ौत्तरी की जाये। कृषि व्यापार में देशी-विदेशी बड़ी कंपनियों का प्रवेश बंद किया जाये।
(ग) सर्वव्यापी जन वितरण प्रणाली लागू की जाये।
(घ) किसानों को 3 प्रतिशत साधारण ब्याज की दर पर कर्ज दिया जाये।
(ण) फसल बीमा योजना लागू की जाये, पर निम्न व मध्यम किसानों की किश्तें सरकार खुद अदा करे।
(च) कृषि में सार्वजनिक निवेश बड़े व्यापक स्तर पर बढ़ाकर सिंचाई व्यवस्था व खोज संस्थाओं का बुनियादी ढांचा मजबूत किया जाये। सहकारिता आंदोलन को पुन: जीवित किया जाये।
(ज) भूमि का भेदभाव पूर्ण वितरण समाप्त करने के लिये सरप्लस भूमि गरीब किसानों व मजदूरों में बंटवाने तथा छोटी कृषि को प्रफुल्लित करने के लिये संघर्ष को तीव्र किया जाये।
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