हरकंवल सिंह
25 मई को मोदी सरकार ने अपने कार्यकाल का एक वर्ष पूरा कर लिया है। इस साल के दौरान की गई ‘उपलब्धियों’ का गुणगान करने की कवायद, पिछले कई दिनों से शुरू थी। प्रधानमंत्री के मीपिडया विशेषज्ञों द्वारा उसे एक ‘‘युग-पुरूष’’ व ‘‘विष्णु’’ के अवतार के रूप में पेश किये। लोगों की जीवन स्थितियों में चमत्कारिक परिवर्तन हो जाने के, हवाई दावे किये गये। इस उद्देश्य के लिये 26 से 31 मई तक ‘जन कल्याण पर्व’ मनाया गया। जिसका सरकारी टी.वी. (दूरदर्शन), सरकारी रेडियो (आकाशवाणी) व कार्पोरेट घरानों के कई चैनलों द्वारा घुंआधार प्रचार किया गया। मोदी सरकार का चेहरा चमकाने के लिए ‘‘प्रचार कम्युनिकेशन’’ जैसी कई निजी कंपनियों को भी मोटी रकमें दी गई हैं। उनके द्वारा पिछले महीने से ही अखबारों व टैलीविजन द्वारा जोरदार विज्ञापनबाजी की जा रही थी। इस के लिये अब भी विशेष लेख लिखवाये जा रहे हैं जिनके द्वारा यह दावे किये जा रहे हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की विदेश यात्राओं की जादूगरी से दुनिया में भारत की छवि अब नए ‘शिखरों’ को छू रही है। तथा, अंतरर्राष्ट्रीय भाईचारे की भारत के बारे में ‘‘स्वर ही नहीं, समझ भी बदल गई है।’’ मोदी सरकार के इस समूचे प्रचार ने एक बार पुन: इस तथ्य को प्रकट कर दिया है कि भ्रामक प्रचार व ‘‘मीडिया मैनेजमैंट’’ में भारतीय जनता पार्टी का कोई सानी नहीं है। इससे तो यही लगता है कि, यह पार्टी तथा इसकी जनक आर.एस.एस. हिटलर के बदनाम मीडिया विशेषज्ञ गोयबलस को भी मात देने की क्षमता रखते हैं।
पिछले वर्ष हुये संसदीय चुनावों से पहले भी, कार्पोरेट घरानों से मिली अथाह मदद के बल पर, भाजपा ने लोक लुभावन वायदे करने के लिए की गई जोरदार प्रचारबाजी से नये ‘कीर्तिमान’ स्थापित किये थे। कांग्रेस पार्टी की जन-विरोधी नीतियों, भ्रष्टाचार व कुशासन से सताये लोगों को भाजपा ने ‘सबका साथ, सबका विकास’ जैसे भावुक नारों द्वारा बड़े सब्जबाग दिखाये थे। परंतु एक वर्ष के समय के दौरान ही, यह समस्त नारे व वायदे पूर्ण रूप में खोखले व गुमराह करने वाले सिद्ध हो चुके हैं। उदाहरणस्वरूप उस समय वायदा किया गया था कि मंहगाई को घटाया जायेगा। परंतु यह कमर तोड़ महंगाई घटी तो है ही नहीं बल्कि निरंतर बढ़ती ही जा रही है। मेहनतकश लोगों के लिये सबसे सस्ती समझी जाती खुराक अर्थात दलों के दाम भी इस एक वर्ष के दौरान 30 प्रतिशत तक बढ़ गये हैं तथा एक किलो दाल शतक पार कर गई है। मौसमी सब्जियां भी गरीब उपभोक्ताओं को हाथ नहीं लगाने देती। गरीबों की रसोई में प्रयोग की जाने वाली या नित्य प्रति काम आने वाली हर वस्तु ही मोदी सरकार के इस कार्यकाल के दौरान और अधिक मंहगी हुई है। यहां तक कि अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतें प्रति बैरल 125 डालर से घट कर 45 डालर तक आ जाने के बावजूद नरेंद्र मोदी के इस अभागे देश में डीजल व पेट्रोल के दामों में इस अनुपात में कमी नहीं हुई तथा, ना ही इस कमी का महंगाई के आम स्तर पर ही कोई सकारात्मक प्रभाव पड़ा है। मई महीने में ही पेट्रोल की कीमत में 7 रुपए 09 पैसे प्रति लीटर तथा डीजल की कीमत में 5 रुपए 08 पैसे लीटर की बढ़ौत्तरी हुई है। पंजाब की अकाली-भाजपा सरकार तो इस बढ़ौत्तरी से भी संतुष्ट नहीं हुई। उसने इन दोनों वस्तुओं पर एक रुपए प्रति लीटर की दर से एक नया और टैक्स (सैस) लगा दिया है। यहां ही बस नहीं, मोदी सरकार के इस एक वर्ष के कार्यकाल के दौरान रेल किराये-भाड़े, बस किराये, बिजली की दरों, स्कूलों-कालेजों की फीसों-शुल्कों आदि में, हर ओर भी बढ़ौत्तरी हुई है। यही कारण है कि श्री नरेंद्र मोदी द्वारा ‘‘अच्छे दिन आने वाले हैं’’ का आम लोगों के लिये घड़ा गया सुहाना सपना टूट कर चूर-चूर हो चुका है तथा अब एक घिनौने चुटकले का रूप धारण कर चुका है। इस तरह देश में, मेहनतकश जनसमूहों के लिये चारों ओर निराशा के बादल और घने होते स्पष्ट दिखाई दे रहे हैं। परंतु शर्मनाक बात तो यह है कि भारतीय जनता पार्टी व उसके सहयोगी अभी भी ‘जन कल्याण पर्व’ के जश्न मना रहे हैं।
इसी तरह का एक अन्य वादा था-विदेशी बैंकों में जमा काले धन को 100 दिनों के भीतर देश में वापिस लाने का। पर त्रासदी यह है कि 365 दिनों में भी यह वादा पूरा नहीं हुआ। 2009 के संसदीय चुनावों के समय जोरदार ढंग से उभरे इस मुद्दे को वोटों में परिवर्तित करने के लिए भाजपा के नेताओं ने यह वादा भी किया था कि चोरबाजारी, श्वितखोरी व दलाली के रूप में ‘कमाये गये’ अरबों-खरबों रुपए के इस काले धन को देश में वापस लाकर हर नागरिक के खाते में 3-3 लाख रुपए जमा करवा दिये जायेंगे। परंतु सत्ता संभालने के साथ ही इस वादे के प्रति मोदी सरकार का स्वर ही बदल गया तथा विदेशी सरकारों से हुये समझौतों आदि की कानूनी अड़चनों की बहानेबाजी शुरू कर दी गई। अनैतिक ढंग-तरीकों से अर्जित कमाई को रूपमान करते इस काले धन का एक पैसा भी अभी तक वापिस नहीं आ सका है तथा, काले धन के बारे में संसद में पारित एक नये कानून की रौशनी में अब यह अनुमान लगाना भी मुश्किल नहीं कि यह काला धन समूचे रूप में शायद कभी भी वापिस नहीं लाया जा सकेगा तथा भविष्य में भी इस नाजायज पूंजी पर प्रभावशाली अंकुश लगने की कोई अधिक संभावनायें नहीं दिखती।
देश में, करोड़ों की संख्या में रोजी-रोटी के तलाश में दर-दर की ठोकरें खा रहे बेरोजगारों व अद्र्ध बेरोजगारों को भी मोदी सरकार ने बिल्कुल भी कोई राहत प्रदान नहीं की। इन बदनसीबों से चुनावों से पहले किये गये समस्त वादों में से कोई भी वादा वफा नहीं हुआ। देश में ना ओद्यौगिक उत्पादन को प्रोत्साहन मिला तथा ना ही निर्यात बढ़े। दूसरी ओर सार्वजनिक क्षेत्र के ओद्यौगिक संस्थानों व सेवा संस्थानों के निजीकरण की प्रक्रिया और तीव्र हो गई। इसलिये निजी व सार्वजनिक क्षेत्र के ओद्यौगिक प्रतिष्ठानों; सरकारी विभागों (पुलिस व सैना को छोडक़र) बुनियादी सार्वजनिक सेवाओं से संबंधित भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में रोजगार के नये अवसर पैदा होने की तो संभावनायें ही नहीं थी बन सकतीं। इस सरकार ने तो मनरेगा द्वारा गरीब मजदूरों को मिलते रोजगार पर भी नये अंकुश लगा दिये हैं। प्रधानमंत्री द्वारा इसे ‘धन की बर्बादी को मूर्तिमान करती योजना’ का नाम देकर इस योजना का मजाक उड़ाने पर प्रतिक्रियास्वरूप देश भर में उभरे जन-रोष से घबराकर मोदी सरकार ने इस योजना को पूर्ण रूप से बंद करने की तो हिम्मत नहीं की, परंतु इसे कमजोर करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। ना पिछले वर्षों के दौरान किये कार्यों के बकाया वेतनों की अदायगी की जा रही तथा न ही 2015-16 के वर्तमान वर्ष में समस्त जरूरतमंदों को कार्य ही दिया जा रहा है। सरकार की यह भी अपनी रिपोर्ट ही कहती है कि बीते 2014-15 के वर्ष के दौरान इस योजना में, समूचे देश में, किसी भी कार्डधारी को 100 दिवस का कार्य ना मिलने के मुआवजे के रूप में एक पैसा भी बेरोजगारी भत्ते के रूप में नहीं दिया गया।
इसके अतिरिक्त, मोदी सरकार ने 2015-16 के लिये अपने बजट में गरीबी निवारण, देहाती विकास, कृषि आधारित उद्योगों, शिक्षा, स्वास्थ्य, सामाजिक सुरक्षा आदि के लिए रक्खी जाती राशियों को भी घटा दिया है। इस सरकार का यह भी एक बड़ा ‘कारनामा’ है कि इसने लोगों की बुनियादी जरूरतों से संबंधित इन समस्त क्षेत्रों में योजना आयोग द्वारा निभाई जाती भूमिका को भी समाप्त कर दिया है। अब ना रहा बांस ना बजेगी बांसुरी। योजना आयोग को इसलिये समाप्त कर दिया गया है क्योंकि इसमें से मोदी को ‘‘समाजवाद’’ की बू आती थी।
यह भी स्पष्ट है कि बीते एक वर्ष के दौरान मोदी सरकार ने मेहनतकश लोगों को कोई ठोस राहत प्रदान करने की जगह अधिकतर मनमोहन सरकार की जन विरोधी नीतियों को ही जारी रखा है। जिनमें से प्रमुख हैं मुनाफाखोरों को, देसी व विदेशी कंपनियों को तथा कारपोरेट घरानों को पूंजीवादी लूट-खसूट के लिये और अधिक छूटें व रियायतें देनीं तथा प्रशासन के निरंतर बढ़ रहे खर्चों का बोझ आम लोगों पर लादते जाना। इस दिशा में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के लिये और अधिक क्षेत्र खोल दिये गये हैं। यहां तक कि खुदरा व्यापार में भी 52 प्रतिशत तक की विदेशी हिस्सेदारी के लिये रास्ता साफ कर दिया गया है। जिससे इस विशाल क्षेत्र में रोजी-रोटी कमा रहे मेहनतकशों के रोजगार पर घातक प्रभाव की परछाईयां और अधिक घनी हो गई हैं। बीमा क्षेत्र में भी विदेशी हिस्सेदारी की सीमा 26 प्रतिशत से बढ़ाकर 49 प्रतिशत कर दी गई है। रेलवे जैसे विशाल संस्थान व सुरक्षा-उत्पादन के अति संवेदनशील क्षेत्र के सिर पर भी प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की तलवार लटका दी गई है। यह समस्त कदम जन कल्याण के कार्य नहीं, बल्कि रोजगार के संसाधनों को क्षति पहुंचाने की ओर निर्देशित कुकर्म है, जिससे मेहनतकश लोगों का भविष्य और अधिक अंधकारमय हो जायेगा।
कृषि क्षेत्र, देश में लंबे समय से गंभीर संकट का शिकार है। सरकार की अपराधिक अनदेखी के कारण लघु व मध्यम किसान, कृषि धंधे के उपयोगी ना रह जान के कारण कंगाली व कर्ज के घातक जाल में फंस गये है। इस चिंताजनक पृष्ठभूमि में, मोदी सरकार द्वारा कृषि अनुसंधान आदि के लिए पूंजी निवेश करने या कृषि लागतें घटाने के लिये खादों, बीजों, कीड़ेमार दवाईयों व खरपतवार नाशकों आदि की कीमतों में किसानों को कोई राहत प्रदान करने की जगह उनके लिये और नई मुश्किलें पैदा करने का रास्ता अपनाया है। इस दिशा मे्ं सबसे अधिक शर्मनाक है कृषि उत्पादों का समर्थन मूल्य तय करने के मामले में स्वामीनाथन कमेटी की सिफारशें लागू करने के विषय में सरकार की स्पष्ट उलटबाजी। इस विषय में मोदी सरकार किसानों से किये गये वायदे से शरेआम मुकर गई है। साथ ही किसानों की मंडी में होती लूट को और तीव्र करने के लिए, इस सरकार ने एफ.सी.आई. द्वारा खरीद को बड़ी सीमा तक घटा देने व धीरे-धीरे समाप्त कर देने के भी संकेत दे दिये हैं। यह सरकार तो, इस वर्ष बेमौसमी बारिशों के कारण फसलों के हुये विनाश की भी पूर्ति करने से शरेआम मुकर गई थी। परंतु किसानों व अन्य इंसाफपसंद आवाम द्वारा सरकार की इस कठोरता के विरूद्ध चलाये गये व्यापक जन-प्रतिरोध के कारण ही सरकार को अपने घोषित फैसलों से पीछे मुडऩे के लिये मजबूर होना पड़ा। सरकार के इस आपराधिक व्यवहार के कारण किसानों के सिर चढ़े कर्ज की गांठ और अधिक बोझिल हो गई है तथा किसानों द्वारा निराशावश की जाती आत्महत्यायों की दर और बढ़ गई है।
उपरोक्त के अतिरिक्त मोदी सरकार का किसानों पर सबसे बड़ा हमला है भूमि अधिग्रहण कानून 2013 में किसान विरोधी संशोधन करना तथा इस उद्देश्य के लिये किसानों की सहमति को पूरी तरह तो नजरअंदाज कर देना। इस नग्न जोर जबरदस्ती के विरुद्ध देश भर में किसान कड़ा प्रतिरोध कर रहे हैं। परंतु सरकार दीवार पर लिखा पढऩे की जगह समस्त जनवादी मूल्यों को त्याग कर तथा संसद के भीतर भी हो रहे प्रतिरोध को अनदेखा करके इस घोर कुकर्म के लिये शाही फरमानों (अध्यादेशों) का सहारा ले रही है। जिसके कारण किसानों में रोष की ज्वाला दिनों-दिन प्रचंड होती जा रही है। इस पृष्ठभूमि में किसानों को ‘बूंद सिंचाई’ आदि जैसे पुराने नुस्खों से रिझाने व शांत करने के उपाय कितनी सफलता प्राप्त कर सकेंगे?
मोदी सरकार द्वारा इस एक वर्ष के समय के दौरान मेहनतकशों को कोई ठोस राहत प्रदान करने तथा उसकी जीवन स्थितियों को बेहतर बनाने के लिये उठाए गये किसी भी कारगर कदम की रिक्तता में, सरकार द्वारा ‘‘प्रधान मंत्री जनधन योजना’’ को बड़े मसाले लगाकर पेश किया जा रहा है। जबकि यह नारा हर पक्ष में दंभ भरा नारा है। इससे करोड़ों लोगों के बैंक खाते तो खुल गये हैं तथा सरकारी रिपोरटों के अनुसार बैंकों में भी 9-10 हजार करोड़ रुपये की पूंजी भी जमा हो गई है, परंतु इससे आम खाता धारकों को मिला तो कुछ नहीं, ना ओवर ड्राफ्ट द्वारा बिना शर्त कर्ज की सुविधा मिली तथा ना ही एक लाख रुपये के बीमे की गारंटी मिली। यह भी स्पष्ट हो गया है कि, वास्तव में, सरकार की यह एक चाल ही थी-डीबीटी स्कीम को सफल बनाने के लिये। इस स्कीम के अधीन गैस की सबसिड़ी व विद्यार्थियों के वजीफे आदि सीधे उनके बैंक खातों में जरूर जाने लग पड़े हैं। वैसे यह कोई ऐसी नई खोज नहीं है, जिसे कि ‘क्रांतिकारी’ परिवर्तन तक का नाम दिया जा रहा है। पहले भी बहुत से सरकारी व अद्र्ध सरकारी कर्मचारियों तथा मनरेगा स्कीमों में कार्य करने वाले मजदूरों के वेतन उनके बैंक खातों में ही आ रहे हैं। हो सकता है कि इससे निम्न स्तर के खुदरा भ्रष्टाचार पर एक सीमा तक रोक लग जाये परंतु उपरी स्तर के थोक भ्रष्टाचार, जो कि रिश्वत, कमीशनों व दलाली के रूप में चलता है, वह तो भविष्य में भी वैसे ही जारी रहेगा। इस जन धन योजना के बारे में अब यह प्रचार भी शुरू कर दिया गया है कि बैंक खाता खुलने से मेहनतकशों में बचत की आदत बनेगी। लगता है कि इन ‘भद्रपुरूषों’ को यह ज्ञान नहीं है कि बचत तो वह व्यक्ति कर सकेगा, जिसके पास अपनी बुनियादी जीवन जरूरतों की पूर्ति करने के बाद कुछ बचेगा। देश में 70 प्रतिशत लोगों की तो बुनियादी जरूरतें भी बड़ी मुश्किल से भी पूरी नहीं हो रहीं। वे पौष्टिक भोजन भी जुटाने में असमर्थ हैं। अपने बच्चे भी पाल-पढ़ा नहीं पा रहे, तथा बिना इलाज के मरने को मजबूर हैं। वे बचत कहां से करेंगे?
इसी तरह की एक और लिफाफेबाजी है ‘‘स्वच्छ भारत’’ की। इस हवाई नारे के प्रचार के लिये भी बड़ी ड्रामेबाजी की गई है। परंतु आसपास की सफाई के लिये आवश्यक साधन जुटाने, विशेष रूप से शहरों में इसके लिये आवश्यक कर्मचारी भरती करने जैसे वास्तविक कार्यों की अनदेखी करके इस नारे को सफल बनाने की हवाई बातें निरा धोखा साबित हो रही हैं। क्या मोदी सरकार यह नहीं जानती कि गांवों में बसती लगभग एक-तिहाई भूमिहीन आबादी के पास तो अपने घरों में पखाने तक नहीं हैं। गंगा नदी की सफाई की शोशेबाजी भी बड़े जोर-शोर से की गई है चाहे इसे अभी तक भाजपा द्वारा चुनावों के समय लोगों से किये गये सांप्रदायिक व अद्र्ध-सांप्रदायिक वादों के एक अंग के रूप में ही लिया जा रहा है, परंतु आवश्यकता तो देश के समस्त नदी-नालों को साफ रखने तथा पर्यावरण को प्रदूषणमुक्त बनाने की है। इसके लिये सरकारी स्तर पर उपयुक्त संसाधन जुटाने की भी जरूरत है। इससे भी बड़ी जरूरत है ओद्यौगिक कचरे की संभाल व सफाई की जिसके लिये उद्योगपतियों को मजबूर करने की इच्छा-शक्ति तो मोदी सरकार में कहीं भी दिखाई नहीं देती। इसके विपरीत इस सरकार का तो सारा जोर दुनिया भर की कंपनियों से भारत में पूंजी निवेश करवाने पर लगा हुआ है। तथा, इस उद्देश्य के लिये उन्हें सस्ती जमीनें, सस्ती श्रम-शक्ति, कच्चा माल तथा विशाल बाजार उपलब्ध करवाने के साथ साथ पर्यावरण के रख-रखाव संबंधी छूटें देने के आपराधिक वादे खुल्लम-खुल्ला किये जा रहे हैं। प्रधान मंत्री द्वारा इस एक वर्ष के दौरान 18 देशों की की गई यात्रायें वास्तव में इस उद्देश्य की पूर्ति की ओर, स्वदेशी कारपोरेट घरानों की फालतू पूंजी व माल के लिये बाजार ढूंढने की ओर तथा आयातें को बढ़ाने की ओर निर्देशित रही हैं, जबकि पूंजीवादी प्रणाली भी चलंत अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक मंदी की चलते उसे इन समस्त यात्राओं से कोई बड़ी प्राप्ति नहीं हो सकी है।
मोदी सरकार की एक और शोशेबाजी है-बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ। यह कोई नया मुद्दा नहीं है, परंतु सरकार द्वारा इसे मीडिया में प्रचारित भी बहुत किया जा रहा है। जबकि जमीनी हकीकतों कुछ और ही हैं। देश भर में औरतों के मान-सम्मान व सुरक्षा के लिये खतरे निरंतर बढ़ रहे हैं। मोगा आरबिट बस-कांड इसका अति घिनौना रूप है। परंतु औरतों के प्रति संवेदनशीलता में कमी की शिखर यह है कि ऐसी दिल दहला देने वाली घटनाओं के निरंतर बढ़ते जाने के बावजूद श्रमिक औरतों से रात्रि शिफ्ट में काम लेने को कानूनी मान्यता दी जा रही है। अब तो 14 वर्ष से कम आयु के बच्चों से भी काम करवाने को कानूनी मान्यता मिल रही है। सरकार के यह समस्त कदम श्रम कानूनों को मालिकों के पक्ष में विपरीत दिशा में मोडऩा ही नहीं बल्कि यह औरतों व बच्चों की सुरक्षा से भी खतरनाक खिलवाड़ साबित होंगे।
इसी तरह पिछले दिनों ऐलानी गई सामाजिक सुरक्षा से संबंधित तीन योजनायें-प्रधानमंत्री जीवन ज्योति बीमा स्कीम, प्रधानमंत्री जीवन सुरक्षा बीमा योजना तथा अटल पैन्शन योजना भी पहले से चल रही व बड़ी हद तक निरर्थक सिद्ध हो चुकी योजनाओं को ही नये नामों से पेश किया गया है। मोटे रूप में यह जरूर लुभावनी नजर आ सकती हैं परंतु बीमा योजनाओं का पता तो दावों के निपटारों से ही लगता है। यकीनन ही इन योजनाओं के अधीन बैंकों द्वारा स्वाचालित रूप से काटी जाने वाली विशाल राशियां किसी एक या दूसरी निजी बीमा कंपनी के हवाले होंगी, जिनकी दावे निपटाने की दर जीवन बीमा निगम (एल.आई.सी.) के मुकाबले निराशाजनक ही हैं।
विकास के मुद्दे पर चुनाव लडऩे वाली इस सरकार का एक और बड़ा ‘कारनामा’ है विकास की वैज्ञानिक व जन हितैषी धारणा से भद्दा खिलबाड़ करना तथा इस धारणा को बड़ी हद तक जन-विरोधी रूप प्रदान कर देना। विकास का वास्तविक माइना है देश की समस्त आबादी, विशेष रूप से मेहनतकश जनसमूहों के लिये बेहतर व उच्चतर जीवन स्थितियां विकसित करना। जहां हर एक के लिये शिक्षा प्राप्त करने तथा योग्यता के अनुसार गुजारे योग्य कमाई करने के लिये एक समान साधन उपलब्ध हों तथा हरेक को सामाजिक व आर्थिक उन्नति के लिये समान अवसर मिलें। हर मेहनतकश की कमाई सुरक्षित हो तथा वह अपनी बुनियादी जरूरतों की पूर्ति करने तथा अपने परिवार का लालन-पालन करने की अधिक-से-अधिक आजादी का आनंद उठा सके। इस उद्देश्य के लिये सरकारी स्तर पर शिक्षा व स्वास्थ्य सुविधाओं का प्रबंध करना, उत्पादन बढ़ाने के लिये बिजली व ऊर्जा के अन्य साधन विकसित करना, कृषि व सिंचाई सुविधाओं को बढ़ावा, आम मेहनतकशों को नित्य प्रति उपयोग की वस्तुयें उपलब्ध करवाने के लिये सार्वजनिक वितरण प्रणाली का विकास करना, पीने के स्वच्छ पानी की आपूर्ति यकीनी बनाना तथा आवाजाही के भरोसेयोग्य व सस्ते साधन विकसित करना आदि को ही सही माईनों में विकास कहा जा सकता है। यद्यपि मोदी सरकार के लिये विकास का अर्थ इस तरह का ‘सरबत का भला’ नहीं है। उसके लिये तो विकास का अर्थ उद्योगपतियों (कारपोरेट सैक्टर) के लिये अधिक से अधिक सुविधाओं का सृजन करना, उनके लिये आवश्यक हवाई अड्डों, बुलेट ट्रेनों, कारीडोर, बहुमार्गी सडक़ों, आम आबादी से दूर शाही शहरों (स्द्वड्डह्म्ह्ल ष्टद्बह्लद्बद्गह्य) का निर्माण करना है तथा, आगे ऐसे कारपोरेट घरानों द्वारा लोगों के श्रम की कमाई को जायज नाजायज ढंग से लूटकर खड़े किये गये दौलत के अंबारों को आंकड़ों का रूप देकर कुल घरेलू उत्पाद (त्रष्ठक्क) में हुई बढ़ौत्तरी के रूप में दर्शाना ही मोदी सरकार के लिये विकास है। जबकि वैज्ञानिक दृष्टिकोण से इसे पैदावार में बढ़ौत्तरी (त्रह्म्श2ह्लद्ध) तो कहा जाता है, परंतु विकास (ष्ठद्ग1द्गद्यशश्चद्वद्गठ्ठह्ल) नहीं। यह सरकार तो देश की 2 प्रतिशत से भी कम जनसंख्या द्वारा पूंजी बाजार में की जा रही जुएबाजी से बढ़ रहे बी.एस.ई. (बांबे स्टॉक एक्सचेंज) के सूचकांक को भी देश में हो रहे तीव्र विकास के रूप में प्रचारित कर रही है। ‘मेक इन इंडिया’ (रूड्डद्मद्ग द्बठ्ठ ढ्ढठ्ठस्रद्बड्ड) की लिफाफेबाजी की दिशा भी ऐसे ही विकास की ओर है, जो घरेलू, लघु व मध्यम उद्योगों के उत्पादन को खत्म करके उसकी जगह विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा उत्पादन, बढ़ाने के लिये उनके आगे बिनती चिरौरी कर रही है। उनके यहां आधुनिक तकनीकों द्वारा उत्पादन बढ़ाने से कुल घरेलु उत्पाद (त्रष्ठक्क) तो बढ़ सकता है परंतु रोजगार नहीं बढ़ेगा बल्कि और घट जाएगा। ‘मेक इन इंडिया’ के अधीन विदेशी पूंजी ने यहां अधिक से अधिक मुनाफा कमाने (श्वड्डह्म्ठ्ठ द्घह्म्शद्व ढ्ढठ्ठस्रद्बड्ड) के लिए आना है ना कि देशवासियों के सर्वपक्षीय विकास के लिये। जिसका प्रत्यक्ष प्रभाव होगा देश में व्यापक स्तर पर बेचैनी का बढऩा तथा और प्रचंड होना। जन रोष के इस भय के कारण ही मोदी सरकार के इन चारों को अभी बहुराष्ट्रीय कंपनियों की ओर से बहुत ही ठंडा प्रतिउत्तर मिल रहा है।
यहां एक और तथ्य नोट करना भी जरूरी है। मोदी सरकार के इस एक वर्ष के कार्यकाल के दौरान मेहनतकश लोगों की जीवन स्थितियों पर ही बुरा प्रभाव नहीं पड़ा बल्कि देश में भाईचारक एकजुटता पर भी तगड़ी चोट मारी गई है। संघ परिवार द्वारा हिंदुत्व के नारे को तीव्रता प्रदान करने के साथ उसके धर्म आधारित हिंदू राज्य स्थापित करने के प्रतिक्रियावादी प्रोग्राम में भी तेजी आई है। इस उद्देश्य के लिये अल्प-संख्यकों के विरूद्ध जहरीला सांप्रदायिक प्रचार बड़े स्तर पर आरंभ कर दिया गया है। भारतीय जनता पार्टी के नेता व सांसद भी इस तरह के खतरनाक प्रचार का नेतृत्व कर रहे हैं। शिक्षा के भगवांकरण द्वारा तथा मिथिहास को इतिहास के रूप में पेश करके मध्ययुगीन सामंती व सांप्रदायिक संस्कृति को पुर्निजीवित करने के लिए योजनाबद्ध प्रयत्न किये जा रहे हैं। सरकार की शह पर किये जा रहे इन कुकर्मों से देश के भीतर धर्म निरपेक्षता, जो कि स्वतंत्र भारत के संविधान का एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण अंग है, के लिए गंभीर खतरे पैदा हो चुके हैं। यह खतरे अपने अंतिम रूप में, देश की एकता व अखंडता के लिये घातक सिद्ध हो सकते हैं।
इस तरह, मेहनतकश लोगों की मुश्किलों व मुसीबतों में हुई नई बढ़ौत्तरी, देश के भीतर जनवादी मूल्यों को पहुंची गंभीर क्षति तथा धर्म निरपेक्षता के लिये बढ़ रहे और अधिक खतरे ही मोदी सरकार की इस एक साल की कमाई को रूपमान करते हुए दिखाई दे रहे हैं। इसीलिये देश के मेहनतकश लोग आज बुरी तरह ठगे गये महसूस कर रहे हैं तथा इस नई मुसीबत से मुक्ति हासिल करने के लिए तथा साम्राज्यवाद निर्देशित नीतियों व सांप्रदायिक शक्तियों के विरूद्ध नये सिरे से कतारबंदी करने की ओर बढ़ रहे हैं।
पिछले वर्ष हुये संसदीय चुनावों से पहले भी, कार्पोरेट घरानों से मिली अथाह मदद के बल पर, भाजपा ने लोक लुभावन वायदे करने के लिए की गई जोरदार प्रचारबाजी से नये ‘कीर्तिमान’ स्थापित किये थे। कांग्रेस पार्टी की जन-विरोधी नीतियों, भ्रष्टाचार व कुशासन से सताये लोगों को भाजपा ने ‘सबका साथ, सबका विकास’ जैसे भावुक नारों द्वारा बड़े सब्जबाग दिखाये थे। परंतु एक वर्ष के समय के दौरान ही, यह समस्त नारे व वायदे पूर्ण रूप में खोखले व गुमराह करने वाले सिद्ध हो चुके हैं। उदाहरणस्वरूप उस समय वायदा किया गया था कि मंहगाई को घटाया जायेगा। परंतु यह कमर तोड़ महंगाई घटी तो है ही नहीं बल्कि निरंतर बढ़ती ही जा रही है। मेहनतकश लोगों के लिये सबसे सस्ती समझी जाती खुराक अर्थात दलों के दाम भी इस एक वर्ष के दौरान 30 प्रतिशत तक बढ़ गये हैं तथा एक किलो दाल शतक पार कर गई है। मौसमी सब्जियां भी गरीब उपभोक्ताओं को हाथ नहीं लगाने देती। गरीबों की रसोई में प्रयोग की जाने वाली या नित्य प्रति काम आने वाली हर वस्तु ही मोदी सरकार के इस कार्यकाल के दौरान और अधिक मंहगी हुई है। यहां तक कि अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतें प्रति बैरल 125 डालर से घट कर 45 डालर तक आ जाने के बावजूद नरेंद्र मोदी के इस अभागे देश में डीजल व पेट्रोल के दामों में इस अनुपात में कमी नहीं हुई तथा, ना ही इस कमी का महंगाई के आम स्तर पर ही कोई सकारात्मक प्रभाव पड़ा है। मई महीने में ही पेट्रोल की कीमत में 7 रुपए 09 पैसे प्रति लीटर तथा डीजल की कीमत में 5 रुपए 08 पैसे लीटर की बढ़ौत्तरी हुई है। पंजाब की अकाली-भाजपा सरकार तो इस बढ़ौत्तरी से भी संतुष्ट नहीं हुई। उसने इन दोनों वस्तुओं पर एक रुपए प्रति लीटर की दर से एक नया और टैक्स (सैस) लगा दिया है। यहां ही बस नहीं, मोदी सरकार के इस एक वर्ष के कार्यकाल के दौरान रेल किराये-भाड़े, बस किराये, बिजली की दरों, स्कूलों-कालेजों की फीसों-शुल्कों आदि में, हर ओर भी बढ़ौत्तरी हुई है। यही कारण है कि श्री नरेंद्र मोदी द्वारा ‘‘अच्छे दिन आने वाले हैं’’ का आम लोगों के लिये घड़ा गया सुहाना सपना टूट कर चूर-चूर हो चुका है तथा अब एक घिनौने चुटकले का रूप धारण कर चुका है। इस तरह देश में, मेहनतकश जनसमूहों के लिये चारों ओर निराशा के बादल और घने होते स्पष्ट दिखाई दे रहे हैं। परंतु शर्मनाक बात तो यह है कि भारतीय जनता पार्टी व उसके सहयोगी अभी भी ‘जन कल्याण पर्व’ के जश्न मना रहे हैं।
इसी तरह का एक अन्य वादा था-विदेशी बैंकों में जमा काले धन को 100 दिनों के भीतर देश में वापिस लाने का। पर त्रासदी यह है कि 365 दिनों में भी यह वादा पूरा नहीं हुआ। 2009 के संसदीय चुनावों के समय जोरदार ढंग से उभरे इस मुद्दे को वोटों में परिवर्तित करने के लिए भाजपा के नेताओं ने यह वादा भी किया था कि चोरबाजारी, श्वितखोरी व दलाली के रूप में ‘कमाये गये’ अरबों-खरबों रुपए के इस काले धन को देश में वापस लाकर हर नागरिक के खाते में 3-3 लाख रुपए जमा करवा दिये जायेंगे। परंतु सत्ता संभालने के साथ ही इस वादे के प्रति मोदी सरकार का स्वर ही बदल गया तथा विदेशी सरकारों से हुये समझौतों आदि की कानूनी अड़चनों की बहानेबाजी शुरू कर दी गई। अनैतिक ढंग-तरीकों से अर्जित कमाई को रूपमान करते इस काले धन का एक पैसा भी अभी तक वापिस नहीं आ सका है तथा, काले धन के बारे में संसद में पारित एक नये कानून की रौशनी में अब यह अनुमान लगाना भी मुश्किल नहीं कि यह काला धन समूचे रूप में शायद कभी भी वापिस नहीं लाया जा सकेगा तथा भविष्य में भी इस नाजायज पूंजी पर प्रभावशाली अंकुश लगने की कोई अधिक संभावनायें नहीं दिखती।
देश में, करोड़ों की संख्या में रोजी-रोटी के तलाश में दर-दर की ठोकरें खा रहे बेरोजगारों व अद्र्ध बेरोजगारों को भी मोदी सरकार ने बिल्कुल भी कोई राहत प्रदान नहीं की। इन बदनसीबों से चुनावों से पहले किये गये समस्त वादों में से कोई भी वादा वफा नहीं हुआ। देश में ना ओद्यौगिक उत्पादन को प्रोत्साहन मिला तथा ना ही निर्यात बढ़े। दूसरी ओर सार्वजनिक क्षेत्र के ओद्यौगिक संस्थानों व सेवा संस्थानों के निजीकरण की प्रक्रिया और तीव्र हो गई। इसलिये निजी व सार्वजनिक क्षेत्र के ओद्यौगिक प्रतिष्ठानों; सरकारी विभागों (पुलिस व सैना को छोडक़र) बुनियादी सार्वजनिक सेवाओं से संबंधित भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में रोजगार के नये अवसर पैदा होने की तो संभावनायें ही नहीं थी बन सकतीं। इस सरकार ने तो मनरेगा द्वारा गरीब मजदूरों को मिलते रोजगार पर भी नये अंकुश लगा दिये हैं। प्रधानमंत्री द्वारा इसे ‘धन की बर्बादी को मूर्तिमान करती योजना’ का नाम देकर इस योजना का मजाक उड़ाने पर प्रतिक्रियास्वरूप देश भर में उभरे जन-रोष से घबराकर मोदी सरकार ने इस योजना को पूर्ण रूप से बंद करने की तो हिम्मत नहीं की, परंतु इसे कमजोर करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। ना पिछले वर्षों के दौरान किये कार्यों के बकाया वेतनों की अदायगी की जा रही तथा न ही 2015-16 के वर्तमान वर्ष में समस्त जरूरतमंदों को कार्य ही दिया जा रहा है। सरकार की यह भी अपनी रिपोर्ट ही कहती है कि बीते 2014-15 के वर्ष के दौरान इस योजना में, समूचे देश में, किसी भी कार्डधारी को 100 दिवस का कार्य ना मिलने के मुआवजे के रूप में एक पैसा भी बेरोजगारी भत्ते के रूप में नहीं दिया गया।
इसके अतिरिक्त, मोदी सरकार ने 2015-16 के लिये अपने बजट में गरीबी निवारण, देहाती विकास, कृषि आधारित उद्योगों, शिक्षा, स्वास्थ्य, सामाजिक सुरक्षा आदि के लिए रक्खी जाती राशियों को भी घटा दिया है। इस सरकार का यह भी एक बड़ा ‘कारनामा’ है कि इसने लोगों की बुनियादी जरूरतों से संबंधित इन समस्त क्षेत्रों में योजना आयोग द्वारा निभाई जाती भूमिका को भी समाप्त कर दिया है। अब ना रहा बांस ना बजेगी बांसुरी। योजना आयोग को इसलिये समाप्त कर दिया गया है क्योंकि इसमें से मोदी को ‘‘समाजवाद’’ की बू आती थी।
यह भी स्पष्ट है कि बीते एक वर्ष के दौरान मोदी सरकार ने मेहनतकश लोगों को कोई ठोस राहत प्रदान करने की जगह अधिकतर मनमोहन सरकार की जन विरोधी नीतियों को ही जारी रखा है। जिनमें से प्रमुख हैं मुनाफाखोरों को, देसी व विदेशी कंपनियों को तथा कारपोरेट घरानों को पूंजीवादी लूट-खसूट के लिये और अधिक छूटें व रियायतें देनीं तथा प्रशासन के निरंतर बढ़ रहे खर्चों का बोझ आम लोगों पर लादते जाना। इस दिशा में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के लिये और अधिक क्षेत्र खोल दिये गये हैं। यहां तक कि खुदरा व्यापार में भी 52 प्रतिशत तक की विदेशी हिस्सेदारी के लिये रास्ता साफ कर दिया गया है। जिससे इस विशाल क्षेत्र में रोजी-रोटी कमा रहे मेहनतकशों के रोजगार पर घातक प्रभाव की परछाईयां और अधिक घनी हो गई हैं। बीमा क्षेत्र में भी विदेशी हिस्सेदारी की सीमा 26 प्रतिशत से बढ़ाकर 49 प्रतिशत कर दी गई है। रेलवे जैसे विशाल संस्थान व सुरक्षा-उत्पादन के अति संवेदनशील क्षेत्र के सिर पर भी प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की तलवार लटका दी गई है। यह समस्त कदम जन कल्याण के कार्य नहीं, बल्कि रोजगार के संसाधनों को क्षति पहुंचाने की ओर निर्देशित कुकर्म है, जिससे मेहनतकश लोगों का भविष्य और अधिक अंधकारमय हो जायेगा।
कृषि क्षेत्र, देश में लंबे समय से गंभीर संकट का शिकार है। सरकार की अपराधिक अनदेखी के कारण लघु व मध्यम किसान, कृषि धंधे के उपयोगी ना रह जान के कारण कंगाली व कर्ज के घातक जाल में फंस गये है। इस चिंताजनक पृष्ठभूमि में, मोदी सरकार द्वारा कृषि अनुसंधान आदि के लिए पूंजी निवेश करने या कृषि लागतें घटाने के लिये खादों, बीजों, कीड़ेमार दवाईयों व खरपतवार नाशकों आदि की कीमतों में किसानों को कोई राहत प्रदान करने की जगह उनके लिये और नई मुश्किलें पैदा करने का रास्ता अपनाया है। इस दिशा मे्ं सबसे अधिक शर्मनाक है कृषि उत्पादों का समर्थन मूल्य तय करने के मामले में स्वामीनाथन कमेटी की सिफारशें लागू करने के विषय में सरकार की स्पष्ट उलटबाजी। इस विषय में मोदी सरकार किसानों से किये गये वायदे से शरेआम मुकर गई है। साथ ही किसानों की मंडी में होती लूट को और तीव्र करने के लिए, इस सरकार ने एफ.सी.आई. द्वारा खरीद को बड़ी सीमा तक घटा देने व धीरे-धीरे समाप्त कर देने के भी संकेत दे दिये हैं। यह सरकार तो, इस वर्ष बेमौसमी बारिशों के कारण फसलों के हुये विनाश की भी पूर्ति करने से शरेआम मुकर गई थी। परंतु किसानों व अन्य इंसाफपसंद आवाम द्वारा सरकार की इस कठोरता के विरूद्ध चलाये गये व्यापक जन-प्रतिरोध के कारण ही सरकार को अपने घोषित फैसलों से पीछे मुडऩे के लिये मजबूर होना पड़ा। सरकार के इस आपराधिक व्यवहार के कारण किसानों के सिर चढ़े कर्ज की गांठ और अधिक बोझिल हो गई है तथा किसानों द्वारा निराशावश की जाती आत्महत्यायों की दर और बढ़ गई है।
उपरोक्त के अतिरिक्त मोदी सरकार का किसानों पर सबसे बड़ा हमला है भूमि अधिग्रहण कानून 2013 में किसान विरोधी संशोधन करना तथा इस उद्देश्य के लिये किसानों की सहमति को पूरी तरह तो नजरअंदाज कर देना। इस नग्न जोर जबरदस्ती के विरुद्ध देश भर में किसान कड़ा प्रतिरोध कर रहे हैं। परंतु सरकार दीवार पर लिखा पढऩे की जगह समस्त जनवादी मूल्यों को त्याग कर तथा संसद के भीतर भी हो रहे प्रतिरोध को अनदेखा करके इस घोर कुकर्म के लिये शाही फरमानों (अध्यादेशों) का सहारा ले रही है। जिसके कारण किसानों में रोष की ज्वाला दिनों-दिन प्रचंड होती जा रही है। इस पृष्ठभूमि में किसानों को ‘बूंद सिंचाई’ आदि जैसे पुराने नुस्खों से रिझाने व शांत करने के उपाय कितनी सफलता प्राप्त कर सकेंगे?
मोदी सरकार द्वारा इस एक वर्ष के समय के दौरान मेहनतकशों को कोई ठोस राहत प्रदान करने तथा उसकी जीवन स्थितियों को बेहतर बनाने के लिये उठाए गये किसी भी कारगर कदम की रिक्तता में, सरकार द्वारा ‘‘प्रधान मंत्री जनधन योजना’’ को बड़े मसाले लगाकर पेश किया जा रहा है। जबकि यह नारा हर पक्ष में दंभ भरा नारा है। इससे करोड़ों लोगों के बैंक खाते तो खुल गये हैं तथा सरकारी रिपोरटों के अनुसार बैंकों में भी 9-10 हजार करोड़ रुपये की पूंजी भी जमा हो गई है, परंतु इससे आम खाता धारकों को मिला तो कुछ नहीं, ना ओवर ड्राफ्ट द्वारा बिना शर्त कर्ज की सुविधा मिली तथा ना ही एक लाख रुपये के बीमे की गारंटी मिली। यह भी स्पष्ट हो गया है कि, वास्तव में, सरकार की यह एक चाल ही थी-डीबीटी स्कीम को सफल बनाने के लिये। इस स्कीम के अधीन गैस की सबसिड़ी व विद्यार्थियों के वजीफे आदि सीधे उनके बैंक खातों में जरूर जाने लग पड़े हैं। वैसे यह कोई ऐसी नई खोज नहीं है, जिसे कि ‘क्रांतिकारी’ परिवर्तन तक का नाम दिया जा रहा है। पहले भी बहुत से सरकारी व अद्र्ध सरकारी कर्मचारियों तथा मनरेगा स्कीमों में कार्य करने वाले मजदूरों के वेतन उनके बैंक खातों में ही आ रहे हैं। हो सकता है कि इससे निम्न स्तर के खुदरा भ्रष्टाचार पर एक सीमा तक रोक लग जाये परंतु उपरी स्तर के थोक भ्रष्टाचार, जो कि रिश्वत, कमीशनों व दलाली के रूप में चलता है, वह तो भविष्य में भी वैसे ही जारी रहेगा। इस जन धन योजना के बारे में अब यह प्रचार भी शुरू कर दिया गया है कि बैंक खाता खुलने से मेहनतकशों में बचत की आदत बनेगी। लगता है कि इन ‘भद्रपुरूषों’ को यह ज्ञान नहीं है कि बचत तो वह व्यक्ति कर सकेगा, जिसके पास अपनी बुनियादी जीवन जरूरतों की पूर्ति करने के बाद कुछ बचेगा। देश में 70 प्रतिशत लोगों की तो बुनियादी जरूरतें भी बड़ी मुश्किल से भी पूरी नहीं हो रहीं। वे पौष्टिक भोजन भी जुटाने में असमर्थ हैं। अपने बच्चे भी पाल-पढ़ा नहीं पा रहे, तथा बिना इलाज के मरने को मजबूर हैं। वे बचत कहां से करेंगे?
इसी तरह की एक और लिफाफेबाजी है ‘‘स्वच्छ भारत’’ की। इस हवाई नारे के प्रचार के लिये भी बड़ी ड्रामेबाजी की गई है। परंतु आसपास की सफाई के लिये आवश्यक साधन जुटाने, विशेष रूप से शहरों में इसके लिये आवश्यक कर्मचारी भरती करने जैसे वास्तविक कार्यों की अनदेखी करके इस नारे को सफल बनाने की हवाई बातें निरा धोखा साबित हो रही हैं। क्या मोदी सरकार यह नहीं जानती कि गांवों में बसती लगभग एक-तिहाई भूमिहीन आबादी के पास तो अपने घरों में पखाने तक नहीं हैं। गंगा नदी की सफाई की शोशेबाजी भी बड़े जोर-शोर से की गई है चाहे इसे अभी तक भाजपा द्वारा चुनावों के समय लोगों से किये गये सांप्रदायिक व अद्र्ध-सांप्रदायिक वादों के एक अंग के रूप में ही लिया जा रहा है, परंतु आवश्यकता तो देश के समस्त नदी-नालों को साफ रखने तथा पर्यावरण को प्रदूषणमुक्त बनाने की है। इसके लिये सरकारी स्तर पर उपयुक्त संसाधन जुटाने की भी जरूरत है। इससे भी बड़ी जरूरत है ओद्यौगिक कचरे की संभाल व सफाई की जिसके लिये उद्योगपतियों को मजबूर करने की इच्छा-शक्ति तो मोदी सरकार में कहीं भी दिखाई नहीं देती। इसके विपरीत इस सरकार का तो सारा जोर दुनिया भर की कंपनियों से भारत में पूंजी निवेश करवाने पर लगा हुआ है। तथा, इस उद्देश्य के लिये उन्हें सस्ती जमीनें, सस्ती श्रम-शक्ति, कच्चा माल तथा विशाल बाजार उपलब्ध करवाने के साथ साथ पर्यावरण के रख-रखाव संबंधी छूटें देने के आपराधिक वादे खुल्लम-खुल्ला किये जा रहे हैं। प्रधान मंत्री द्वारा इस एक वर्ष के दौरान 18 देशों की की गई यात्रायें वास्तव में इस उद्देश्य की पूर्ति की ओर, स्वदेशी कारपोरेट घरानों की फालतू पूंजी व माल के लिये बाजार ढूंढने की ओर तथा आयातें को बढ़ाने की ओर निर्देशित रही हैं, जबकि पूंजीवादी प्रणाली भी चलंत अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक मंदी की चलते उसे इन समस्त यात्राओं से कोई बड़ी प्राप्ति नहीं हो सकी है।
मोदी सरकार की एक और शोशेबाजी है-बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ। यह कोई नया मुद्दा नहीं है, परंतु सरकार द्वारा इसे मीडिया में प्रचारित भी बहुत किया जा रहा है। जबकि जमीनी हकीकतों कुछ और ही हैं। देश भर में औरतों के मान-सम्मान व सुरक्षा के लिये खतरे निरंतर बढ़ रहे हैं। मोगा आरबिट बस-कांड इसका अति घिनौना रूप है। परंतु औरतों के प्रति संवेदनशीलता में कमी की शिखर यह है कि ऐसी दिल दहला देने वाली घटनाओं के निरंतर बढ़ते जाने के बावजूद श्रमिक औरतों से रात्रि शिफ्ट में काम लेने को कानूनी मान्यता दी जा रही है। अब तो 14 वर्ष से कम आयु के बच्चों से भी काम करवाने को कानूनी मान्यता मिल रही है। सरकार के यह समस्त कदम श्रम कानूनों को मालिकों के पक्ष में विपरीत दिशा में मोडऩा ही नहीं बल्कि यह औरतों व बच्चों की सुरक्षा से भी खतरनाक खिलवाड़ साबित होंगे।
इसी तरह पिछले दिनों ऐलानी गई सामाजिक सुरक्षा से संबंधित तीन योजनायें-प्रधानमंत्री जीवन ज्योति बीमा स्कीम, प्रधानमंत्री जीवन सुरक्षा बीमा योजना तथा अटल पैन्शन योजना भी पहले से चल रही व बड़ी हद तक निरर्थक सिद्ध हो चुकी योजनाओं को ही नये नामों से पेश किया गया है। मोटे रूप में यह जरूर लुभावनी नजर आ सकती हैं परंतु बीमा योजनाओं का पता तो दावों के निपटारों से ही लगता है। यकीनन ही इन योजनाओं के अधीन बैंकों द्वारा स्वाचालित रूप से काटी जाने वाली विशाल राशियां किसी एक या दूसरी निजी बीमा कंपनी के हवाले होंगी, जिनकी दावे निपटाने की दर जीवन बीमा निगम (एल.आई.सी.) के मुकाबले निराशाजनक ही हैं।
विकास के मुद्दे पर चुनाव लडऩे वाली इस सरकार का एक और बड़ा ‘कारनामा’ है विकास की वैज्ञानिक व जन हितैषी धारणा से भद्दा खिलबाड़ करना तथा इस धारणा को बड़ी हद तक जन-विरोधी रूप प्रदान कर देना। विकास का वास्तविक माइना है देश की समस्त आबादी, विशेष रूप से मेहनतकश जनसमूहों के लिये बेहतर व उच्चतर जीवन स्थितियां विकसित करना। जहां हर एक के लिये शिक्षा प्राप्त करने तथा योग्यता के अनुसार गुजारे योग्य कमाई करने के लिये एक समान साधन उपलब्ध हों तथा हरेक को सामाजिक व आर्थिक उन्नति के लिये समान अवसर मिलें। हर मेहनतकश की कमाई सुरक्षित हो तथा वह अपनी बुनियादी जरूरतों की पूर्ति करने तथा अपने परिवार का लालन-पालन करने की अधिक-से-अधिक आजादी का आनंद उठा सके। इस उद्देश्य के लिये सरकारी स्तर पर शिक्षा व स्वास्थ्य सुविधाओं का प्रबंध करना, उत्पादन बढ़ाने के लिये बिजली व ऊर्जा के अन्य साधन विकसित करना, कृषि व सिंचाई सुविधाओं को बढ़ावा, आम मेहनतकशों को नित्य प्रति उपयोग की वस्तुयें उपलब्ध करवाने के लिये सार्वजनिक वितरण प्रणाली का विकास करना, पीने के स्वच्छ पानी की आपूर्ति यकीनी बनाना तथा आवाजाही के भरोसेयोग्य व सस्ते साधन विकसित करना आदि को ही सही माईनों में विकास कहा जा सकता है। यद्यपि मोदी सरकार के लिये विकास का अर्थ इस तरह का ‘सरबत का भला’ नहीं है। उसके लिये तो विकास का अर्थ उद्योगपतियों (कारपोरेट सैक्टर) के लिये अधिक से अधिक सुविधाओं का सृजन करना, उनके लिये आवश्यक हवाई अड्डों, बुलेट ट्रेनों, कारीडोर, बहुमार्गी सडक़ों, आम आबादी से दूर शाही शहरों (स्द्वड्डह्म्ह्ल ष्टद्बह्लद्बद्गह्य) का निर्माण करना है तथा, आगे ऐसे कारपोरेट घरानों द्वारा लोगों के श्रम की कमाई को जायज नाजायज ढंग से लूटकर खड़े किये गये दौलत के अंबारों को आंकड़ों का रूप देकर कुल घरेलू उत्पाद (त्रष्ठक्क) में हुई बढ़ौत्तरी के रूप में दर्शाना ही मोदी सरकार के लिये विकास है। जबकि वैज्ञानिक दृष्टिकोण से इसे पैदावार में बढ़ौत्तरी (त्रह्म्श2ह्लद्ध) तो कहा जाता है, परंतु विकास (ष्ठद्ग1द्गद्यशश्चद्वद्गठ्ठह्ल) नहीं। यह सरकार तो देश की 2 प्रतिशत से भी कम जनसंख्या द्वारा पूंजी बाजार में की जा रही जुएबाजी से बढ़ रहे बी.एस.ई. (बांबे स्टॉक एक्सचेंज) के सूचकांक को भी देश में हो रहे तीव्र विकास के रूप में प्रचारित कर रही है। ‘मेक इन इंडिया’ (रूड्डद्मद्ग द्बठ्ठ ढ्ढठ्ठस्रद्बड्ड) की लिफाफेबाजी की दिशा भी ऐसे ही विकास की ओर है, जो घरेलू, लघु व मध्यम उद्योगों के उत्पादन को खत्म करके उसकी जगह विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा उत्पादन, बढ़ाने के लिये उनके आगे बिनती चिरौरी कर रही है। उनके यहां आधुनिक तकनीकों द्वारा उत्पादन बढ़ाने से कुल घरेलु उत्पाद (त्रष्ठक्क) तो बढ़ सकता है परंतु रोजगार नहीं बढ़ेगा बल्कि और घट जाएगा। ‘मेक इन इंडिया’ के अधीन विदेशी पूंजी ने यहां अधिक से अधिक मुनाफा कमाने (श्वड्डह्म्ठ्ठ द्घह्म्शद्व ढ्ढठ्ठस्रद्बड्ड) के लिए आना है ना कि देशवासियों के सर्वपक्षीय विकास के लिये। जिसका प्रत्यक्ष प्रभाव होगा देश में व्यापक स्तर पर बेचैनी का बढऩा तथा और प्रचंड होना। जन रोष के इस भय के कारण ही मोदी सरकार के इन चारों को अभी बहुराष्ट्रीय कंपनियों की ओर से बहुत ही ठंडा प्रतिउत्तर मिल रहा है।
यहां एक और तथ्य नोट करना भी जरूरी है। मोदी सरकार के इस एक वर्ष के कार्यकाल के दौरान मेहनतकश लोगों की जीवन स्थितियों पर ही बुरा प्रभाव नहीं पड़ा बल्कि देश में भाईचारक एकजुटता पर भी तगड़ी चोट मारी गई है। संघ परिवार द्वारा हिंदुत्व के नारे को तीव्रता प्रदान करने के साथ उसके धर्म आधारित हिंदू राज्य स्थापित करने के प्रतिक्रियावादी प्रोग्राम में भी तेजी आई है। इस उद्देश्य के लिये अल्प-संख्यकों के विरूद्ध जहरीला सांप्रदायिक प्रचार बड़े स्तर पर आरंभ कर दिया गया है। भारतीय जनता पार्टी के नेता व सांसद भी इस तरह के खतरनाक प्रचार का नेतृत्व कर रहे हैं। शिक्षा के भगवांकरण द्वारा तथा मिथिहास को इतिहास के रूप में पेश करके मध्ययुगीन सामंती व सांप्रदायिक संस्कृति को पुर्निजीवित करने के लिए योजनाबद्ध प्रयत्न किये जा रहे हैं। सरकार की शह पर किये जा रहे इन कुकर्मों से देश के भीतर धर्म निरपेक्षता, जो कि स्वतंत्र भारत के संविधान का एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण अंग है, के लिए गंभीर खतरे पैदा हो चुके हैं। यह खतरे अपने अंतिम रूप में, देश की एकता व अखंडता के लिये घातक सिद्ध हो सकते हैं।
इस तरह, मेहनतकश लोगों की मुश्किलों व मुसीबतों में हुई नई बढ़ौत्तरी, देश के भीतर जनवादी मूल्यों को पहुंची गंभीर क्षति तथा धर्म निरपेक्षता के लिये बढ़ रहे और अधिक खतरे ही मोदी सरकार की इस एक साल की कमाई को रूपमान करते हुए दिखाई दे रहे हैं। इसीलिये देश के मेहनतकश लोग आज बुरी तरह ठगे गये महसूस कर रहे हैं तथा इस नई मुसीबत से मुक्ति हासिल करने के लिए तथा साम्राज्यवाद निर्देशित नीतियों व सांप्रदायिक शक्तियों के विरूद्ध नये सिरे से कतारबंदी करने की ओर बढ़ रहे हैं।
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