Friday, 9 October 2015

प्रधान मंत्री की खोखली नारेबाजी

हरकंवल सिंह 
देश के प्रधानमंत्री द्वारा 15 अगस्त को लाल किले की प्राचीर से दिया गया भाषण इस बार भी निराशाजनक ही रहा। उपनिवेशवादी दासता से मुक्ति प्राप्त करने के महत्त्व को दर्शाते इस दिवस पर, राष्ट्र को संबोधित करते हुये, आम दौर पर प्रधान मंत्रियों द्वारा कई महत्त्वपूर्ण घोषणाएं की जाती रही हैं। परंतु आम लोगों की आशाओं के विपरीत, श्री नरेंद्र मोदी ने अपने लगभग 40 मिनट के इस भाषण में देशवासियों के समक्ष खड़ी वास्तविक व तात्कालिक समस्याओं से राहत देती किसी भी भविष्य की योजना को पेश नहीं किया। अधिकतर समय सरकार को पिछले सवा साल की तथाकथित उपलब्धियों का गुणगान करने पर ही खर्च कर दिया।  इसलिये सर्वप्रथम, इन हवाई दावों की जांच-पड़ताल करनी आवश्यक है।
वैसे तो चुनावों के समय राजसत्ता हथियाने के लिये भारतीय जनता पार्टी के शीर्षशस्थ नेता के रूप में, श्री मोदी ने लोगों के हर वर्ग से ही बहुत बड़े-बड़े वायदे किये थे। परंतु सत्ता के हाथ में आते ही मोदी सरकार ने वे समस्त वायदे तुरंत ही नजरंदाज कर दिये। इस कड़वे सच को हम बार-बार पेश करते आ रहे हैं। यद्यपि यहां हम सिर्फ पिछले साल के स्वतंत्रता दिवस पर श्री नरेंद्र मोदी द्वारा दिये गये अपने पहले भाषण के दौरान की गई दो विशेष घोषणाओं पर हुये अमल की ही जांच-पड़ताल करना चाहते हैं। इनमें से एक को उन्होंने इस बार भी अपनी बड़ी उपलब्धि के रूप में प्रचारा है। यह है प्रधानमंत्री जन-धन योजना। इस योजना द्वारा ‘‘देश के निर्माण व जन कल्याण’’ में आम लोगों की वित्तीय भागीदारी (स्नद्बठ्ठड्डठ्ठष्द्बड्डद्य ढ्ढठ्ठष्द्यह्वह्यद्ब1द्गठ्ठद्गह्यह्य) बढ़ाने के लिये अधिक से अधिक बैंक खाते खुलवाने का तिथीबद्ध निशाना रखा गया था। इस संबंध में दावा किया गया है कि इस योजना के अंर्तगत आम मेहनतकश लोगों के बैंक खाते खुलवाने के लिये चलाये गये अभियान के फलस्वरूप 26 जनवरी 2015 तक 10 करोड़ के निशाने को पार करते हुये 17 करोड़ लोगों के नये खाते खोले गये हैं। जिससे बैंकों के पास 20,000 करोड़ रुपये की अतिरिक्त पूंजी जमा हो गई है। परंतु सरकार की इस -‘महान उपलब्धि’ से खाते खुलवाने वालों को तो कोई ऐसा नया लाभ प्राप्त नहीं हुआ जिससे कि उनकी आर्थिक स्थिति में कोई सुधार हुआ हो; बिना इसके कि रसोई गैस का उपयोग करते परिवार की गैस सबसिडी अब सीधी उसके खाते में आने लगी है। जबकि इस सब्सिडी को स्वैछिक रूप से त्यागने की अपीलें भी साथ ही आरंभ हो गई हैं। बैंक खाते खुलवाना कोई बड़ी व चमत्कारिक उपलब्धि नहीं है। यह हर व्यक्ति की आमदनी व बचत पर निर्भर करता है, सरकार के इस अभियान पर नहीं। यहा कारण है कि यह नये खाते जरूर तो खुल गये हैं परंतु देखने वाली बात तो यह है कि उन पर लेन-देन कितना हो रहा है? यहां यह याद रखना जरूरी है कि पूंजीवादी प्रणाली के प्रसार के लिये वित्तीय भागीदारी के ऐसे नारे पहले भी लगते रहे हैं। ऐसे नारों के अंर्तगत ही पूंजी-बाजार (स्द्धड्डह्म्द्ग रूड्डह्म्द्मद्गह्ल) में बड़ी-बड़ी कंपनियों के शेयर खरीदने वाले साधारण लोगों की कमाई तो पूंजीपतियों के पास जमा होती गई है, परंतु उसका उपयोग ना कभी शेयर होल्डरों के हितों में हुआ है तथा ना आम देशवासियों के हितों में। यह समूची पूंजी तो, इसके विपरीत, इन कंपनियों के मालिकों की इजारेदाराना लूट की लालसा को और तीब्र करने का साधन ही बनी है। भिन्न-भिन्न कंपनियों के शेयर खरीदने वाले साधारण लोगों के लिये तो यह पूंजी हमेशा बाजार में होते अति चंचल उतारों-चड़ावों की अनिश्चितता पर आधारित चिंताओं का कारण ही बनी रहती है। तथा, कई बार तो यह डूब भी जाती है। हो सकता है कि मोदी मार्का नई वित्तीय भागीदारी का भी ऐसा ही हश्र हो।
पिछले वर्ष के स्वतंत्रता दिवस भाषण में प्रधानमंत्री ने यह घोषणा की थी कि वह देश के योजना आयोग को खत्म कर देंगे। उन्होंने यह वादा पूरा किया है तथा योजना आयोग की जगह एक अर्थहीन नीति आयोग का गठन कर दिया है। परंतु इस नये ‘करिश्मे’ का जिक्र नहीं किया गया। कारण? योजना आयोग का क्रियाकर्म कर देने के साथ देश की अर्थव्यवस्था को तो कोई लाभ  मिला नहीं बल्कि मेहनतकश जनसमूहों को नुकसान जरूर पहुंचा है इससे गरीबों विशेष रूप से पिछड़े हुए ग्रामीण क्षेत्रों के मेहनतकशों को तो छोटी मोटी वित्तीय सुविधायें देने वाली स्कीमों के लिये राशियां आरक्षित रखने की प्रबंधकीय प्रणाली ही बंद हो गई है। परिणामस्वरूप केंद्रीय बजट बनाते समय राज्यों की विशेष आवश्यकताओं को ध्यान में रखने तथा योजना आयोग द्वारा उनकी राय लेने की प्रक्रिया ही समाप्त हो गई है; तथा बजट बनाने का कार्य पूर्ण रूप से साम्राज्यवादी शक्तियों तथा कारपोरेट घरानों के सरकारी व गैर सरकारी प्रतिनिधियों के हाथों में चला गया है। इस बार शिक्षा, स्वास्थ्य, आवास व ग्रामीण विकास से संबंधित सरोकारों तथा मिड डे मील जैसी महत्त्वपूर्ण योजनाओं के लिये कम राशियां रखना इसके प्रारंभिक प्रमाण हैं।
यह तो थे कुछ पिछले वायदे! जहां तक नये वायदों व दावों का संबंध है, प्रधान मंत्री जी ने अपने इस भाषण में लच्छेदार लफ्फाजी का उपयोग तो जरूर किया है परंतु लोगों की झोली में कुछ नहीं डाला। लोगों के वास्तविक मुद्दे थे : सामाजिक व आर्थिक पिछड़ापन, निरंतर बढ़ती महंगाई, बेरोजगारी व असुरक्षा तथा देश में संस्थागत रूप धारण कर चुका भ्रष्टाचार। इन समस्त विशालकाय मुद्दों में से महंगाई के बारे में बोलते हुए मोदी जी ने कहा कि उनकी सरकार के प्रयत्नों से देश में महंगाई की दर दो अंकों (अर्थात 10 प्रतिशत से अधिक) से घटकर 3-4 प्रतिशत तक आ गई है। आंकड़ों की ऐसी जादूगरी से वे तो इस दर का ऋणात्मक (मनफी) हो जाना भी सिद्ध कर सकते हैं। परंतु हकीकत यह है कि देश में आटा, चावल, दालें, सब्जियां तथा रोजाना उपयोग की समस्त ही वस्तुओं की कीमतें निरंतर बढ़ती ही गई हैं। मोदी शासन के दौरान दालों की कीमतें 100 रूपये किलो को पार कर चुकी हैं। अब तो प्याज भी 70-80 रुपये किलो तक पहुंच गया है। सब्जियां भी आम आदमी की पहुंच से बाहर जा रही हैं। इस भयंकर महंगाई के कारण गरीबों के लिये दो वक्त की भरपेट रोटी जुटाना भी एक बड़ी मुसीबत बना हुआ है। परंतु प्रधानमंत्री जी लाल किले की प्राचीर से तो यह दावा कर रहे हैं कि उन्होंने महंगाई को नकेल डाल दी है। अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतों में तीव्र गिरावट आने से डीजल व पैट्रोल की कीमतें जरूर घटी हैं, परंतु हमारे देश में तो वह भी उस अंतरराष्ट्रीय गिरावट के अनुपात में नहीं घट रहीं। इसीलिए हम यह दावे से कह सकते हैं कि गरीबों के उपयोग में आती किसी भी वस्तु का मुल्य नहीं घटा, अमीरों द्वारा उपयोग में लाई जाती वस्तुओं की कीमतें जरूर कुछेक घटी हैं। इस स्थिति में आंकड़ों की धोखाधड़ी द्वारा ही ऐसा शर्मनाक झूठ बोला जा सकता है।
जहां तक रोजगार का संबंध है, देश में गुजारे योग्य रोजगार के संसाधन बढ़ नहीं रहे। साम्राज्यवादी वित्तीय पूंजी द्वारा अधिक से अधिक मुनाफे बटोरने की अमानवीय लालसा के कारण उपजी वैश्विक आर्थिक मंदी का भी रोजगार के हो रहे इस क्षरण पर प्रभाव पड़ रहा है। परंतु इसके लिए मुख्य रूप से हमारे शासकों की पूंजीपतिपरस्त नीतियां जिम्मेवार हैं। सरकार द्वारा सार्वजनिक क्षेत्र में पूंजी निवेश बढ़ाये बिना रोजगार के संसाधन बढ़ नहीं सकते। यद्यपि सरकार तो, इसके विपरीत, निजीकरण के रास्ते पर चल रही है। इस स्थिति में रोजगार के अवसर कैसे पैदा हो सकते हैं? इस उद्देश्य के लिये सरकार की मुख्य निर्भरता तो विदेशी वित्तीय पूंजी (स्नष्ठढ्ढ) पर है, जो कि हर जगह तथा हमेशा ही नई मुश्किलें पैदा करती है। इस समूची पृष्ठभूमि में, प्रधान मंत्री जी ने इस बार ‘स्टार्ट तथा स्टैंड अप’ का नया नारा दिया है। जिसके अंर्तगत देश के भीतरी समस्त बैंकों की 125 लाख शाखाओं का आह्वान किया गया है कि हर शाखा कम से कम एक आदिवासी/दलित को स्व-रोजगार के लिये कर्ज दे ताकि देश में 125 लाख नये उद्यमी पैदा हो सकें, जो आगे अन्य लोगों के लिये रोजगार के संसाधन पैदा करें। यह ठीक है कि देश में आत्म निर्भरता पर आधारित आर्थिकता को मजबूत बनाने तथा रोजगार के अवसर पैदा करने के लिये छोटे व मध्यम कारोबारों को बढ़ावा देना इस समय हमारी प्राथमिक आवश्यकता है। परंतु ऐसे छोटे कारोबारियों के रास्ते में बड़ी रूकावटें हैं। बहुराष्ट्रीय कारपोरेशनों से चल रही मुकाबलेबाजी, जिसके लिये मोदी सरकार ने देश की अर्थव्यवस्था को पूर्ण रूप से खोल दिया है तथा छोटे उद्यमियों के लिये आरक्षित 28 क्षेत्र भी खत्म कर दिये हैं। ऐसी स्थिति में इन नये 1 करोड़ 25 लाख नये उद्यमियों का भविष्य क्या होगा? इसका अंदाजा लगाना कोई ज्यादा मुश्किल नहीं। स्पष्ट है कि यह नया नारा भी एक धोखे भरी चाल से अधिक कुछ नहीं है। क्योंकि इस सरकार द्वारा तो मनरेगा, जिससे भूमिहीन ग्रामीण मजदूरों, विशेष रूप में औरतों को मामूली सी राहत मिली थी, का घेरा भी येन प्रकरेण और तंग किया जा रहा है।
प्रधानमंत्री जी ने भ्रष्टाचार मुक्त भारत का निर्माण करने के भी बड़े बुलंद-बांग दावे किये हैं तथा बड़े जोर से यह कहा है कि उसकी सरकार पर भ्रष्टाचार का ‘‘एक भी दोष नहीं है।’’ यह उनका कितना हास्यस्पद दावा है? संसद का समूचा वर्षाकालीन सैशन, भ्रष्टाचार के घोटालों की भेंट चढ़ा है तथा, घोटाले भी ऐसे जो कि किसी जांच के मोहताज नहीं, बल्कि मुंह से बोलते हैं। इसके बावजूद ऐसी दावेदारी करना शर्मनाक हठधर्मिता का सबूत देना ही कहा जा सकता है। वैसे भी, जमीनी स्तर पर, देश में आज भी भ्रष्टाचार व रिश्वतखोरी का वैसे ही बोलबाला है जैसे कि पिछली कांग्रेसी सरकारों के समय था।
इस भाषण में प्रधान मंत्री ने किसानों की दयनीय स्थिति के बारे में गहरी चिंता प्रकट की है। तथा, कर्ज के जाल में फंसे हुये किसानों द्वारा आत्म-हत्यायें करने की त्रासदीपूर्ण अवस्था से उन्हें मुक्त करने के लिये खेती विभाग का नाम बदल कर ‘खेती व किसान भलाई’ विभाग रखने की घोषणा की है। संकटग्रस्त किसानी के साथ इससे बड़ा मजाक क्या हो सकता है? प्रधानमंत्री जी को शायद यह तो ज्ञान होगा ही कि सिर्फ शाब्दिक शुभ कामनाओं से रोगी को ठीक नहीं किया जा सकता, इसके लिये तो कारगर दवा देनी आवश्यक होती है। इसके बावजूद ना स्वामीनाथन कमिशन की सिफारशें लागू करने का कोई जिक्र, ना फसल बीमे या ब्याज रहित कर्ज का कोई आश्वासन तथा ना ही खेती लागतें घटाने के लिये विदेशी कंपनियों द्वारा सप्लाई किये जाते बीजों, खादों व कीटनाशकों आदि की इजारेदाराना कीमतों को नकेल डालने की कोई गारंटी। केवल विभाग का नाम बदलकर किसानों की वर्तमान त्रासदी को समाप्त करने का प्रस्ताव तो निश्चय ही मोदी साहिब की एक अनोखी खोज है।
पिछले वर्ष सरकार द्वारा ‘‘स्वच्छ भारत’’ के नारे के अंर्तगत की गई नाटकबाजी का प्रधान मंत्री ने बहुत गुणगान किया। इस नारे के अंर्तगत, स्कूलों में शौचालय बनाने के लिये कई जगहों पर निश्चित ही अच्छी पहलकदमियां भी हुई हैं। परंतु इस उद्देश्य के लिये टी.वी. पर बार बार दिखाये जाते ‘‘जहां सोच वहां शौचालय’ के विज्ञापन मोदी सरकार के अस्तित्त्व में आने से कई वर्ष पहले से दिखाये जा रहे हैं। इस सरकार की यह कोई नई खोज नहीं है। शौचालय बन जाने के बाद अगली चुनौती है इन्हें उपयोग योग्य स्थिति में साफ सुथरा बनाये रखना। इसके लिये आवश्यक प्रबंधों की कमी के कारण अधिकतर बस स्टैंडों, रेलवे स्टेशनों व अस्पतालों में आज भी स्थिति बहुत दयनीय व अफसोसजनक है।
इस भाषण में प्रधान मंत्री ने श्रमिकों को सम्मान देने के बारे में भी अपनी सरकार की ‘चिंता’ का बहुत बढ़ा-चढ़ा कर जिक्र किया है। इस उद्देश्य के लिये जरूरी है कि मजदूरों द्वारा अपनी सेवा हालतों को बेहतर बनाने के लिये लंबे संघर्षों द्वारा स्वीकार करवाये गये श्रम कानूनों को पूरी तरह लागू करवाया जाये। परंतु मोदी सरकार तखा भाजपा के नेतृत्व वाली राज्य सरकारों ने तो ‘‘श्रम सुधार’’ के दंभी पर्दे में समूचे ट्रेड यूनियन अधिकारों को ही समाप्त कर देने का बीड़ा उठा लिया है। ठेका प्रणाली ने तो पहले ही स्थाई रोजगार की गरंटी, कार्य दिवस की समय-सीमा, न्यूनतम वेतन, दुर्घटनाओं की स्थिति में मुआवजे आदि की समस्त व्यवस्थायें समाप्त कर दी हैं। इस स्थिति में श्रमिकों का सम्मान बढ़ाने के लिये थोथी शब्दावलि का सहारा लेना उनके घावों पर नमक छिडक़ने के समान है।
मोदी सरकार के बनने के उपरांत संघ परिवार तथा उससे संबंधित संगठनों के जिम्मेवार नेताओं द्वारा ‘धर्म आधारित राज्य’ का गठन करने के उद्देश्य से देश भर में फिरकू जहर बार-बार उगला जा रहा है। इसके कारण भारत में मुसलमानों की अधिक जनसंख्या वाले विशेष क्षेत्र जम्मू-कश्मीर में राजनीतिक समस्याऐं अधिक पेचीदा व चिंताजनक होती जा रही हैं। इसका भारत-पाक संबंधों पर भी बुरा प्रभाव पड़ रहा है। इसलिये, पाकिस्तान से द्विपक्षीय वार्ता का रास्ता खोलने व उसे सार्थक बनाने के लिये भारत सरकार द्वारा ठोस पहलकदमी किये जाने की विशेष रूप से आवश्यकता है। परंतु देशवासियों की दिन-प्रतिदिन गंभीर होती जा रहीं अन्य बहुत सी सामाजिक-आर्थिक समस्याओं की तरह ही प्रधान मंत्री ने अपने इस भाषण में इस चिंताजनक मुद्दे को बिल्कुल ही अनदेखा किया है। जिसके बुरे परिणाम सामने आ गये हैं। दोनों देशों के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकारों के बीच होने वाली बातचीत शुरू ना हो सकने के कारण परस्पर कड़वाहट और बढ़ गई है। इससे देशवासियों के लिये नई आर्थिक समस्याएं ही नहीं बल्कि सुरक्षा से संबंधित नये खतरे भी पैदा हो सकते हैं। यह निश्चित ही लोगों के लिये आज गंभीर चिंता का विषय है।
मोदी सरकार की इस समस्त जन विरोधी पहुंचों के विरूद्ध जागरूक होने की भी आज बड़ी आवश्यकता है तथा इन्हें परास्त करने के लिये एकजुट होने की भी। 
(संपादकीय, सितंबर 2015 अंक)

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