Thursday 17 December 2015

ਸਾਹਿਤ ਤੇ ਸੱਭਿਆਚਾਰ (ਸੰਗਰਾਮੀ ਲਹਿਰ-ਦਸੰਬਰ 2015)

हिंदी कहानी थप्पड़
- अशोक सक्सैना
 


होतीराम राज-मिस्त्री लगभग एक महीने से घर बैठा है। जब से चौमासा लगा है तभी से उसका काम बंद पड़ा है। राज-मिस्त्री के धन्धे में, बरसात के मौसम में हर साल मंदा आ जाता है। राज-मिस्त्रियों के लिए छुट-पुट काम ही निकलते हैं। कहीं छत टपकने लगे या परनाला सही करवाना हो तब ही कारीगर की जरूरत होती है वर्ना लम्बे काम तो बरसात उतरने के बाद ही निकलते हैं।
मजदूर आदमी का बिना कमाए एक महीने तक गृहस्थी की गाड़ी खींचना मजाक बात नहीं है। रोज कुँआ खोदकर पानी पीना पड़ता है। एक महीने के करीब निठल्ले बैठे रहना किसे कहते हैं - आँखें बाहर निकल आती हैं। घरवाली ने कल कह दिया था -आटा खत्म होने वाला है।
होतीराम होशियार राज-मिस्त्री है। बरसात के मौसम को छोड़ बाकी करीब दस महीने काम मिलता ही रहता है। लेकिन बरसात का मौसम उसे सदा से बहुत अखरता है।
इधर तो काम बंद उधर बच्चों की पढ़ाई के नये खर्चे हर साल इस समय ही सिर पर सवार होते हैं। स्कूल की फीस, कोर्स की नयी किताबें, स्कूल की ड्रेस, बस्ते वगैरह, उस पर एक नहीं तीन बच्चों की पढ़ाई का बोझ। आज की कमरतोड़ महँगाई के जमाने में मिडिल क्लास का आदमी तो तीन बच्चों की पढ़ाई का बोझ सह नहीं सकता तिस पर होतीराम तो दिहाड़ी पर काम करने वाला मजदूर है।
कारीगर मोहल्ले में शायद वही एक ऐसा आदमी है जो किसी किस्म का नशा नहीं करता। न दारू न भाँग, न बीड़ी न गुटखा। यहाँ तक कि उसे चाय का भी चस्का न था। मिल गई तो ठीक वर्ना घर पर चाय नहीं बनेगी। इतनी किफायत और समझदारी के चलते शायद वह अपने बच्चों को पढ़ा पा रहा था। उसका बड़ा बेटा पढऩे-लिखने में ठस्स निकला। नवीं कक्षा के बाद दो बार दसवीं में फेल होकर घर बैठ गया था। अब बाप के साथ मजदूरी करने जाता है। दो छोटी लड़कियाँ पास के सरकारी मिडिल स्कूल में पढ़ती हैं। स्कूल में सरकार की तरफ से किताबें मुफ्त मिलती हैं, दोपहर को दाल रोटी या दलिया भी मिल जाता है। स्कूल में और कुछ सुिवधाएं भी हैं, बस पढ़ाई नहीं है। फिर भी होती ने यह सोचकर उन्हें स्कूल में दाखिल करवा रखा है कि दोनों बेटियां कम से कम आठवीं कक्षा तक तो पढ़ ही जायेगी, क्योंकि स्कूलों में आठवीं तक बालकों को फेल करने का नियम नहीं है भले ही उन्हें दो का पहाड़ा भी याद न हो। लड़कियां सचमुच पढऩा लिखना नहीं जानतीं लेकिन इन्हें हर साल अगली कक्षा में चढ़ा दिया जाता है। यही बात उसके बड़े लडक़े के साथ हुई थी। कक्षा नवीं तक तो मास्टर उसे अगली कक्षा में चढ़ाते रहे मगर दसवीं से ग्यारहवीं कक्षा में चढ़ाना उनके हाथ में न था। दसवीं में बोर्ड की परीक्षाएं होती हैं लिहाजा दो बार इम्तहान में बैठकर वह प्रत्येक विषय में फेल हुआ। फेल तो होना ही था। इस बात को होतीराम भी समझता था मगर किया क्या जा सकता था। इसलिए छोटे बेटे के मामले में उसने यह गलती नहीं की। पहली कक्षा से ही उसे प्राईवेट स्कूल में पढ़ाया। अब छोटा बेटा इस साल बारहवीं कक्षा में आया है।
जिस स्कूल में लडक़ा पढ़ता है वह शहर के साधारण स्कूलों में गिना जाता है लेकिन यहां भी फीस इस साल बारह हजार रुपये जमा करानी थी। फीस की पहली किश्त नियमानुसार जुलाई में जमा करानी होती है लेकिन यहां होती के पास जहर खाने के पैसे नहीं थे। ये तो स्कूल वालों की मेहरबानी है जो हर साल जुलाई में फीस के लिए परेशान नहीं करते। वे भी कई वर्षों से देख रहे हैं होतीराम लडक़े की सारी फीस का हर साल खरा हिसाब कर जाता था हांलाकि यह हिसाब साल के अन्त में, यानी अप्रैल-मई में हो पाता था।
गर्मियों का मौसम होती के धन्धे के हिसाब से सबसे कमाऊ समय होता है। स्कूलों में गर्मियों की छुट्टियां होती है। दिन लम्बे होते हैं और काम ज्यादा निकलता है इसलिए चतुर और सयाने लोग गर्मी के मौसम में मकान बनवाया करते हैं। कार्तिक से लगाकर पूरा आषाढ़ उसका काम अच्छा चल जाता है। सावन लगते ही काम में सुस्ती आ जाती है जो अक्सर क्वार में कनागत तक चलती है।
गर्मियों में कमाकर बचाई गई रकम की पाई-पाई खर्च होने को थी। अब तो राम ही रखवाला है। आज अगर काम नहीं लगा तो किसी के आगे हाथ फैलाने की नौबत आ जाएगी। कई दिनों बाद आसमान खुला था। आज तो काम लगना ही चाहिए। प्रजापिता को मन ही मन सुमिरते हुए उसने औजार प्लास्टिक के बोरीनुमा झोले में रख लिए, जिसके एक सिरे पर सुतली बंधी थी। कांडी, तेसी, हथौड़ा, टांकी, छैनी, गुनिया, साबत गुटका वगैरह सामान रखकर झोले का मुँह कसकर सुतली से बंद किया और झोला साइकिल के कैरियर पर बाँध लिया। घरवाली ने बाप-बेटों के लिए रोटियां पोटली में बांधकर थैले में रख दी थीं। जिसे उसने साइकिल पर आगे लटका लिया। हे भगवान! आज भी रोटियां घर लौटकर न खानी पड़ें। होती मन ही मन ठाकुर जी की गुहार लगा रहा था।
सुबह आठ बजने से पहले दोनों बाप बेटे चौराहे पर आ गये। शहर का यह प्रमुख चौराहा है। सुबह सात बजे से ही यहां मजदूरों का आना शुरू हो जाता है और आठ बजते बजते सैंकड़ों मजदूर यहीं इकट्ठे हो जाते हैं। इस चौराहे पर लक्ष्मण जी का एक विशाल और भव्य मंदिर है जिसके नीचे बेलदारों की भीड़ इकट्ठा होती है और मंदिर के एन सामने स्थित दुकानों के थड़ों पर कारीगर आकर जम जाते हैं। इसे मजदूरों की मंडी कह सकते हैं। इसे हाट भी कहा जा सकता है-ऐसी हाट जहां मजदूर बिकते हैं।
हजारों साल पहले मिस्र, यूनान या रोम में शायद इसी तरह मजदूरों की हाट लगती रही होंगी। लोग गुलामों को छाँटते, मोल-तोल करते और खरीद कर ले जाते रहे होंगे। कमोबेश यही हालत अब भी दिखाई देती है। हजारों सालों की मानव-सभ्यता के विकास की रफ्तार इस दिशा में कितनी धीमी है। यह तथ्य इस चौराहे पर सुबह आठ-नौ बजे आकर महसूस किया जा सकता है। यह पूंजीवादी सभ्यता की देन है। कहने को इन्सान सामन्त युग की बंधुआ मजदूरी से बाहर निकल आया है लेकिन लाचारी भी कोई चीज है। भूखा मरता क्या न करता। मजदूर को अपनी मेहनत मालिक की मर्जी के मुताबिक बेचनी ही पड़ती है। मजदूरी करने या न करने की आजादी की बात पूंजीवादी दर्शन की किताबों तक सीमित है। हकीकत में ऐसे मजदूरी करना लाचारी है - जिंदा रहने की अनिवार्य शर्त है।
चौराहे पर किस्म-किस्म का आदमी देखने को मिलता है। लांगदार धोती, कमीज और चमरोंधे के भारी जूते पहने आदमी; पाजामा और फटी कमीज पहने टूटी हुई साइकिल को सँभाले खड़ा आदमी;  हाथों में रोटी की पोटली लिए सिर पर अँगोछा लपेटे हुए आदमी-यानी दिहाड़ी मजदूरों की यह मंडी बिकाऊ आदमी की अजीब नुमायश लगती है।
एक शहरी बाबू आता है और मजदूरों के चेहरे पर सरसरी नजर डालता है। कामगारों की भीड़ समझ जाती है और उसे चारों ओर से घेर लेती है - क्या काम है साब? कितने आदमी लेने हैं? किधर चलना है? न हट बे! मुझे बात करने दे। हां साब कित्ते मजदूर चइयें? तू कोई मुजाम है? हम बात ना कर सकें? वे आपस में लड़ रहे थे - बाबू जी बताओ कहाँ... भीड़ आपस में उलझ पड़ी तो बाबू खीझ उठा... नहीं कराना मुझे काम।’
वे ठंडे पड़ जाते हैं। एक दूसरे को लतिया कर वे जैसे अपनी लाचारी का अहसास करा रहे थे। सभी को काम चाहिए ताकि शाम को अपने-अपने घरों में खाली हाथ न लौटें।
सुबह नौ बजे तक जितने लोगों को काम मिलना होता है मिल जाता है। ज्यादा से ज्यादा साढ़े नौ-दस बजे तक लोग मजदूर छाँट कर ले जाते हैं। मगर लक्ष्मण मंदिर की सीढिय़ों पर काम के इन्तजार में मजदूर ग्यारह-बारह बजे तक बैठे रहते हैं। किंतु ऐसा कम होता है। आसपास के गांवों से काम की तलाश में शहर आए ये दिहाड़ी मजदूर मंदिर की सीढिय़ों पर बैठ खाना खाकर सुस्ताते हैं और फिर दोपहर ढलने से पहले गांव की राह लेते हैं।
बाबू की नजर होती पर पड़ती है। वह सीधा उधर बढ़ गया -कहो भई मिस्त्री काम करोगे।’
‘और यहां काहे बैठे हैं साब।’ होती राम उठकर खड़ा हो गया - क्या काम करवाना है?’
‘छतें टपकती हैं सो ठीक करानी हैं और थोड़ा बहुत मरम्मत का काम है।’
‘चलो साब!’ काम तो काम है जो भी हो।’ होती ने औजारों का थैला उठा लिया।
‘मजदूरी क्या लोगे?’
‘जो रेट चल रही है साब! कारीगर की तीन-सौ और मजदूर की दो सौ।’
‘मजूरी ठीक लगाओ मिस्त्री! पांच-छ: दिन का काम है।’
आप चार जगह पता कर लो साब!
अगर मिस्त्री दो सौ नब्बे में मिल जाए तो आप मुझे दस रुपए और कम दे देना।’
‘चल यार मिस्त्री तेरी बात बड़ी सही। पर देख काम सही होना चाहिए।’
बाबू ने उसे परखना चाहा।
‘काम की चिन्ता मत करो साब!’ आपको लगे कि हमने सही काम किया है तो पैसे देना वर्ना एक पैसा मत देना।’ मजदूर कितने ले चलूं साब।’
‘तू बता कितने मजदूर चाहिएं।’ बाबू ने पूछा
‘ये तो काम के ऊपर है साब! चिनाई करानी है तो दो मजदूर प्लास्टर कराना....’
‘अरे यार छुटपुट मरम्मत का काम है। एक मजदूर काफी है।’
‘जैसी आपकी मर्जी साब।’ होती चलने को तैयार हुआ तो बाबू ने पूछा - ‘मजदूर तेरा अपना है या मैं किसी से बात करूँ?’
‘मेरा लडक़ा है साब!’ उसने लडक़े की तरफ इशारा किया जो साइकिल पकड़े भीड़ में सामने खड़ा था।
बाबू जो खुद साइकिल से आया था अपनी साइकिल पर चढक़र चल दिया। होतीराम और उसका लडक़ा जैसे किसी अदृश्य डोर से बंधे उसके पीछे चले जाते थे जैसे कसाई के पीछे बकरा चला जाता है।
बाबू के घर पहुंचकर होतीराम ने साइकिल घर के अहाते में खड़ी कर दी। साइकिल पर आगे लटके एक थैले से अपनी फटी कमीज और घिसी हुई पैंट निकाल कर पहनी और उतरे हुए कपड़ों को करीने से तह कर थैले में रख दिया। गरीबी इन्सान को कितना किफायती बना देती है।
बाबू जो अपनी साईकिल बाहर रखकर घर के भीतर चला गया, अब बाहर आया साथ में पत्नी भी थी।
‘हाँ तो भई मिस्त्री नाम क्या है तेरा।’ उसने पूछा।
‘मैं होती हूँ साब होती राम! ये मेरा बेटा है देसराज।’ मिस्त्री ने कहा।
‘तो ठीक है होती राम ये रहा सीमेंट, बजरी, गिट्टी, पाइप। सामने अहाते में पड़े सामान की ओर इशारा करते हुए उसने कहा - ‘अब तुम जानो, तुम्हारा काम जाने।’ और किसी चीज की जरूरत है तो कुसुम से कहना।’ पत्नी की ओर संकेत करते हुए उसने कहा - ‘नाश्ता तैयार करो मुझे आफिस को देर हो रही है।’
‘आप बेचिंत होकर जायें बाबू साब और बहनजी को भी अपना टैम खराब करने की जरूरत नई पड़ेगी।’
‘देख भई होती राम, साफ बात यह है कि मकान अपना नहीं है। अपन तो किरायेदार हैं।’ मालिक मकान बड़ा नेक आदमी है। सरकारी मुलाजिम है और अजमेर में रहता है। काम ऐसा करना कि मकान मालिक को यह नहीं लगे कि हमने उसे चूना लगाया है। तू समझ गया न मिस्त्री मैं क्या कहना चाहता हूँ।’
‘मैं समझ गया साब!’ आप मुझे पहले छत दिखा दें, काम शुरू करना है। चल रे छोरा तेसी और कांडी निकाल ला’ उसने लडक़े से कहा।
वे चारों छत पर आ गये। मिस्त्री छत की दराजों को ध्यान से देख रहा था। सामने वाले मकान की छत पर शुक्ला जी खड़े थे-कहिये शर्माजी काम करवा रहे हैं क्या?
‘जी शुक्ला जी इस बार की बारिश में छतें टपकने लगीं। मालिक मकान को फोन किया था।’ खुद तो आये नहीं, मुझसे कहने लगे - अरे भाई शर्मा जी मकान में जहां जरूरी समझो, अपने हिसाब से काम करवा लो। जो खर्चा आएगा, मुझे बता देना। आपके एकाउन्ट में ट्रांसफर करवा दूंगा या फिर किराये में एडजस्ट कर लेंगे।’बड़े दरिया दिल आदमी हैं साहब! हां सो तो हैं, मुझसे सहमत होते हुए उन्होंने कहा।
शुक्ला जी टहलते हुए आगे बढ़ आये।  ‘काम तो मुझे भी कराना है साहब! क्या रेट चल रही है राज-मिस्त्री व मजदूर की।’
‘तीन सौ का राज-मिस्त्री, दो सौ का मजदूर।’ उसने बताया।
‘आप तो इन्हें लक्ष्मण मंदिर के चौराहे से लाए होंगे। अरे साहब अच्छे कारीगर चौराहे पर कब जाते हैं। उन्हें तो लोग छोड़ते ही नहीं। खैर, आप पैसे ज्यादा दे रहे हैं। ज्यादा से ज्यादा पौने तीन सौ का राज मिस्त्री और पौने दो सौ का मजदूर। आप कहें जितने ला दूं। साढ़े चार सौ रुपए रोज की दिहाड़ी बनती है। आप पच्चास रुपये ज्यादा दे रहे हैं।’ वे अपनी छत से लगभग चिल्ला कर कह रहे थे और सब सुन रहे थे। होतीराम या उसके लडक़े ने जवाब देने की बात तो दूर उस तरफ देखा तक नहीं।
शुक्ला जी तजुर्बेकार आदमी हैं। अभी साल भर पहले नया मकान बनवाकर इस कालौनी में बसे हैं। क्या वह वाकई ठगा गया। उसने सोचा।
‘अरे शुक्ला जी यहां कौन सा लम्बा चौड़ा काम है मुश्किल से हफ्ता भर लगेगा, पचास रुपए ज्यादा सही। मिस्त्री होशियार हो तो काम अच्छा होता है और पैसे की सब भरपाई हो जाता है।’
‘वो तो ठीक है शर्मा जी, पर ये तो सरासर बेईमानी है। जब साढ़े चार सौ बनते हैं तब पांच सौ क्यों दिये जायें शुक्ला जी जैसे उसे उकसाने पर आमादा थे। वह बात को टालने के मूड़ में था।
मिस्त्री और मजदूर उनकी बातें सुन रहे थे मगर उन दोनों का जैसे इन बातों पर ध्यान ही नहीं था। दोनों बाप-बेटे कांडी-तेसी लेकर अपने काम पर जुट गये थे।
‘अच्छा शुक्ला जी मैं चलता हूं।’ उसने कहा और छत से नीचे उतर आया। साढ़े-नौ बजने को आये। दस बजे उसे दफ्तर पहुंचना था वह झटपट तैयार हुआ, खाना खाया और स्कूटी लेकर निकल गया। उसे शाम को आफिस से लौटने में देर हो गई। जब वह घर पहुंचा तब अंधेरा घिरने लगा था। पत्नी ने बताया मिस्त्री और मजदूर शाम को छ: बजे तक लगे रहे। अच्छा कारीगर है न चाय की फरमाइश न बीड़ी की। मैने दो बार चाय के लिए पूछा तो मना कर दिया। सौ रुपये ले गया है।’
अगली सुबह ठीक समय पर दोनों आ गये। ‘आ भई होतीराम चाय पी ले।’ वह बरामदे में खड़ा चाय पी रहा था बस साब! हम तो घर से टिचन होकर निकले हैं।
चलो ठीक है। अच्छा बताओ कल क्या काम हुआ?
‘आप देखो साब! छत टाँच दी है। आज दिन भर में तैयार हो जाएगी। अगला काम बता कर जाना साब।’
वह मिस्त्री के साथ छत पर आ गया। जहाँ-जहाँ दरारें थी मिस्त्री ने वहीं सब जगह तीन-चार इंच खुदाई कर दराजें बना ली थीं। आधी से ज्यादा छत उधड़ी पड़ी थी। कल की तरह शुक्ला जी आज भी छत पर खड़े थे।
‘कहिये शर्मा जी, काम कैसा चल रहा है।’ उन्होंने पूछा। ‘ठीक है शुक्ला जी मिस्त्री होशियार है।’ उसने कहा।
‘अरे साहब आप इन लोगों को अभी ठीक से जानते नहीं हैं। कल आप तो चले गये आफिस, बहन जी नीचे लगी रही होंगी अपने काम में, और इधर ये दोनों छत पर बैठे खुट-खुट करते रहे थे। इसी में निकाल दिया सारा दिन। भला मजदूरों से ऐसे काम निकाला जाता है।’
इस बीच मजदूर नीचे से गारे की परात ले आया और मिस्त्री ने दर्जबंदी शुरू कर दी।
शुक्ला जी फिर शुरू हो गये - -अरे साहब मैं कहता हूँ इनके सिर पर सवार होकर ही आप इनसे काम निकलवा सकते हैं आपके पीछे तो ये निहाल करने से रहे।
शुक्ला जी का सदाशय ग्रहण करते हुए उसने कहा - -नहीं शुक्ला जी, ये उन कारीगरों में से नहीं हैं कल सारा दिन लगे रहे। अब काम तो काम की तरह होगा। समय तो लगता ही है।
‘शर्मा जी, आप भी क्या बात करते हैं। ये साले बड़े हराम खोर होते हैं।’ इनसे काम लेना हर किसी के बस की बात नहीं है। मैं तो साहब मकान बनवा कर इन लोगों को अच्छी तरह देख चुका हूँ। साले सिर पर गारे की परात रखकर ऐसे धीरे-धीरे डग भरेंगे जैसे पेट में सात माह का बालक हो।’ शुक्ला जी सिर पर परात रखकर चलने का अभिनय कर बताने लगे तो उसे बेसाख्ता हँसी आ गई।
‘आप भी हद करते हैं  शुक्ला जी!’ उसने हँसी पर काबू पाते हुए कहा।
‘हँसने की बात नहीं है। साहब। अगर खुद सामने खड़े होकर काम करवा लो तो ठीक वरना पाँच सौ रुपए के बदले सौ रुपये का काम भी करके नहीं देंगे।’
होतीराम दत्तचित होकर अपने काम में जुटा था। कल की तरह जैसे शुक्ला जी की किसी बात का उस पर कोई असर ही नहीं था। देसराज गारे की एक और परात रख कर खाली परात लेकर नीचे चला गया।
शुक्ला जी बिना मांगे मशविरा देने लगे - ‘आज आप घर पर ही रहिये, फिर देखिये काम होता है कि नहीं। मालिक आप जैसा उदार हो - जिसे ये बेवकूफ समझते हैं - तो सुबह काम शुरू करते करते नौ बजा देंगे। दोपहर को खाने के लिए एक घंटे की छुट्टी चाहिए, उसमें भी एक की जगह डेढ़ घंटा लगा देंगे। बीच-बीच में बीड़ी के सुट्टे लगाने के बहाने सुस्ताने लगेंगे। लल्लो-चप्पो इतनी कि मालिक लिहाज वश कुछ कह न सके; और साहब इधर पांच बजे उधर इनके तेसी-कांडी चलनी बंद। मैंने कई बार नोट किया है, शर्मा जी! पांच बजते ही इन लोगों को जाने कैसे पता चल जाता है कि चलता हुआ काम रोककर, हाथ झाडक़र खड़े हो जाते हैं।’
‘क्या करें शुक्ला जी मैं पहले भी कई छुट्टियां ले चुका हूँ अब इस काम के लिए छुट्टियां क्यों बिगाड़ंू हमारे मिस्त्री जी बहुत बढिय़ा आदमी हैं। इन्होंने हमें इस काम पर खड़े रहकर काम करवाने की छुट्टी दे रखी है।’ उसने शुक्ला जी से कहा फिर मिस्त्री की तरफ मुड़ते हुए उसने कहा- ‘मिस्त्री जी मैं तो जा रहा हूँ। अपना काम समझ कर करते रहना।’
‘आप बेचिंत होकर जायें बाबू साब।’ मिस्त्री ने छोटा सा जवाब दिया।
शुक्ला जी को एक सलाम ठोककर वह नीचे आ गया। आफिस के लिए तैयार हुआ और रोज की तरह स्कूटी लेकर निकल गया।
होतीराम अपने काम में व्यस्त था। अपने काम से निपट कर कुसुम  छत पर आकर खड़ी हो गई। दोपहर का एक बज चला था। ‘मिस्त्री जी, खाना खा लो, काम बाद में हो जायेगा’-उसने कहा। ‘जी बहू जी! ये जो गारा बन गया है इसे ठिकाने लगा दूं। बस आधे-घंटे की बात है।’
वह नीचे चली गई। थोड़ी देर बाद बाप बेटे खाने की पोटली लेकर मकान के अहाते में जा बैठे। दोनों ने हाथ धोए और अँगोछे, से पौंछ कर, आँगोछा जमीन पर बिछा लिया और पोटली खोल ली। कुसुम कमरे में थी। खिडक़ी में से उसने देखा रोटियों के साथ सब्जी के नाम पर चार हरी मिर्च रखी थी। खाली हरी मिर्च के साथ रोटियों के कौर इनके हलक से कैसे नीचे उतरते होंगे? कल भी दोनों ने इसी तरह मिर्च के साथ रोटियाँ निगलीं थीं।
कुसुम ने कुछ क्षण सोचा फिर एक कटोरी में दाल और छोटी प्लेट में अचार की दो फाँक रखकर वहां पहुँची-अरे मिस्त्री जी खाना खाने बैठें तो दाल-सब्जी की कह दिया करो वरना अचार तो हर घर में मिल ही जाता है।’ उसने दाल और अचार की प्लेट वहीं रख दी।
‘बरतन ले जाओ बहू जी।’ होती ने अचार की फाँके उठाकर रोटियों पर रखकर प्लेट खाली कर दी।
‘दाल आप ले जाओ बहू जी ये अचार बहुत है।’
कुसुम ने दाल लेने के लिए फिर कहा लेकिन होती ने हाथ जोड़ दिये। कुसुम बर्तन उठाकर भीतर आ गई। अबकी बार बाहर आई तो पानी का जग उसके हाथ में था जिसे उसने होती को थमा दिया और खुद पास रखी कुर्सी पर बैठ गई।
उस दिन रोज की तरह शाम करीब छ: बजे दोनों बाप-बेटे काम खत्म कर चलने को तैयार हुए तो कुसुम ने कहा - ‘मिस्त्री जी आपको चार दिन हो गये काम करते हुए। पैसे-वैसे चाहिए तो मांग लेना।’
‘हाँ बहू जी आज तो माँगने ही पड़ेंगे।’
‘कितने रुपये ला दूँ।’
बस चार सौ रुपये दे दो बाकी हिसाब काम खत्म होने पर कर लेंगे।
कुसुम भीतर गई। सौ-सौ के चार नोट निकाले और बाहर आकर होती राम को थमा दिये। ‘अभी आपके डेढ़ हजार रुपये हमारी तरफ बाकी हैं -’ और रुपयों की जरूरत हो तो ले जाओ। आपका हक बनता है। हम उन लोगों में से नहीं हैं जो मजदूरी दबा कर मजदूर से काम करवाते हैं।’
‘आपकी मेहरबानी बहू जी, पर इन रुपयों से अभी तो गुजर हो लेगी।’ कुसुम को हाथ जोडक़र दोनों बाप-बेटों ने साइकिल उठाई और बाहर निकल गये।
बाजार पहुँच कर होती राम ने साइकिल बेटे को थमा कर कहा--तू घर जा मैं कुछ सामान लेकर आऊँ।
रास्ते में चक्की से उसने दस किलो आटा खरीदा और दोनों लड़कियों के लिए कैनवास के दो बस्ते खरीदे। पंसारी की दुकान से जरूरत भर की हल्दी, जीरा, मिर्च खरीदी और सब्जी मंडी की तरफ मुड़ गया।
कई दिनों के बाद होतीराम के परिवार ने आज सब्जी से रोटी खाई थी। सामान से बाकी बचे रुपए उसने घरवाली को पकड़ा दिये जिसे उसने सहेजकर काठ के बड़े संदूक में रखी डोरी वाली थैली में रखकर ताला लगा दिया।
होती राम को काम करने पांच दिन बीत चुके थे। सोमवार को काम जोड़ा था और आज शनिवार था। सुबह उसने कहा- ‘बाबू साब। कोई और काम नजर में हो तो बता कर जाना। आज काम खतम हो जाएगा।’
‘आज तो मेरी छुट्टी है होती राम। आज तो मैं घर पर ही हूँ।’
आसमान पर बादल घिर आये थे। लग रहा था जम कर बरसात होगी। वह सोच रहा था चलो गनीमत है छत का सारा काम पहले हो गया अब अगर बारिश आती है तो अच्छा है। छत की अच्छी तराई हो जाएगी। नये प्लास्टर की अगर अच्छी तराई हो जाए तो सीमेंट लोहा हो जाता है।
बारह बजने को आए। भीतर का काम खत्म हुआ। अब केवल छत की दीवारों पर लगे परनालों में पाइप लगाने का काम बाकी रहा था। होती राम ने नसैनी उठाई और नालियों से नीचे पानी गिरने तक की ऊँचाई का नाप ले लिया। जब नसैनी पर चढक़र पाईप फिट करने के लिए वह दीवार में सुराख बना रहा था तभी बारिश शुरू हो गई। चंद मिन्टों में छत के परनाले से वर्षा का पानी धार बनकर बह निकला। होती झटपट नीचे उतरा। वह करीब-करीब भीग चुका था। बरामदे में पहुंचकर उसने कपड़े उतारे और अँगौछे से अपने कंकाल जैसे शरीर को पौंछा। गीले कपड़े उसने बरामदे में लगी खूंटी पर टांग दिये और थैले में रखे सूखे कपड़े पहन कर बारिश रुकने का इंतजार करने लगा। शर्माजी और कुसुम भी बाहर आ गये। वर्षा काफी तेज थी। तेज हवा के साथ पानी की बौछारें बरामदे को भिगोने लगीं। कुसुम ने कमरे के किवाड़ खोल दिये और सबको भीतर आने के लिए कहकर किचिन में चली गई ‘बारिश अच्छी पड़ रही है होती राम। तुम्हारे खेत वगैरा तो होंगे? उसने पूछा’ नहीं साब, हम तो मजूर आदमी हैं। बाप-दादों के जमाने से मजूरी करते आए हैं। अरे यार हम भी मजदूर आदमी है। फर्क बस इतना है कि तुम छैनी हथौड़े की मजदूरी करते हो, हम कलम की मजदूरी करते हैं।’
‘अरे साब! हमारी आप से क्या बराबरी। आप ठहरे...’
‘ठहरो।’ उसने होतीराम को रोकते हुए कहा-तुम रोज कितना कमा कर ले जाते हो। पांच सौ रुपए न? मेरी तनखा इक्कीस हजार है यानी तुमसे दो सौ रुपये रोज ज्यादा समझो।
होती राम मुस्करा दिया- ‘हम बाप बेटे मिलकर पाँच सौ रुपये कमाते हैं, फिर आपकी लगी बंधी तनखा है। यहाँ तो साब आकासी विरत है। अब आज पानी पड़ गया तो बैठे हैं हाथ पर हाथ धरे।’
कुसुम चाय ले आई थी। ‘होतीराम चाय ले लो’ उसने चाय का प्याला आगे बढ़ाया तो मिस्त्री ने संकोच के साथ प्याला थाम लिया। देसराज चाय पीता नहीं, यह बात कुसुम पहले ही दिन जान गई थी।
चाय पीकर मिस्त्री ने कप धोकर एक तरफ रख दिया और बाहर बरामदे में आ गया। बारिश अब भी काफी तेज थी हालांकि हवा में अब पहले जैसी तेजी नहीं थी। होती ने प्लास्टिक के पाइप उठाये इंचीटेप से नापकर उन्हें काटा फिर सुलोचन लगाकर उनमें बैंड फिक्स कर दिये। जब तक बारिश रुकेगी तब तक सुलोचन सूख लेगा और पाइप जोड़ पर से खूब मजबूत बना रहेगा।
‘छोरा रोटी ले आ, जब तक बरसात पड़ रही है खा-पी के निरचू हैं लें।’
उसने देसराज से कहा। कुसुम ने सुन लिया। बरामदा गीला था इसलिए भीतर से प्लास्टिक की चटाई ले आई- ‘अरे मिस्त्री जी बरामदा भीग गया है भीतर कमरे में बैठ लो।’
देसराज ने चटाई कुसुम के हाथ से ली और बरामदे में बिछा ली। दोनों बाप-बेटे रोटी की पोटली खोलकर बैठ गये। कुसुम थोड़ा सा अचार और पानी का जग उन्हें देकर भीतर चली गई।
करीब दो घंटे जमकर बरसने के बाद बारिश थम गई। आसमान अब भी हल्के नीले बादलों से ढका था और वहीं सूरज और बादलों के बीच लुका-छिपी का खेल चल रहा था। हवा में ठंडक थी और मौसम सुहावना हो गया था।
मिस्त्री अपने लडक़े के साथ काम में लग गया। आज की बरसात ने एक घंटा खराब कर दिया। आज हर हाल में काम खत्म करना है चाहे शाम के सात बज जाएं। नसैनी पर चढक़र होती ने पाइप कसने के लिए सूराख बनाये फिर उनमें लोहे की मजबूद क्लिंप ठोंक कर सीमेंट का मसाला भर दिया।
सामने वाली छत पर खड़े शुक्ला जी मिस्त्री को काम करते देख रहे थे। वे वहीं से उसे हिदायत दे रहे थे कि पाइप में ऊपर से नीचे तक कम से कम चार क्लिंप लगाये, कि गुल्ली मजबूती से ठोके। सुलोचन ठीक से सुखा तो लिया है न, वरना पाइप नीचे खिसक जाएगा। होती जैसी कि उसकी आदत है दत्तचित होकर अपने काम में लगा था गोया उसने यह सब सुना ही न हो।
‘कहिये शर्मा जी कैसे हैं? आज तो आपकी छुट्टी होगी। महीने का दूसरा शनिवार है।’
‘जी शुक्ला जी’ उसने कहा लेकिन आज आप कैसे घर पर हैं? आपका कालेज टाइम तो दस से पांच तक का है न?
‘अरे यार अपना प्रिंसीपल आज जयपुर गया हुआ है। मैदान खाली था सो मार लिया।’ उन्होंने एक आँख दबाकर मुस्कराते हुए कहा :
‘अटैन्डेंस रजिस्टर पर साइन किये और चला आया... खैर आप बताइये आपका काम तो हो गया न?’
‘जी, शुक्ला जी। काम हो गया और अच्छा हो गया। कारीगर होशियार और मेहनती आदमी है।’
‘काम तो मुझे भी करवाना है साहब!’ चलिए आपके इस मिस्त्री से ही बातें कर लेते हैं। जब ये काम खत्म कर ले तो मुझे आवाज दे लीजिए।’ शुक्ला जी ऊँची आवाज में कह रहे थे शायद इसलिए कि उसके पास अपने काम में लगा मिस्त्री उनकी बात सुनकर उन्हें आश्वस्त कर दे लेकिन मिस्त्री ने जैसे बात को सुनकर भी अनसुना कर दिया।
काम निपटाते-निपटाते मिस्त्री को रोज की तरह शाम हो गई। हाथ पाँव धोकर उसने औजार अपने थैले में रखे और सुतली से झोले का मुँह अच्छी तरह बंद कर दिया।
‘कुसुम मिस्त्री जी को पैसे लाकर दो।’ उसने पत्नी को आवाज दी फिर मिस्त्री से कहा-‘यार होतीराम तुमने सुना नहीं सामने वाले शुक्ला जी क्या कर रहे थे। उन्हें काम करवाना है।’ कुसुम रुपये ले आई थी। ढाई हजार रुपये मिस्त्री को देकर उसने पूछा-ठीक है मिस्त्री जी! छ: दिन के कुल तीन हजार हुए। पांच सौ मैंने पहले ही दिये और ढाई हजार ये रहे संभाल लो।’
‘ठीक है बहू जी!’ सौ-सौ के पच्चीस नोट गिनकर संभालते हुए उसने पेंट के भीतर की जेब में सरका लिए।
‘ये कुछ पुरानी पेंट और कमीज है मिस्त्री जी। पुरानी जरूर हैं मगर कही से उधड़ी या फटी नहीं हैं अगर काम आ सकें तो।’
होतीराम ने हाथ बढ़ाकर कुसुम के हाथ से कपड़े ले लिये और एहसास मानते हुए बोला - ‘आपकी बड़ी मेहरबानी बहू जी। ये कपड़े हमारे बहुत काम आते हैं। दरअसल हमारा काम ही ऐसा है। इस काम में कपड़े फटते बहुत हैं। नये कपड़े खरीदना हमारी बिसात नहीं है आप जैसे धर्मात्मा लोग मेहर कर देते हैं तो गुजर हो जाती है।’
‘हां तो होतीराम क्या कहते हो! आवाज दूं शुक्ला जी को’ उसने मिस्त्री से पूछा और जब तक होतीराम कुछ कहे शुक्ला जी स्वयं गेट खोलकर भीतर आ चुके थे।
‘आइये शुक्ला जी’ - उसने बरामदे में रखी कुर्सी की तरफ इशारा करते हुए कहा।
‘नहीं-नहीं शर्मा जी इस समय बैठूंगा नहीं। मैं तो जरा इस मिस्त्री से बात करने आया हूँ।’ होतीराम से मुखातिब होते हुए उन्होंने कहा -‘क्यों भई मिस्त्री काम करना है क्या?’
‘नहीं करना साब।’ होती ने दो टूक जवाब दिया।
शुक्ला जी के साथ-साथ वह और कुसुम भी हतप्रभ रह गये। यह क्या तरीका हुआ? उसने बात संभालते हुए कहा- ‘यार मिस्त्री अगर कल से खाली हो तो शुक्ला जी के यहां काम करना शुरु कर दो।’
‘खाली तो हूँ साब मगर मैं चौराहे पर बैठने वाला कारीगर हूँ। इन्हें तो हुनरमंद कारीगर चइये।’
शुक्ला जी झेंप गये। बात को टालते हुए बोले - ‘अरे यार मिस्त्री तू तो बुरा मान गया। मैं तेरे लिए थोड़े कह रहा था। मेरा मतलब तो यह था कि चौराहे पर अक्सर अच्छे राज-मिस्त्री नहीं मिलते।’
‘बात तो वही हुई न साहब, गाली तो मजूर को ही पड़ी।’ चल रे छोरा साइकिल बाहर निकाल’ उसने लडक़े से कहा और चलने को तैयार हो गया।
‘एक बात पूछ लूं साब! आपकी तनखा कितनी है?’ होती ने कहा।
उसे लगा मिस्त्री कहीं कोई फूहड़ बात न कह दे इसलिए उसने कहा- ‘अरे यार मिस्त्री जो हो, तुम शुक्ला जी को नहीं जानते। ये शहर के बड़े सरकारी कालिज में वाइस प्रिंसीपल हैं। वाइस-प्रिंसीपल का मतलब जानते हो?’
‘खूब जानता हूँ साब!’ ये ऊंची जमात में पढऩे वालों को पढ़ाते हैं। इसका मतलब तनखा भी पचास-साठ हजार तो होगी।
अबकी बार शुक्ला जी कुछ गर्व से मुस्कराए - ‘अरे भाई रिटायरमैंट में केवल तीन साल बचे हैं अब भी पचास-साठ पर अटके रहेंगे क्या? तनख्वाह तो एक लाख के करीब है मगर कट भी तो जाते हैं....’
‘नब्बे हजार मान लो। इस हिसाब से महाराज आप तीन हजार रुपया रोज कमाते हो और हम तीन सौ। तिस पर भी हमारी कमाई कोई महीना बंधी की नहीं है। महीने में दस दिन काम न मिले तो घर भी बैठना पड़ता है।’ मिस्त्री क्षण भर को रुका फिर शुक्ला जी से बोला - ‘चलो मान लो हम तीन सौ रुपया रोज कमाते हैं फिर भी आप तो हमसे दस गुना ज्यादा कमाते हो।’
महाराज इन लिहाज से अक्ल भी आपमें दस गुना होनी चइये कि नहीं? मगर परमात्मा का भी क्या न्याय है! लक्ष्मी भी उल्लू पर सवारी करती है। आपकी इसमें कहां गलती है!’
मिस्त्री की बातें सुनकर सब सन्न रह गये। पिछले पांच-छ: दिनों से शुक्ला जी जो कुछ कहते रहे होतीराम चुपचाप सुनता रहा था। तब वह सोचता था कि मिस्त्री कितना मरियल और दब्बू है कि इसने शुक्ला जी के सामने एक बार भी मुँह नहीं खोला, लेकिन अब तो इसने जैसे पिछले छ: दिनों के संचित क्रोध का प्रतिशोध लेने की ठान ली थी। शुक्ला जी के मुंह पर मानो उसने थप्पड़ जड़ दिया था।
होती कह रहा था - ‘यहाँ सिर का पसीना जब ऐड़ी पर गिरता है तब कहीं जाकर तीन सौ रुपये सीधे होते हैं। उधर आप रजस्टर में हाजिरी भरते हैं और तीन हजार रुपये आपके तो खरे। तीन हजार की ऐवज में कितना काम किया आपने, ये आपका ईमान जाने। आपने मजूर को हरामखोर कहा? हाँ साब! हराम खोर तो हम हुए, हराम खोर नहीं होते और आपके जैसे ईमान वाले होते तो आपकी जैसी कोठियों में रहते... माफ करना महाराज मुझे आपके यहाँ काम नहीं करना।’
‘अच्छा बाबू साहब राम-राम! बहू जी आपकी मेहरबानी। भगवान आपको सदा सुखी रक्खे।’ दुआ के बोल उसके होठों से निकले। अब वह लडक़े के पीछे-पीछे चला जा रहा था।
वह असमंजस में था। शुक्ला जी कुछ देर खड़े रहे फिर अपने अंदाज में कहने लगे - ‘देख लिया शर्मा जी आपने। छोटे आदमी को मुँह लगाने का यह नतीजा है। आप जैसा सीधा-साधा मालिक मिल गया तो ससुरे के भाव बढ़ गये।’
वह चुप था। कुसुम चुप थी। बस शुक्ला जी अभी भी बोले जा रहे थे। (उद्भावना, अंक 103 से धन्यवाद सहित)




ਗ਼ਜ਼ਲ
- ਕਵਿੰਦਰ ਚਾਂਦ
ਹਰ ਸੀਨਾ ਧੁੱਖਦਾ ਧੁੱਖਦਾ ਹੈ
ਤੇ ਸੋਚਾਂ ਵਿਚ ਜਵਾਲਾ ਹੈ
ਇਕ ਚੀਜ਼ ਬਦਲਿਆਂ ਨਹੀਂ ਸਰਨਾ
ਇਹ ਢਾਂਚਾ ਬਦਲਣ ਵਾਲਾ ਹੈ।
    ਆਜ਼ਾਦ ਦੇਸ਼ ਦੇ ਵਾਸੀ ਹਾਂ
    ਪਰ ਜ਼ਿਹਨ 'ਚ ਪਿੰਜਰੇ ਲਟਕੇ ਨੇ
    ਸੰਸਦ ਵਿਚ ਗਹਿਮਾ ਗਹਿਮੀ ਹੈ
    ਉਪਰਾਮ ਹੁਸੈਨੀ ਵਾਲਾ ਹੈ।
ਕਰਮਾਂ ਧਰਮਾਂ ਦੇ ਉਹਲੇ 'ਚੋਂ
ਕਿਹੜਾ ਹੈ ਕੀ ਪਹਿਚਾਨ ਕਰਾਂ?
ਇਕ ਹੱਥ 'ਚ ਨੇ ਹਥਿਆਰ ਫੜੇ
ਤੇ ਦੂਜੇ ਦੇ ਵਿਚ ਮਾਲਾ ਹੈ।
    ਬੁੱਲ੍ਹਾਂ 'ਤੇ ਨਾਅਰੇ ਮੋਏ ਨੇ
    ਸੋਚਾਂ 'ਤੇ ਪਹਿਰੇ ਜਾਰੀ ਨੇ
    ਸਾਨੂੰ ਰਾਤ ਨਹੋਰੇ ਦਿੰਦੀ ਹੈ
    ਅਜੇ ਕਾਫ਼ੀ ਦੂਰ ਉਜਾਲਾ ਹੈ।
ਰਾਜੇ ਤੇ ਹਾਕਮ ਕਹਿੰਦੇ ਨੇ
ਮਜ਼ਦੂਰ 'ਤੇ ਹੈ ਹੁਣ ਖੁਸ਼ਹਾਲੀ
ਉਹਦੇ ਬਾਲ ਵੀ ਕੰਮ 'ਤੇ ਜਾਂਦੇ ਨੇ
ਤਾਂ ਮਿਲਦਾ ਰੋਜ਼ ਨਿਵਾਲਾ ਹੈ।

 


ਗ਼ਜ਼ਲ
- ਯੋਧ ਸਿੰਘ
ਕੋਈ ਤਾਂ ਨਿਸ਼ਾਨਾ, ਹੁੰਦਾ ਜੀਣ ਦਾ ਬਹਾਨਾ,
ਕੀੜੀ ਵੀ ਹੈ ਕਰਦੀ ਜਮਾਂ, ਅੰਨ ਦਾ ਖਜਾਨਾ।
    ਕਾਇਨਾਤ ਦਾ ਖਲਾਰਾ ਅਰਥ ਹੀਨ ਨਹੀਂ ਸਾਰਾ,
    ਬੰਦਸ਼ਾਂ 'ਚ ਗਤੀਸ਼ੀਲ ਹੈ, ਇਹ ਪਾਵਨ ਤਰਾਨਾ।
ਖੁਦਗਰਜਾਂ ਦੀ ਦਾਸੀ, ਸੱਤਾ ਕਾਇਮ ਹੈ ਅੱਜ ਵੀ,
ਸ਼ੋਸ਼ਣ ਤੇ ਹਿੰਸਾ ਦਾ ਹੈ ਜਾਲ ਛਾਤਰਾਨਾਂ।
    ਗਰੀਬੀ ਮੁਕ ਸਕਦੀ ਹੈ, ਦੁਨੀਆਂ ਦੀ ਦਿਨਾਂ ਵਿਚ,
    ਸਾਂਝੀਆਂ ਮੁਸ਼ੱਕਤਾਂ ਦਾ, ਜਿੱਤ ਜਾਏ ਜੇ ਤਰਾਨਾ।
ਗੀਤ ਛੇੜਿਆ ਜਮਹੂਰ, ਸਿਰੇ ਲੱਗਣਾ ਜ਼ਰੂਰ,
ਸੱਤਾ ਦਾ ਸਰੂਪ ਦਰੁਸਤ ਹੋਣਾ ਅਹਿਮਕਾਨਾ।
    ਕਾਇਨਾਤ 'ਚ ਹੈ ਊਰਜਾ ਦੀ ਏਨੀ ਮਿਕਦਾਰ
    ਧਰਤੀ ਦਾ ਰੂਪ ਹੋਣਾ ਹੋਰ ਵੀ ਸ਼ਾਹਾਨਾ।
ਅੱਖ ਲੋਕਤਾ ਦੀ ਰਹਿਣੀ ਹੈ ਹਮੇਸ਼ ਖੁੱਲਦੀ,
ਇਸੇ ਨੇ ਮੁਕਾਣਾ ਹੈ ਕਾਲਖ਼ਾਂ ਦਾ ਘਰਾਣਾ।
    ਇਤਿਹਾਸ ਦੀ ਗਵਾਹੀ ਦਿੰਦੀ ਰਹੇ ਇਹ ਦੁਹਾਈ,
    ਮਨੁਖਤਾ ਨੂੰ ਪਿਆਰਾ ਸਰਬੱਤ ਦਾ ਹੀ ਗਾਣਾ।

 


ਗੀਤ - ਦਲਿਤ ਕੁੜੀ ਦਾ ਗੀਤ
- ਸੁਲੱਖਣ ਸਰਹੱਦੀ
ਵੱਡਿਆਂ ਘਰਾਂ ਦੇ ਪੁੱਤ ਬਾਜ਼ ਅਸੀਂ ਚਿੜੀਆਂ ਨੀ,
ਚਿੱੜੀਆਂ ਦੀ ਕਾਹਦੀ ਨੀ ਵਰੇਸ?
ਬੰਨਿਅ ਦੇ ਘਾਹ ਤੋਂ ਵੀ ਸਾਡਾ ਸਾਵਾਂ ਮਾਸ ਤੁੱਲੇ,
ਕਿੱਦਾਂ ਦਾ ਨੀ ਮਾਏ ਤੇਰਾ ਦੇਸ਼?

ਏਥੇ ਤੇਰੇ ਵਿਹੜੇ ਦੀ ਵੀ ਨਿੰਮ ਤੇਰੀ ਆਪਣੀ ਨਾ,
ਆਪਣੀ ਨਾ ਮਾਏ ਤੇਰੀ ਛਾਂ,
ਧੀਆਂ ਜਿਹੀ ਕਿਰਤ ਨਾਲ ਹੁੰਦੇ ਨੇ ਬਲਾਤਕਾਰ,
ਅੱਖਾਂ ਟੱਡੀ ਵਿੰਹਦੀ ਰਹਿ ਜੇ ਮਾਂ,
ਪਾਲਦੇ ਕਨੂੰਨ ਸਾਰੇ ਕੰਮੀਆਂ ਨੂੰ ਲੁੱਟਣੇ ਦੇ,
ਮੁਨਸਫ਼ੀ ਦਾ ਉਤੋਂ ਉਤੋਂ ਵੇਸ।
ਕਿੱਦਾਂ ਦਾ ਨੀ ਮਾਏ ਤੇਰਾ ਦੇਸ਼...

ਰਾਜ ਏਥੇ ਸ਼ੇਰਾਂ, ਬਘਿਆੜਾਂ ਦਾ ਤੇ ਚੀੜਿਆਂ ਦਾ,
ਜੀਣ ਹਰਨੋਟੀਆਂ ਦਾ ਕੀ?
ਕੀ ਪਤਾ ਬੋਟੀ ਬੋਟੀ ਕਦੋਂ ਕਰ ਦੇਣਗੇ ਨੀ,
ਰੰਝਾਂ ਕਦੋਂ ਲੈਣਗੇ ਨੀ ਪੀ,
ਜਾਗੀਏ ਤਾਂ ਢੀਠ ਜਿਹੀਆਂ ਅੱਖਾਂ ਸਾਨੂੰ ਚੂੰਢਦੀਆਂ,
ਸੁੱਤੀਆਂ ਦੇ ਖਿੱਚ ਲੈਣ ਖੇਸ।
ਕਿੱਦਾਂ ਦਾ ਨੀ ਮਾਏ ਤੇਰਾ ਦੇਸ਼...

ਚੌਥੀਓਂ ਹਟਾ ਕੇ ਕਾਹਨੂੰ ਮੈਨੂੰ ਗੋਹੇ ਲਾ ਲਿਆ ਈ,
ਜੀ ਕਰੇ ਦੱਸਵੀਂ ਕਰਾਂ,
ਨਾਲ ਦੀਆਂ ਕੁੜੀਆਂ ਨੇ ਜਾਂਦੀਆਂ ਸਕੂਲ ਜਦੋਂ,
ਵੇਖ ਕੇ ਮੈਂ ਝੋਰੇ 'ਚ ਮਰਾਂ,
ਹੰਨੇ ਹੰਨੇ ਖੁੱਲ੍ਹੇ ਹੋਏ ਕੰਮ ਕੀ ਸਕੂਲ ਸਾਡੇ,
ਲਉਣ ਸਾਡੇ ਦਿਲਾਂ ਉਤੇ ਠੇਸ।
ਕਿੱਦਾਂ ਦਾ ਨੀ ਮਾਏ ਤੇਰਾ ਦੇਸ਼...

ਆਖੀਂ ਮਾਏਂ ਬਾਪੂ ਤਾਈਂ, ਵੀਰੇ ਨੂੰ ਮੈਂ ਆਖ ਦੇਊਂ,
ਚਿੰਤਾ ਮੇਰੀ ਚਿੱਤ 'ਤੇ ਨਾ ਲਾਉਣ,
ਚੇਤਨਾ ਦੀ ਸਰਘੀ ਨੂੰ ਬੁਜ਼ਦਿਲੀ ਦੇ ਨ੍ਹੇਰ ਕੱਟੇ,
ਵਿਹੜੀਂ ਚੱਲੀ ਆਬਰੂ ਦੀ ਪੌਣ,
ਹੱਕ ਦੇ ਸੰਘਰਸ਼ਾਂ 'ਚ ਸੱਚ ਦੀ ਕਚਹਿਰੀ ਵਿਚ,
ਝੂਠੇ ਹੁਣ ਚੱਲਦੇ ਨਾ ਕੇਸ।
ਉਚਿਆਂ ਚੁਬਾਰਿਆਂ ਦਾ ਬਹੁਤਾ ਤਾਂ ਨਈਂ ਹੱਕ ਮਾਏ,
ਸਾਨੂੰ ਵੀ ਪਿਆਰਾ ਸਾਡਾ ਦੇਸ਼।
ਘੁੱਗੀਆਂ ਤੇ ਚਿੜੀਆਂ ਵੀ ਉਡਣਾ ਹੈ ਗਗਨਾਂ 'ਚ
ਬਾਜ਼ਾਂ ਤਾਂ ਨਹੀਂ ਉਡਣਾ ਹਮੇਸ਼।
ਸ਼ਾਲਾ! ਵੱਸੇ ਮਾਏ ਤੇਰਾ ਦੇਸ਼...


ਕਿਰਤੀ ਨਾਰੀਏ!
- ਦਰਸ਼ਨ ਸਿੰਘ ਮਾਸਟਰ
ਰੰਬੇ ਤੇ ਦਾਤੀ ਵਾਲੀਏ!
ਭਾਰਤੀ ਦੀ ਕਿਰਤੀ ਨਾਰੀਏ
ਇਸ ਜੀਣ ਦਾ ਇਸ ਥੀਣ ਦਾ
ਭੁੱਖਾਂ ਤੇ ਦੁੱਖਾਂ ਸੰਦੜਾ
ਜੀਵਨ ਦਾ ਕੌੜਾ ਤਜਰਬਾ
ਹੱਡੀਂ ਰਚਾਇਆ ਜਾਪਦੈ
ਦੰਦੀਂ ਦਬਾਇਆ ਜਾਪਦੈ
ਚਾਅ ਮੰਿਹਦੀਆਂ ਦੀ ਰੁੱਤ ਦਾ
ਮਿੱਟੀ ਰੁਲਾਇਆ ਜਾਪਦੈ
ਦਿਨ ਚਾਰ ਦੀ ਵੀ ਚਾਂਦਨੀ
ਹੋਈ ਨਸੀਬਾਂ ਵਿਚ ਨਾ
ਕਿ ਬੇਕਸੀ ਨੇ ਆਣ ਕੇ
ਤੇ ਨ੍ਹੇਰ ਪਾਇਆ ਜਾਪਦੈ
ਨੀ ਉਪਰੋਂ ਮੂੰਹ ਮੀਟੀਏ!
ਪਰ ਅੰਦਰੋਂ ਦੁਖਿਆਰੀਏ!!
ਭਾਰਤ ਦੀ ਕਿਰਤੀ ਨਾਰੀਏ

ਕੁਝ ਬੋਲ ਮੂੰਹੋਂ ਫੁਟ ਨੀ
ਦਿਲ ਖੋਹਲ ਮੂੰਹੋਂ ਫੁਟ ਨੀ
ਲਾਚਾਰਗੀ ਨੇ ਕਿਸਤਰਾਂ
ਦੁਸ਼ਵਾਰਗੀ ਨੇ ਕਿਸਤਰਾਂ
ਅਰਮਾਨ ਛੱਡੇ ਕੁੱਟ ਨੀ
ਅਜ਼ਹਾਰ ਛੱਡੇ ਘੁੱਟ ਨੀ
ਤੂੰ ਦੱਸ ਤੇ ਸਹੀ ਕਿਸਤਰਾਂ
ਦਮ ਤੋੜ ਗਈਆਂ ਹਸਰਤਾਂ
ਚਾਵਾਂ ਦੇ ਲੱਥੇ ਘਾਣ ਨੀ
ਦਰਦਾਂ ਦੇ ਖਾ ਕੇ ਬਾਣ ਨੀ
ਦੱਸੀਂ ਜ਼ਰਾ ਕੁ ਖੋਹਲ ਕੇ
ਬੇਖ਼ੌਫ ਉਚੀ ਬੋਲਕੇ
ਤੈਨੂੰ ਦਿਹਾੜੀ ਨਾ ਮਿਲੀ
ਜਦ ਹੋ ਰਹੀ ਬਰਸਾਤ ਸੀ
ਆਟਾ ਚਿਰਾਂ ਦਾ ਮੁੱਕਿਆ
ਨਾ ਦਾਲ ਸੀ ਨਾ ਭਾਤ ਸੀ
ਕਿੱਦਾਂ ਲੰਘਾਈ ਭੁੱਖਿਆਂ
ਦੁੱਖਾਂ ਸਰਾਪੀ ਰਾਤ ਸੀ
ਨੀ ਬੇਕਸੀ ਦੀ ਮੂਰਤੇ!
ਸੂਰਤ ਬਿਆਨੋਂ ਬਾਹਰੀਏ!
ਭਾਰਤ ਦੀ ਕਿਰਤੀ ਨਾਰੀਏ!!

ਜਾਣਾ ਪਰਾਏ ਬਾਰ ਤੂੰ
ਕਰਨੀ ਪਰਾਈ ਕਾਰ ਤੂੰ
ਡੁੱਬੇ ਤੋਂ ਪਿਛੋਂ ਪਰਤਣਾ
ਜਾਣਾ ਏ ਚੜ੍ਹਦੇ ਸਾਰ ਤੂੰ
ਇਕ ਛੋਲਿਆਂ ਦੀ ਲੱਪ 'ਤੇ
ਹੀ, ਡੰਗ ਲੈਣਾ ਸਾਰ ਤੂੰ
ਜੇ ਨਾ ਮਿਲੇ ਤਾਂ ਸਬਰ ਦਾ
ਲੈਨੀ ਏਂ ਫੱਕਾ ਮਾਰ ਤੂੰ
ਫਾਕੇ ਤੇ ਫਾਕਾ ਜਰਦਿਆਂ
ਕਿੱਦਾਂ ਦਲੀਲਾਂ ਕਰਦਿਆਂ
ਅੜੀਏ! ਲੰਘਾਉਂਦੀ ਝੱਟ ਤੂੰ
ਦਿਨ ਕਿਵੇਂ ਰਹੀ ਏਂ ਕੱਟ ਤੂੰ
ਉਨਤੀ ਦੇ ਝੂਠੇ ਦਾਅਵਿਆਂ
ਦੇ ਵੱਲ, ਖੁਲ੍ਹੀ ਬਾਰੀਏ!
ਭਾਰਤ ਦੀ ਕਿਰਤੀ ਨਾਰੀਏ!!

ਕੀ ਪੱਬ ਤੇਰੇ ਜਾਣਦੇ
ਨੇ, ਗਿੱਧਿਆਂ ਦੀ ਰੁੱਤ ਨੂੰ
ਕੀ ਕਿਕਲੀ ਦੇ ਨਾਲ ਆਉਂਦੈ
ਮੇਲਣਾ ਵੀ ਗੁੱਤ ਨੂੰ
ਸ਼ੀਸ਼ੇ ਦੇ ਸਾਹਵੇਂ ਸਿਮਟਣਾ
ਆਉਂਦਾ ਏ ਤੇਰੇ ਬੁੱਤ ਨੂੰ?
ਕੀ ਮਾਂਗ ਦੇ ਸੰਧੂਰ ਦਾ
ਤੂੰ ਮਾਣਿਆ ਏ ਰੰਗ ਨੀ?
ਮਦਹੋਸ਼ ਹੋਈ ਏਂ ਕਦੇ
ਕੀ ਸੁਪਨਿਆਂ ਦੇ ਸੰਗ ਨੀ?
ਆਕਾਰ ਵਿਹੜੇ ਦਾ ਕਦੇ
ਕੀ ਜਾਪਿਆ ਏ ਤੰਗ ਨੀ?
ਚੜਿਆ ਨਹੀਂ ਗੁੱਸਾ ਰੀਝ ਨੂੰ
ਪਾਈ ਨਹੀਂ ਚਾਵਾਂ ਕੰਗ ਨੀ?
ਮਹਿਸੂਸ ਹੋਈ ਨਹੀਂ ਕਦੇ
ਹੁੰਦੀ ਚੌਫੇਰੇ ਜੰਗ ਨੀ?
ਆਖਰ 'ਚੁਗਿਰਦੇ' ਹੋਣਗੇ
ਸੋਚਾਂ ਨੂੰ ਮਾਰੇ ਡੰਗ ਨੀ
ਕੌੜਾ ਕਸੈਲਾ ਜਾਪਿਆ
ਹੋਊਗਾ ਜੀਵਨ ਢੰਗ ਨੀ
ਲੜ ਮਰਨ ਉਤੇ ਉੱਤਰੇ
ਫਰਕੇ ਤਾਂ ਹੋਸਣ ਅੰਗ ਨੀ
ਲਹਿਰਾਂ ਤੋਂ ਖਾਲਮ ਖਾਲੀਏ!
ਝੀਲੇ ਭਰੀਚੀ ਖਾਰੀਏ!
ਭਾਰਤ ਦੀ ਕਿਰਤੀ ਨਾਰੀਏ!!


ਲੱਕ ਤੋੜ ਕੇ ਰੱਖ ਦਿੱਤਾ ਹੈ........
- ਸੁਭਾਸ਼ 'ਦੀਵਾਨਾ'
ਲੱਕ ਤੋੜ ਕੇ ਰੱਖ ਦਿੱਤਾ ਹੈ ਲੋਕਾਂ ਦਾ ਮਹਿੰਗਾਈ ਨੇ।
ਇਸ ਤੋਂ ਵੱਧ ਕੇ ਬੇਕਾਰੀ ਨੇ ਇਸ ਸਿਸਟਮ ਦੀ ਜਾਈ ਨੇ।
ਸਰਕਾਰੀ ਰੁਜ਼ਗਾਰ ਦਾ ਫਸਤਾ ਵੱਢ ਦਿੱਤਾ ਸਰਕਾਰਾਂ ਨੇ,
ਦੇਸ਼ ਨੂੰ ਠੇਕੇ ਤੇ ਦੇ ਦੇਣੈਂ ਇਸ ਪ੍ਰਬੰਧ ਕਸਾਈ ਨੇ।
ਨਸ਼ਿਆਂ ਦੀ ਦਲਦਲ ਦੇ ਅੰਦਰ ਨੌਜਵਾਨ ਧਸਦੇ ਜਾਂਦੇ,
ਕਿਸ਼ਤਾਂ ਦੇ ਵਿਚ ਲਾ ਲੈਣੇ ਨੇ ਗਲੇ ਮੌਤ ਹਰਜਾਈ ਨੇ।
ਧੰਨੇ ਸ਼ਾਹ ਰਜਵਾੜੇ ਮਿਲ ਗਏ ਸਾਮਰਾਜ ਆਕਾ ਦੇ ਸੰਗ,
ਪਾਣੀਓਂ ਪਤਲੇ ਹੋ ਜਾਣਾ ਹੈ ਬਾਕੀ ਕੁਲ ਲੁਕਾਈ ਨੇ।
ਦਿਨੇ ਰਾਤ ਇਹ ਚੜ੍ਹ ਕੇ ਟੈਂਸ਼ਨ ਸਿਰ ਦੇ ਉਤੇ ਨੱਚਦੀ ਹੈ,
ਠੰਡੀ ਹੋ ਗਈ ਬਰਫ ਦੇ ਵਾਂਗੂੰ ਕੀ ਕੀਤਾ ਗਰਮਾਈ ਨੇ।
ਢਿੱਡੋਂ ਭੁੱਖਾ  ਨੰਗੇ ਸਭਿਆਚਾਰ ਨੂੰ ਵਿੰਹਦਾ ਰਹਿੰਦਾ ਹੈ,
ਆਪਣੇ ਪੈਂਰੀ ਆਪ ਕੁਹਾੜਾ ਮਾਰ ਲਿਆ ਸ਼ੌਦਾਈ ਨੇ।
ਮੱਥੇ ਜਿਨ੍ਹਾਂ ਦੇ ਦੀਪਕ ਬਲਦੈ ਫਰਜ਼ ਉਨ੍ਹਾਂ ਦਾ ਜ਼ਿਆਦਾ ਹੈ,
ਅੰਦਰ ਵੜ ਕੇ ਕਦ ਤਕ ਦੱਸੋ ਰਹਿਣਾ ਹੈ ਦਾਨਾਈ ਨੇ।
ਕੁੱਝ ਨਰਕੀ ਜੀਵਨ ਤੋਂ ਸਿਖਣੈ ਕੁਝ ਸਿਖਣੈ ਹਮਦਰਦਾਂ ਤੋਂ,
ਇਨਕਲਾਬ ਦਾ ਰੂਪ ਵਟਾਉਣੈ ਜੀਵਨ ਦੀ ਰੁਸਵਾਈ ਨੇ।

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