Friday 11 March 2016

आम आदमी पार्टी का वर्गीय दृष्टिकोण

मंगत राम पासला

कांग्रेस पार्टी (यू.पी.ए.) और वर्तमान भाजपा (एन.डी.ए.) के नेतृत्व वाली केंद्रीय सरकारों की जनविरोधी नीतियों से आम जन, विशेषकर आर्थिक रूप से निचोड़े व लूटे जा रहे जनसमूह अत्यंत दुखी एवं परेशान हैं। जिस गति से महंगाई, बेकारी, गरीबी व भ्रष्टाचार बढ़ रहा है उस से पूरे देश के आम लोग त्राहि-त्राहि कर उठे हैं। उधर तेज ‘आर्थिक वृद्धि’ एवं ‘अच्छे दिन आने वाले हैं’ जैसे धोखेपूर्ण शब्द-आडंबरों द्वारा शासकों ने इतनी धुंद बिखेर दी है कि लोग पूर्णतय: ठगे हुए महसूस कर रहे हैं। लोग इस मकडज़ाल से निकला चाहते हंै। किन्तु नग्न सत्य यह भी है कि श्रमिक आबादी की बहुत भारी संख्या अभी भी इस मंदहाली के मूल कारणों को समझने में पूरी तरह असमर्थ है। वह कभी इस मंदहाली का कारण अपनी बुरी किस्मत समझ कर बेबस हो बैठ जाते हैं, या फिर एक किस्म की शासक पार्टी का पल्लू छोड़ दूसरी का जा पकड़ते हैं। जबकि यह एक अटल सत्य है कि शासक वर्गों के सभी दल व उनके नेता एक जैसे ही वर्ग चरित्र के होने के कारण एक जैसे ही कार्यकलापों में लिप्त रहते हैं।
इन हालात में शासक वर्गों की सरकारों के विरुद्ध लोगों में पनपे रोष को भांपते हुए, संसार व देश में, कार्पोरेट घराने एवं उन के हितों के रक्षक राजनीतिक दल, सुचेत रूप में यह जुगाड़ लगाते हैं कि लोगों में व्याप्त रोष कहीं क्रान्तिकारी परिवर्तन की ओर न मुड़ जाए। इस उद्देश्य की पूर्ति हेतु शासक वर्ग हर संभव प्रयत्न करते हैं कि लोगों के गुस्से का प्रगटावा ऐसे तरीकों से हो कि लोग अपने मन की भड़ास तो निकाल लें किन्तु यथास्थिति में ही फंसे रह कर फडफ़ड़ाते रहें। इस कुकृत्य की सफलता हेतु सरकारी प्रचार माध्यम चौबीसों घंटे पूंजीवाद का महिमामंडन एवं समाजवाद की भौंडी निंदा में लगे रहते हैं।
स्वतंत्रता प्राप्ति से अब तक हमारा देश पूंजीवादी विकास माडल पर चलते हुए विभिन्न पूंजीपति भूमिपति शासक वर्गीय दलों की जकड़ में रहा है। इस पूरे अर्से में वामपंथी दलों ने लोगों के हितों की रक्षा हेतु एवं शासकों की जनविरोधी नीतियों विरुद्ध अतुलनीय बलिदान देेते हए संघर्ष लडक़र शानदार प्राप्तियां भी की हैं। किन्तु यह भी सत्य है कि भारतीय आबादी के बड़े भागों को वामपंथी दल पूंजीवाद राजसत्ता खिलाफ वैचारिक एवं राजनैतिक संग्रामों में लाने हेतु संगठित नहीं कर सके हैं। इसी अभाव में केंद्र एवं प्रांतों में नये-नये राजनैतिक दल जन्म लेते राजसत्ता पर काबिज होते रहे हैं क्योंकि ये सभी दल शासक वर्गों के प्रतिनिधि के कारण यथास्थिति बनाये रखते हैं या यूं कहें कि मूल क्रांन्तिकारी परिवर्तन से जनता के बड़े भागों को रोके रखते हैं। इसलिए शासक वर्ग इन से कतई नहीं घबराते एवं इन दलों के पनपने व विकास करने में सहायक ही बनते हैं। इस के विपरीत वामपंथी एवं कम्युनिस्ट ऐसी राजसत्ता की दिशा मेें आगे बढऩा चाहते हैं जहां पर किसी को पूर्णत: बराबर के अधिकार प्राप्त हों एवं किसी किस्म की लूट या शोषण न हो इसलिए कम्युनिस्टों का आगे बढऩा साधारणतय: आसान नहीं होता एवं शासक वर्ग भी उनको आगे बढऩे से रोकने हेतु संभव प्रयत्न करते हैं। पूंजीवादी दलों के नेतागण समान रूप से शोषक वर्गों के हित रक्षक एवं प्रतिनिधि होने के कारण बड़ी आसानी से दलबदली जैसे घृणित कार्य में लगे रहते हैं एवं ऐसा करते हुए उन्हें कभी कोई झिजक या ग्लानी भी महिसूस नहीं होती।
ठीक इसी पृष्ठभूमि में, एक ओर जहां स्थापित पूंजीवादी दलों द्वारा लागू की जा रही नीतियों, चहुं ओर फैला भ्रष्टाचार लोगों के हितों की पूर्णत: अनदेखी के चलते लोगों में पसरी उदासीनता एवं समाजवाद की स्थापना हेतु कार्यरत वाम दलों की लोगों को सत्ता परिवर्तन की दिशा में संगठित करने के ऐतिहासिक कार्य में नाकामी के चलते ‘‘आम आदमी पार्टी’’ यानि ‘आप’ का जन्म हुआ।
साम्राज्यवादी देशों एवं बहुराष्ट्रीय कार्पोरेशनों की हर किस्म की सहायता से लैस देश विदेश में क्रियाशील गैर सरकारी संगठनों (हृत्रह्रज्ह्य) ने ‘आप’ के उभार में अभूतपूर्व योगदान दिया। बेकारी, भ्रष्टाचार, एवं शासक दलों के कुप्रबंधों से ग्रस्त मध्यवर्ग सोशल मीडिया एवं अन्य प्रचार साधनों से प्रभावित हो ‘आप’ की तरफ खिंचा चला गया व इन्हें ‘आप’ की मजबूती में अपनी आकांक्षाओं की पूर्ति के सपने सच होते नजर आने लगे। यह भी एक सत्य है कि ‘आप’ के नेतागण शुरू से ही सुचेत रूप में मौजूदा पूंजीवादी ढांचे एवं नवउदारवादी नीतियों का समर्थन करते रहे हैं। किन्तु अपने कार्यकलापों में वामपंथी लफ्फाजी का इस्तेमाल करते रहे हंैं। ‘आप’ के इस ढर्रे के काम-धाम से पढ़े लिखे लोगों को अपनी समस्याओं का वामपंथियों द्वारा सुझाया गया समाधान ‘आप’ के जरिये पूर्ण होता नजर आया। इसी वजह से बहुत से निराश एवं गैर सरगर्म वाम झुकाव वाले बुद्धिजीवियों, कलाकारों एवं मध्यम वर्गीय मानसिकता से परिपूर्ण लोगों ने आप के हक में जनमत जुटाने एवं मजबूत करने में भरपूर योगदान दिया।
सी.पी.एम. पंजाब व सी.पी.एम. हरियाणा ने ‘आप’ के इस उभार को सकारात्मक रूझान मानते हुए कांग्रेस एवं भाजपा की जनविरोधी नीतियों के विरुद्ध लोगों की बुनियादी जरूरतों की पूर्ति हेतु  सांझा संग्राम निर्मित करने के इरादे से ‘आप’ के नेताओं से संपर्क भी साथा था। हमें ‘आप’ के वर्ग चरित्र के बारे में कोई संदेह नहीं था, किन्तु ‘आप’ नेताओं ने जिस प्रभावी ढंग से श्रमिक वर्गों के लिये मुफ्त पानी, बिजली, ठेका आधारित कर्मियों को पक्का करने, एवं भ्रष्टाचार के विरुद्ध आवाज उठाई हमने इसका वाजिब नोटिस लिया। दर हकीकत हम हर रोज इन्हीं मुद्दों पर पल-पल यथाशक्ति पहले से ही संघर्षरत हैं। हमारा उद्देश्य जन संग्रामों के पक्ष में बन रहे माहौल का भरपूर सहृदयता से इस्तेमाल करने का था।  किन्तु अपनी वर्गीय एवं व्यवहारिक दुर्बलताओं के चलते ‘आप’ नेताओं ने हमारी सकारात्मक पहल को पूर्ण रूप से नकार दिया। उन्होंने बहुत ही दंभी एवं अहंकारपूर्ण रवैये पर चलते हुए यह शर्त लगाई कि लोगों की भलाई का इच्छुक कोई भी दल या व्यक्ति बिना शर्त आप में विलय कर ले। बड़े ही अहंकारी ढंग से यह भी प्रचार किया गया कि ‘आप’ के अलावा कोई भी लोक-कल्याणकारी, जनवादी व ईमानदारी से परिपूर्ण नहीं है।
‘आप’ नेताओं ने आरंभ से ही वाम या दक्षिण पंथी होने की बात को सिरे से नकार दिया। इतना ही नहीं किसी के भी ईमानदाराना बलिदानों की हठपूर्ण अनदेखी करते हुए संघर्षों या चुनावों में किसी भी साथ चलने से मुकम्मल इनकार किया। ऐसा सीधी सीधे कारर्पोरेट घरानों के दबाव के तहत किया गया। किसी भी तरह की वैचारिक प्रतिबद्धता से इनकार करने का अर्थ ही शासकीय ढांचे का अंग होना है।
इसी दोषपूर्ण परिपाटी के चलते ‘आप’ ने सभी के हितों में कार्य करने का हास्यपूर्ण सिद्धांत पेश किया। किन्तु मुसीबतों से मुक्ति पाने की चाहत रखने वाले वंचितों के लिये यह परिभाषा बहुत दुखद है। इस पहुंच पर चलते हुए आप ने न केवल कार्पोरेट घरानों से मोटी रकमें चन्दे के रूप में वसूल कीं बल्कि लोक सभा व अन्य चुनावों में उम्मीदवार बनाते वक्त नवउदारवादी नीतियों के मुखर समर्थकों को भी टिकटें दीं। लोक सभा चुनावों में पंजाब की चार सीटों पर जीत हासिल करने के अलावा ‘आप’ को कभी भी कोई सफलता नहीं मिली। ‘आप’ नेतागण पूंजीवादी वर्गों के दूसरे हिस्सों से भिन्न-भिन्न लाभ भी लेते रहे। इसके पश्चात दिल्ली विधान सभा चुनाव में अरबपतियों एवं झुग्गी झोंपडिय़ों में गुजर बसर करने वालों  के अधिकारों की एक समान रक्षा करने, भ्रष्टाचार समाप्त करने, बेघरों को घर, पानी एवं बिजली उपलब्ध करवाने, कर्मचारियों को पक्का करने, औरतों की सर्वत्र-संपूर्ण सुरक्षा करने, बसों में, सी.टी.वी. कैमरे लगवाने आदि आदि जैसे समस्त भरमाए जाने वाले वायदे किये जो गाहे बगाहे अन्य पूंजीवाद, जागीरदार दलों के सभी नेता लोगों से हमेशा करते रहते हैं। इस के साथ ही ‘आप’ नेताओं का बड़ा भाग राजनैतिक क्षेत्र में पहली बार दृष्टिगोचर होने का लाभ लेते हुए, इसलिये ‘आप’ कुन्बा कम से कम वेतन लेते हुए ईमानदारी से जन सेवा का वायदा करके भी लोगों को लुभाने में सफल रहा। चुनाव जीतने के बाद विधायकों के वेतन एवं भत्तों में पर्वतीय आकार की वृद्धि (लगभग 400 प्रतिशत) करने मात्र से ही ‘आप’ की कथना-करनी के फर्क के बारे में सभी भ्रम दूर हो गये हैं। लोग समझने लगे हैं कि सादगी के बारे में बढ़-चढ़ कर बोलना एवं उस पर हूबहू अमल करना दोनों अलग अलग चीजें हैं।
अरविंद केजरीवाल व दूसरे ‘आप’ नेताओं द्वारा प्रमुख ओद्यौगिक संगठनों की बैठकों में बोलते हुए यह कहना कि ‘आप’ पूंजीवादी प्रबंध की पूर्ण समर्थक होने के नाते संसारीकरण,  उदारीकरण, निजीकरण की उन नीतियों को पूर्णत: समर्थन देगी जिनके चलते बिजली, पानी, रेलवे, यातायात, शिक्षा, सेवाओं का निजीकरण करते हुए उन्हें देशी-विदेशी धन कुबेरों के हाथों में सौंपा जा रहा है। उन्होंने यहां तक आश्वासन दिया कि उनके वाम शैली के शब्द आडंबरों को गंभीरता से न लिया जाए।
कुल मिला कर बात यह है कि पढ़े-लिखे नौजवान युवक-युवतियों ने दिल्ली विधान सभा चुनाव में ‘आप’ का साथ दिया। कांग्रेस पार्टी का जनाधार भी भाजपा को हराने के लिए एवं अपने उज्जवल भविष्य की कामना में केजरीवाल की गाड़ी चढ़ बैठा। चुनावों में प्रचार के लिये मोटी रकमें खर्च करने के मामले मेें ‘आप’, कांग्रेस एवं भाजपा में से कोई भी कमतर नहीं रहा। अंतत: दिल्ली विधानसभा चुनाव में ‘आप’ को अभूतपूर्व सफलता मिली।
किन्तु देखने-समझने का विषय यह है कि एक साल से अधिक समय बीतने के पश्चात भी लोगों को मुफ्त बिजली पानी देने, अनाधिकृत कालोनियां नियमित किये जाने और विभागीय अस्थाई कर्मचारियों को स्थाई किये जाने आदि जैसे गरीब जनता को बड़ी राहत प्रदान करने वाले वादों को पूरा करने की दिशा में रत्ती भर भी प्रगति नहीं हुई। हालाकि हम यह बात बेझिझक मानने को तैयार हैं कि केंद्र की भाजपा नीति मोदी सरकार दिल्ली की ‘आप’ सरकार के कामकाज में दुभार्वना से बेवजह अडंग़े लगा रही है। किन्तु यह भी नग्न सत्य है कि केजरीवाल सरकार अपनी असफलताओं और अक्षमताओं को छिपाने के लिये केंद्र से टकराव को बेवजह तूल दे रही है और लोगों का ध्यान हटाने के लिये टाला जा सकने वाला टकराव भी जानबूझ कर खड़ा कर रही है। कटोचने वाली बात यह है कि दूसरे दलों को भ्रष्ट एवं अलोकतांत्रिक कहने वाले अरविंद केजरीवाल ने केवल एक ही बार ‘अपनी’ ‘आप’ की उच्चस्तीय समिति की बैठक बुलाई है; उस में उन्होंने स्वयं ही पूरा समय भाषण कर दूसरों को नसीहतें दीं तथा अंत में विरोधी राय रखने वालों को केवल ल_मारों की सहायता से ‘भीतरी लोकतंत्र’ का पाठ ही नहीं पढ़ाया गया बल्कि सदा-सदा के लिए बाहर का रास्ता भी दिया गया। मूल प्रश्न यह है कि पूंजीवादी ढांचा, जो खुद-ब-खुद भ्रष्टाचार एवं लूट पर आधारित है, की हिमायती कोई भी पार्टी, लोगों की मूलभूत समस्याओं का समाधान नहीं कर सकती। यहां यह समझना अति आवश्यक है कि पूंजीवाद एवं समाजवाद एक दूसरे विरोधी सत्ता प्रबंध है। पूंजीवाद अरबों लोगों की लूट करते हुए मु_ी भर को धनवान बनाता है। वहीं समाजवाद पूरी पैदावार को पूरे समाज की पैदावार मानते हुए इसका समान वितरण करने को प्राथमिकता देता है। ‘आप’ की सारी सीमाएं यहीं निहित हैं। लोगों को भ्रमित करने हेतु ‘आप’ ने तो विकसित पूंजीवादी देशों जैसे अमरीका, ब्रिटेन, जर्मनी, फ्रांस आदि के भागों के उच्च जीवन स्तर की उदाहरणें देते हैं। किन्तु ये महाशय यह भूल जाते हैं कि इन अमीर देशों के शासक वर्ग सभी गरीब देशों के लोगों की खून पसीने की गाढ़ी कमाई एवं अति कीमती कुदरती संसाधनों की लूट करके अपने देश की आबादी को शांत रखने का इंतजाम करते हैं। हालाकि अब लूटे जा रहे देशों के लोग भी अमीर या साम्राज्यवादी देशों की इस लूट के विरूद्ध उठ खड़े हो रहे हैं। जिस दिन यह (अमीर देशों द्वारा गरीब देशों की) लूट बंद हो गई उस दिन वहां के शासक अपने देशों की प्रजा का अपने मुनाफे के लिये खून चूसने वाले पिशाच बन जाएंगे। अंतत हम साफ साफ यह कहना चाहते हैं कि पूंजीवादी व्यवस्था को न केवल कायम रखते हुए बल्कि और सुदृढ़ करते हुए लोगों की मूलभूत समस्याओं का हल करने का दावा केजरीवाल जैसे दंभी ही कर सकते हैं।
सी.पी.एम.पंजाब द्वारा ‘आप’ के गठन के समय इसे शुभ संकेत कहना किसी अंतर्मुखी सोच या भ्रम की उपज नहीं था। अपितु यह कांग्रेस-भाजपा या अन्य पूंजीवादी दलों की नीतियों से उपजे वाजिब जनरोष को प्रगतिशील एवं क्रांतिकारी धारा में परिवर्तित करने की ठीक नीयत पर आधारित था। अब जब अपने शासन-प्रशासन चलाने के तौर तरीकों एवं अलोकतांत्रिक तौर-तरीकों से ‘आप’ ने अपना असली रूप स्वंय ही प्रस्तुत कर दिया है तो हम अन्य पूंजीवादी दलों की तरह ‘आप’ की कार्यशैली एवं वर्गचरित्र को भी आवाम के सामने रखने के आवश्यक कार्य को पूरी दृढ़ता से निभाएंगे।
हम ‘आप’ की ओर आशा की दृष्टि से देखने वाले लोगों के ध्यान में एक तथ्य अवश्य लाना चाहेंगे। दूसरी पूंजीपति पार्टियों में रहकर अनेक निर्वाचित या मनोनीत पदों पर रहते हुए लोगों की बेतहाशा लूट करने वाले राजनैतिक हैवान, जिनमेें से कुछ ने तो पंजाब में चले काले दौर में पृथकतावादी आंदोलन में भी चांदी कूटी थी आज ‘आप’ में शामिल होकर कैसे रातो-रात दूध के धुले स्वच्छ जन सेवक बन जाएंगे? इस तरह भूतपूर्व पुलिस व प्रशासनिक अधिकारी जिन्होंने जीवन भर काली कमाईयां करते हुए अपने पूंजी साम्राज्य खड़े किये हैं कैसे अचानक लोगों के लिये कामधेनु बन जाएंगे। वैसे कई लोगों के माथे पर बल पड़ भी रहे हैं यह सब देखकर और यह देखकर कि कैसे ‘आप’ की सरकार ने अपने विधायकों-मंत्रियों के तनख्वाहों/भत्तों में विशाल वृद्धि की है।
देश का पूंजीवादी वर्ग हमेशा यह चाहेगा कि उसकी हित रक्षक कांग्रेस-भाजपा या अन्य दलों से नाराज लोग किसी प्रगतिशील परिवर्तनशील धारा या दल के साथ न जुड़ें,  अपितु भ्रमित होकर अपने द्वारा निर्मित किसी ‘आप’ जैसे नये भ्रम जाल में फंसे रहें। प्रांत के दर्जे से भी वंचित दिल्ली सरकार के प्रतिनिधियों को अन्य बड़े दलों के बराबर ही टी.वी. चैनलों व अन्य प्रचार माध्यमों द्वारा समय दिया जाना और ‘आप’ से राष्ट्रीय पैमाने पर कहीं बड़े आकार वाली वाम की धारा को पूर्णतया नजरअंंदाज करना शासन वर्गों की इस नीति का जीता जागता प्रमाण है।
हम देश के समस्त जनसमूहों, विशेषत: पढ़े लिखे नौजवानों, राजनैतिक रूप से सचेत जनसमूहों को यह जरूर कहना चाहते हैं कि अब इस बहस पर विराम लगाईये कि केंद्र या प्रांतों में किस दल की सरकार बनेगी! अपितु अब चर्चा का केंद्र स्वतंत्रता प्राप्ति के समय कायम हुई एवं अब तक चली आ रही पूंजीवादी व्यवस्था के गुण दोष होने चाहिएं।
साथ ही अब यह चर्चा करने का दौर भी आ गया है कि समाज में व्याप्त बेकारी, बढ़ रही महंगाई, भ्रष्टाचार, लूटमार, असुरक्षा, मजदूरों एवं किसानों की दुर्दशा, सामाजिक उत्पीडऩ, नशों की भरमार आदि के जिम्मेदार इस ढांचे को बदलकर एक ऐसा समाज निर्मित किया जाए जिसमें अपने उत्पादन के सभी उत्पादनकर्ता यानि स्वयं लोग ही स्वामी हों न कि मु_ी भर शोषक।
सौ बातों की एक बात। सवाल व्यक्ति या दल बदलने का नहीं मूल प्रश्न व्यवस्था बदलने का  है और पाठकगण ये कार्य ‘आप’ जैसे दल कदापि नहीं कर सकते। यह कार्य केवल और केवल वाम-जनतांत्रिक शक्तियों के योग्य ही है। और इसे करने के लिये तीखी वर्गीय सूझ, निष्ठा, त्याग समय की सबसे बड़ी जरूरत है। समूचा वाम आंदोलन इस राह पर चलते हुए इस दिशा में अग्रसर है। हम अति नम्रता से कहना चाहेंगे कि ‘आप’ का समूचा विश्लेषण उपरोक्त दृष्टिकोण से किये बिना लोगों के भ्रम और मुसीबतें दोनों सुरसा की भांति उग्र होते जाएंगे।

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