Friday 2 September 2016

दलितों पर बढ़ रहे जबर को कैसे रोका जाये?

मंगत राम पासला 
तथाकथित गाय रक्षकों दवारा पिछले दिनों ऊना (गुजरात) में मरी हुई गाय की चमड़ी उतार रहे दलित नौजवानों के कपड़े उतार कर लाठियों से की गई बेतहाशा मार-पीट ने देशभर के दलित समाज तथा जनवादी लहर में भाजपा के विरूद्ध एक रोष का तूफान खडा कर दिया है। तकरीबन हर प्रांत में दलित तथा अन्य मेहनतकश लोग इस वहशी जबरो-सितम के खिलाफ सडक़ों पर उतर आए हैं। अल्प-संख्यकों, आदिवासियों, पिछड़ी जातियों के जनसमुहों पर बढ़ रहे अत्याचार सामाजिक राजनीतिक दृष्टिकोण से बेहद चिंताजनक हैं। इन घटनाओं ने पूंजीवादी व्यवस्था के असली अमानवीय चेहरे तथा चरित्र को एक बार फिर जनता के सामने बेपर्दा कर दिया है। पूंजीवादी व्यवस्था मेहनतकश अवाम पर केवल आर्थिक असमानता व निर्धनता के पहाड़ों का बोझ ही नहीं लादती बल्कि हमारे समाज में सदियों से प्रताडि़त शोषित, सबसे सख्त मेहनत करने वाले लोगों पर अवर्णनीय, अकथनीय शरीरिक तथा मानसिक उत्पीडऩ का कुल्हाडा पूरी बेरहमी से चलाती है। कुछ लोग कह रहें हैं कि इस सामाजिक दमन को रोकने के लिये मनुष्य की मानसिक सोच को बदलने की जरूरत है। जबकि कई और सज्जन यह दलील देते हैं कि इस प्रकार के घटनाक्रमों को रोकने के लिये ‘विशेष’ राजनीतिक दल के हाथों में सत्ता की बागडोर दिये जाने से अथवा विशेष धर्म आधारित राज स्थापित करके भिन्न ‘चाल-चरित्र’ का दावा करने वाली संस्था (आर.एस.एस, भाजपा) के राज-भाग को मजबूत करके ही दलित तथा कथित निम्न जातियों से संबंधित लोगों पर हो रहे अत्याचारों को समाप्त किया जा सकता है। वो इस वैज्ञानिक तथ्य की अवहेलना करते हैं कि मानसिक सोच भी किसी समाज की आर्थिक स्थितियों से ही पैदा होती है। जो दल पूंजीवादी व्यवस्था की स्थापना--मजबूती को समर्पित हैं उनसे, समाज में सदियों से प्रचलित ऊंच-नीच, अमीर—गरीब, स्वामी व भू-दास (मालिक-नौकर) के रिश्तों के चलते, उपजी आर्थिक तथा सामाजिक असमानता को समाप्त करने की आशा भी कैसे की जा सकती है? कैसे समाज में शोषक व शोषित के सम्बंध सहज हो सकते हैं? यह मसला किसी एकाध उदाहरण को ले कर तथा संबंधित अपराधियों को हल्की-फुल्की सजायें देने से हल नहीं हो सकता है। आवश्यकता इस व्यवस्था को समझने की है, जिसमें सब से ज्यादा तथाकथित घृणित निम्न स्तर का कार्य करने वाले, समाज (वातावरण) को स्वस्थ तथा साफ रहने योग्य बनाने की महत्वपूर्ण सेवा में (अपने स्वयं की सेहत तथा जीवन सुरक्षा को खतरे मे डाल कर) लगे हुये महाकवि बाल्मीकि,महार्षि रविदास तथा भाई कन्हैया के पैरोकारों को, सब से अधिक जबर तथा जुल्म का सामना करना पड़ रहा है। ऐसा क्यों है? इसके लिये कौन उत्तरदायी है? इस अन्याय, अनाचार व अत्याचार को अलग-अलग ढंग-तरीकों से पुरानी भारतीय संस्कृति (मनुवाद) के गुणगान करके उचित ठहराने का प्रयत्न कौन सी शक्तियां कर रहीं हैं तथा उनके वास्तविक इरादे क्या हैं?              
समुचा मानवीय इतिहास वर्ग-संघर्ष का इतिहास है, जहां दो विरोधी वर्ग एक दूसरे से मिल कर सामाजिक विकास का कार्य भी  करते रहे हैं, परन्तु यह एक दूसरे के विरोध में सघंर्ष भी करते रहे हैं। आवाम के यह दो वर्ग, दास युग में दास व स्वामी , आगे सामंतवादी कालखंड में राजे-रजवाड़े तथा रियाया (सामंत/ जागीरदार तथा मुजारे—हलवाहक ‘कमेरा’-कमीन) के नामों से पुकारे जाते रहे। आज के पूंजीवादी दौर में इनके परिवर्तित नाम पूंजीपति तथा मजदूर हैं। इनका सहयोग सामयिक तथा विरोध सनातन तथा न हल होने वाला है । हमारे देश में सामाजिक विकास के एक पड़ाव पर (स्पष्ट रूप में जागीरदारी व्यवस्था  के अधीन) शोषण का शिकार हो रहे वर्ग में आगे और विभाजन कर दिया गया। यह काम एक खास धार्मिक मर्यादा तथा सामाजिक संरचना में शोषक वर्गों दवारा एक सोची समझी योजना के अधीन किया गया। शोषित लोगों का एक हिस्सा सबसे घृणित समझे जाते काम करते हुये ‘दलितों तथा अछूत’ के नाम से जाना जाने लगा। इस बदनुमा तथा खतरनाक प्रथा को बाद में पैतृक धंधा बना दिया गया। इस काम बंटबारे की दीवारें इतनी पक्की कर दी गईं कि सामाजिक ढांचे तथा आर्थिक नाते-रिश्ते बदलने से भी यह लकीरें मिटने की बजाये और गहरी होती गईं। श्रमिक जन-समुह के इस हिस्से को, जहां उच्च वर्ग तथा तथाकथित उच्च जातियों (शोषक) के अधिकतर लोग नफरत की नजर से देखने लगे तथा उनसे अमानवीय व्यवहार करने लग पड़े, वहीं शोषित जातियों का एक भाग, जो किसी न किसी रूप में उत्पादक साधनों की मालकी (बेशक सीमित ही सही) रखता था, अपने आप को इस दलित तथा पिछड़े समाज के मुकाबले में अलग तथा श्रेष्ठ समझने लगा। मजबूरीवश साधनहीन दलित तथा कथित निम्न जातियों से संबंधित जन समुहों ने इस स्थिति को कबूल कर लिया तथा वे इस अमानवीय जीवन में जिंदा-जीवित रहने में ही संतोष करके बैठ गये।                                  
यह भी एक सच्चाई है कि इन दबे-कुचले तथा अछूत समझे जाते लोगों से हो रही ज्यादतियों, अमानवीय व्यवहार के खिलाफ सचेत महापुरूषों तथा मेहनतकशों के कई  नेताओं ने जोरदार आवाज बुलन्द की तथा जन प्रतिरोध भी संगठित किये। गुरू नानक देव जी, गुरू रविदास जी, भक्त कबीर जी, बाबा ज्योतिबा फूले, रामास्वामि नाईकर (पेरियार) बाबा साहिब बी.आर अंबेदकर, कामरेड ई.एम.एस.नंबुदरीपाद तथा कामरेड पी. सुन्दरैया जैसे महापुरूष तथा जननायक इस रूप में सब से अधिक आदरणीय समझे जाते है। समानता तथा सांझीवालता की समर्थक विचारधारा-माक्र्सवाद-लेनिनवाद के अनुयाईयों ने भी इस जाति-प्रथा के विरूद्ध कई इलाकों में जोरदार आवाज बुलन्द की थी तथा आन्दोलन करके कई कुरीतियों को दूर करने में एक सीमा तक सफलता प्राप्त की। परन्तु इस रोग की जडें़ जितनी गहरी हैं उस अनुसार इसका इलाज आज पूंजीवादी व्यवस्था में आसान नहीं। पूंजीवादी व्यवस्था के विकास के दौर में इस व्यवस्था के समर्थकों दवारा अपनी आवश्यकता की पुर्ति के लिये ‘आजादी, समानता, भातृत्व भाव’ जैसा प्रगतिशील उद्घोष बुलन्द किया गया, परन्तु इसके बाबजूद भी दलित समाज पर हो रहे सामाजिक अत्याचारों में कमी होने की बजाये वृद्धि ही हुआ। यहां यह बात भी नोट करने योग्य है कि यह ऊंच-नीच, जाति-प्रथा आधारित व्यवस्था तथा अछूत श्रेणियों के साथ घोर अन्याय करने वाली सामाजिक व्यवस्था सिर्फ तथा सिर्फ भारतीय उपमहादीप में ही मौजुद है, संसार भर में और कहीं नहीं, जात-पात का भेद ऋषि-मुनियों के इस ‘महान भारतवर्ष’ की ही विशेषता है।                                
अलग-अलग दलित नेताओंं, समाज-सुधारकों तथा क्रांतिकारियों दवारा किये गये सदप्रयासों से इन समूहों को कुछ राहत तथा सुविधाऐं जैसे आरक्षण, जातिसूचक शब्द बोलने की मनाही, बच्चों को छात्रवृति आदि प्राप्त हूई हैं। इन सहूलतों के कारण एक बहुत छोटे से हिस्से को कुछ लाभ भी हासिल हुआ है। यदि आरक्षण की सुविधाऐं न होती तो भ्रष्ट तथा पैसे के प्रभाव वाली चुनाव प्रक्रिया के कारण शायद ही कोई विरला दलित अथवा अछूत विधायक चुनाव जीत पाता। सरकार में मन्त्री बनना तो असम्भव ही होता। महंगी उच्च शिक्षा प्राप्त करके सरकारी अफसर, डाक्टर इन्जीनीयर बन पाना सपना ही रह जाता। दलितों तथा पिछडी श्रेणियों से संबंधित लोगों के एक छोटे से हिस्से ने इन सुविधाओं का इस्तेमाल करके शिक्षा प्राप्त कर अपनी सामाजिक-राजनीतिक चेतना तथा जागरूकता में इजाफा किया है। बेशक यह वृद्धि अभी भी उस वर्गीय चेतना के उस स्तर से कम है, जिसने इस समाज को हर किस्म के शोषण तथा सामाजिक उत्पीडऩ से सदा-सदा के लिये मुक्ति दिलवानी है।  यह सारा कुछ होने के बावजूद भी समुचे दलित भाईचारे अथवा कथित निम्न जाति के लोगों को न तो मनुष्य जीवन व्यतीत करने योग्य आर्थिक संसाधन प्राप्त हुए हैं न ही सामाजिक उत्पीडऩ से निजात मिली है। जात-पात के भेद तथा ज्यादतियों से बचने के लिये ‘धर्म परिवर्तन’ भी दलित समाज की कष्टकारी जिन्दगी में कोई सुख का रंग नहीं भर सका।    
पूंजीवादी व्यवस्था के अधीन आज जब ऊंची जातियों के लोग तथा उत्पादन साधनों के मालिक दलितों तथा नीची जातियों के तौर से जाने जाते लोगों पर घोर सामाजिक दमन तथा भेदभाव कर रहे हैं, तब कुछ राजनीतिक दल तथा सामाजिक संगठन दलितों को विशुद्ध दलितों के नाम पर संगठित कर रहे हैं,। वे, आम तौर पर, इस हो रहे स्पष्ट अन्याय  का हल किसी दलित अथवा निम्न जाति से सम्बंधित किसी व्यक्ति अथवा व्यक्तियों के समुह की सरकार बनने में तलाश करते हैं। यदि कोई व्यक्ति /संस्था दलितों तथा अन्य पिछड़े लोगों को इक्टठे करके उनकी किसी उचित मांग की प्राप्ति के लिये संघर्ष करती है तो यह सराहनीय है। परन्तु ऐसे व्यक्ति अथवा राजनीतिक संगठन मौजूदा लुटेरे प्रबन्ध में दलितों को जाति-पाति भेदभाव, सामाजिक जबर तथा आर्थिक लूट-खसूट से छुटकारा नहीं दिलवा सकते। इसके विपरीत, दलितों तथा पिछड़े वर्गों के बाकी मेहनतकश लोगों से अलग अथवा विरोध में बने संगठन यदि इक्टठे हो कर सारी बिमारियों तथा भेदभाव की वास्तविक जड़े  ‘पुंजीवादी’ ढांचे के विरूद्ध नहीं संघर्ष करते तथा इसे बदल कर समाजवादी व्यवस्था की स्थापना हेतु आगे नहीं बढ़ते, तब तक इस प्रताडि़त जनसमुह का कोई भला होने की जगह शोषक पूंजीवाद की आयु ही दीर्घ होगी। शोषित-प्रताडि़त लोगों की सांझी लड़ाई, सामाजिक विकास की वैज्ञानिक विचारधारा तथा अनुशासनबद्ध क्रांतिकारी संगठन ही ऐसी दासता की जंजीरों में जकड़े तमाम आवाम की आजादी का राह खोल सकते हैं।
क्रांतिकारी तथा वामपंथी शक्तियों को अपनी इस समझदारी पर भी पुन: विचार करने की आवश्यकता है कि जाति-पाति भेदभाव तथा सामाजिक उत्पीडऩ, पूंजीवाद के बाद समाजवादी व्यवस्था में अपने-आप समाप्त हो जायेगा। सामाजिक परिवर्तन के लिये पहले, सामाजिक उत्पीडन का सब से ज्यादा शिकार लोगों को संगठित करके संघर्ष करना होगा तथा उन का विश्वास जीतना होगा। दलितों पर हो रहे दमन का मुकाबला करने का उत्तरदायित्व सिर्फ दलित संगठनों अथवा दलित नेताओं का ही नहीं, बल्कि समुचे लोकतांत्रिक आंदोलन तथा इसके नेतृत्व पर ज्यादा है। यह एक बहुत ही महत्वपूर्ण, दीर्घ काल तक अनवरत चलने वाला दृढ़ता भरा संघर्ष है, जिसके महत्त्व व महानता का अहसास अभी तक प्रगतिशील आंदोलन नहीं कर पाया है। वास्तविक परिवर्तन के लिये क्रांतिकारी आंदोलन के केन्द्र के रूप में, दलितों, पिछड़ी जातियों से सम्बधित श्रमिक वर्ग के लोगों, मजदूरों, खेत मजदूरों, गरीब व छोटे किसानों, कारीगरों को एकजुट हो कर काम करना होगा। समाजवादी व्यवस्था की स्थापना के उपरान्त भी, कुछ समय तक, सारे समाज को दलितों तथा पिछड़ी जातियों के लोगों के अधिकारों की ओर विशेष ध्यान देना होगा।                     
आज जब कि देश में आर.एस.एस (संघ परिवार) की विचारधारा को समर्पित राजनीतिक पार्टी भाजपा के हाथों में सत्ता आ गई है, जो देश में स्थापित, धर्म-निरपेक्ष, जनवादी तथा भातृभाव वाले ढांचे को बदल कर एक धर्म आधारित देश (ञ्जद्धद्गशष्ह्म्ड्डह्लद्बष् ह्यह्लड्डह्लद्ग) बनाने के मनहूस उद्देश्यों को हासिल करने के लिये पूरे जोर से योजनाबद्ध होकर काम कर रही है, तब उसका मुख्य उद्देश्य यहां जनवादी तथा प्रगतिशील आंदोलन को तबाह करना है, वहीं अल्प संख्यकोंं, दलित, अछूत समझी जाती जातियां, आदिवासी तथा औरतें भी उसके निशाने पर हैं। इसलिये मोदी की केन्द्रीय सरकार दवारा डा. बी.आर अंबेदकर का मंत्रजाप करने तथा औरतों को अधिक अधिकार तथा सुरक्षा देने के पाखंड भरपूर नारों के साथ साथ दलितों को मनुवादी व्यवस्था के कायदे कानूनों के अनुसार दमन का निशाना बनाया जा रहा है तथा औरतों पर अत्याचारों में ढेरों ढेर इजाफा हुआ है। जब नरेन्द्र मोदी की सरकार ने प्रतिक्रियावादी विचारधारा, रूढीवादी गलत परम्पराओं तथा गैर वैज्ञानिक शिक्षा का प्रसार करने की योजना बना ली है, तब उसमें मनुस्मृति के कायदे-कानूनों का लागु होना लाजमी है, जिसमें दलितों पर सामाजिक उत्पीडऩ, छूतछात, औरतों की गुलामी आदि अपने आप शामिल है। केवल ऊना (गुजरात) में ही कथित गाय रक्षकों द्वारा गरीब दलितों की मार-मार कर चमड़ी नहीं उधेड़ी गई, संघ परिवार के गुंडे, जहां उनका मन करता है, धर्म के नाम पर बेगुनाह लोगों के विरूद्ध हर तरह का अत्याचार करते हैं। जब केन्द्रीय सरकार दवारा उदारीकरण तथा विश्वीकरण के पर्दे में समूची अर्थव्यवस्था का निजीकरण किया जा रहा है, तब भारतीय संविधान में दलितों, पिछड़े वर्गों तथा आदिवासी लोगों के लिये आरक्षण अथवा विशेष अधिकारों की व्यवस्था अपने-आप ही अर्थहीन हो जाती है। क्योंकि निजी कम्पनियां तथा कारपोरेट घराने तो अपने मुनाफे को बढ़ाने बारे में ही सोचते हैं, वो आरक्षण की नीति को पसन्द नहीं करते। कितना धोखेबाज है ‘संघ परिवार’, जो बाबा साहिब डा. बी आर अम्बेदकर जी का गुणगान करते हुये उनके दवारा दलितों तथा पिछड़े लोगों के भले के लिये थोड़े बहुत बनाये कानूनों को ही खत्म कर रहे हैं। संघ परिवार, मूल रूप में, सामराज्यवाद का समर्थक तथा दलित, पिछड़े वर्ग तथा समुचे मेहनतकश लोगों का शत्रु है।       
इस स्थिति से बाहर निकलने के लिये जहां दलित जन समुहों के लिये वर्ग चेतना तथा एकता जरूरी है, वहीं जनवादी तथा वाम आंदोलन को भी दलित प्रश्नों को अपने अन्य प्रश्नों की तरह ही उठाना होगा तथा इन मुददों पर संघर्ष संगठित करने होंगे। ऐसा करते हुये दलितों पर होती किसी किस्म की ज्यादती का विरोध जनवादी आंदोलन का अहम मुददा बनाने की आवश्यकता है। दलितों, पिछड़े वर्गों को भी इस पक्ष से सचेत करना होगा कि असल लड़ाई पैदावार के साधनों पर सामूहिक कब्जे तथा पैदावार के न्यायपूर्ण बंटबारे की है, जो समाजवादी व्यवस्था में ही सम्भव है। जात-पात आधारित राजनीति अथवा किसी जाति के मर्द अथवा औरत का राज-सत्ता पर काबिज हो जाना समस्या का हल नहीं है। तर्जुबे के तौर पर देश का दलित राष्ट्रपति,उपराष्ट्र्रपति, केंद्रीय व राज्य सरकारों के मंत्री व उत्तरप्रदेश में कुमारी मायावती का चार बार मुख्यमंत्री की कुर्सी पर विराजमान होना देश तथा प्रांत में दलितों, पिछड़े वर्गों के लोगों की जिन्दगी में कोई सार्थक परिवर्तन नहीं ला सका। सामाजिक परिवर्तन के बारे में वैज्ञानिक चेतना सचेत रूप में, जातिवादी नेताओं तथा राजनीतिक दलों दवारा, दलित समाज में लाने का कोई जरूरी व सार्थक प्रयास सचेत रूप में कभी नहीं किया जाता। क्योंकि उन नेताओं तथा जाति आधारित दलों का अंतिम निशाना दलित समाज की सहायता से राजसत्ता पर कब्जा करने तक सीमित है। वास्तविक सामाजिक परिवर्तन उन का लक्ष्य नहीं है। हमारा, (जनवाद में यकीन रखने वाले मेहनतकश वर्ग का) प्रयत्न यह होना चाहिये है कि दलितों, पिछड़ों तथा महिलाओं पर हो रहे अत्याचारों के विरूद्ध विशाल से विशाल लामबंदी के साथ-साथ उनमें वैज्ञानिक वर्गीय चेतना का दीपक भी जलाया जाये, जिसने अंतिम रूप में, बाकी समाज के मेहनतकश लोगों की तरह सदियों से सामाजिक अत्याचार तथा अन्याय का शिकार हो रहे दलित समाज को भी वास्तविक आजादी तथा समानता भरपूर जिन्दगी प्रदान करनी है।
अनुवादक : सुदर्शन कंदरोड़ी

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