Sunday 6 July 2014

वामपंथी पक्षों के समक्ष कुछ फौरी कार्य

16वीं लोक सभा के चुनावों में वामपंथी पार्टियों का प्रदर्शन बहुत ही निराशाजनक रहा है। समूची वामपंथी पार्टियां  लोकसभा की सिर्फ 12 सीटें ही जीत पाई हैं। सी.पी.आई.(एम)-9, सी.पी.आई.-1, वामपंथियों द्वारा समर्थित आजाद-2 तथा वोट प्रतिशत भी कुल 4.4 प्रतिशत रहा है। सी.पी.आई.(एम) 3.2 प्रतिशत, सी.पी.आई. 0.8 प्रतिशत, सी.पी.आई.(एम.एल.) लिबरेशन 0.2 प्रतिशत, फार्वर्ड ब्लाक 0.2 प्रतिशत है। इसके अतिरिक्त अलग अलग प्रांतों में गैर मान्यता प्राप्त भिन्न भिन्न वामपंथी दलों ने भी कुछ वोटें प्राप्त की है। वामपंथ सीटें जीतने के मामले में अभी भी सबसे नीचे है। 
देश की बाहरमुखी स्थितियां क्रांतिकारी व प्रगतिशील शक्तियों के लिए मेहनतकश लोगों में अधिक से अधिक समर्थन जुटाकर विशाल जनआधार कायम करने के लिए बहुत ही उपयुक्त हैं, क्योंकि कांग्रेस व भाजपा द्वारा चलाई गई केंद्रीय व प्रांतीय सरकारों की जनविरोधी व भ्रष्ट नीतियों के कारण गरीबी, बेकारी, भुखमरी, महंगाई, शिक्षा तथा अन्य अनेक तरह की मुश्किलों का दर्द झेल रहे लोग इन दोनों पक्षों से निराश हैं तथा जनपक्षीय विकल्प की तलाश में हैं। सत्ताधारी पक्षों की साम्राज्यवाद के साथ बढ़ रही आर्थिक व राजनीतिक सांठ-गांठ के कारण देश नवउदारवादी जंजीरों में जकड़ता जा रहा है। देश के हर क्षेत्र में विदेशी पूंजी निवेश को मंजूरी दी जा रही है, परिणामस्वरूप भारतीय बाजार का साम्राज्यवादी हाथों में चले जाना भी संभव ही नहीं बन गया, बल्कि भारत के प्राकृतिक व मानवीय संसाधनों की अंधाधुंध लूट के लिए रास्ता साफ हो गया है। भारतीय कार्पोरेट घराने लोगों की गाढ़े पसीने की कमाई को बेरहमी से लूट कर अपना नाम दुनिया के उच्चतम अमीरों की कतारों में दर्ज करवा रहे हैं तथा देश का श्रमिक विश्व के सबसे अधिक शोषित लोगों की कतार में खड़ा दिखाई दे रहा है। 
यह दो चित्र आजादी के बाद के सालों में सत्ताधारियों द्वारा अपनाई गई आर्थिक नीतियों के परिणामस्वरूप उभरे हैं। सांप्रदायिक शक्तियों ने देश की सत्ता पर कब्जा करके भारत की समूची राजनीति व अर्थव्यवस्था को दक्षिणपंथी मोड़ देने का एलान कर दिया है। ऐसी परिस्थितियों में वामपंथी पार्टियां ही हैं जो देश के गरीबी व कंगाली से जूझ रहे आवाम को संगठित करके संघर्षों के रास्ते पर डाल सकती हैं तथा साम्राज्यवाद, कार्पोरेट जगत व जागीरदारी की रखैल बनी मौजूदा केंद्रीय व राज्य सरकारों के विरुद्ध एक वैकल्पिक लोक पक्षीय बदल खड़ा करने की सामथ्र्य रखती हैं। परंतु ऐसा नहीं हो रहा, जिसमें अंतरराष्ट्रीय स्तर पर समाजवाद को लगे धक्कों तथा पूंजीवादी ढांचे के तीव्र आर्थिक विकास द्वारा लोगों के एक भाग को मिली सुख सुविधाओं जैसे कारक  शामिल होने के साथ साथ मूल कारण भारत के वामपंथी आंदोलन में मौजूद अंतरमुखी कारण हैं। माक्र्सवाद-लेनिनवाद के अनुयायी होने का दावा करने वाली कई वामपंथी र्पािर्टयां सत्ताधारी शोषक वर्गों व इसकी संरक्षक केंद्रीय व राज्य सरकारों के विरुद्ध स्पष्ट विरोधी व समझौता रहित स्टैंड ही नहीं ले रहीं। उनके विरुद्ध निरंतर जनसंघर्ष चलाना तो बाद की बात है। किसी न किसी बहाने इन वामपंथी दलों ने पूंजीपति-जागीरदार वर्गों के एक गुट के विरुद्ध, दूसरे के साथ सांठगांठ करने का स्वभाव ही बना लिया है।  जब निर्णय वर्गीय न होकर अवसरवादी चुनावी राजनीति से प्रभावित व व्यक्तियों पर केंद्रित हो तब सिद्धांतों की बलि देने का  यही परिणाम होता है। वर्षों निरंतर जनविरोधी सरकारों के विरुद्ध किये गए संघर्ष व ब्यानबाजी लोकसभा व विधानसभा चुनावों की देहरी पर आते ही शांत हो जाते हैं। शत्रुओं से सहयोग करते समय शायद पार्टी के उच्च नेता व कमेटियां लोगों में वामपंथी आंदोलन के प्रति पैदा हो रहे अविश्वास को महसूस न करें, परंतु जनसाधारण इस गैर-सैद्धांतिक राजनीति से नाराज होकर इन पार्टियों से किनाराकशी जरूर कर रहे हैं। ऐसे में ईमानदार कार्यकर्ता भी निराश होने से नहीं बच सकते। पिछले इतिहास में अपनाए गए ऐसे अवसरवादी संसदीय भटकावों व वर्गीय सहयोग आधारित राजनीतिक लाइन पर कम्युनिस्ट पार्टियों ने अपनी बैठकों व पार्टी सम्मेलनों में विचार विमर्श तो किया है तथा इसे दरुस्त करने का ऐलान भी किया है। परंतु हर बार चुनावों के समय पुन: वही कुछ किया जाता है, जिससे छुटकारा पाने का प्रण पहले किया गया होता है। 
अवसरवादी राजनीति, पार्टी संगठन, पार्टी नेताओं व कार्यकत्ताओं को भी गैर-कम्युनिस्ट व्यवहारों व रूचियों में लपेट लेती है। गुटबाजी, लिहाजदारी, भ्रष्टाचार, अनैतिक चरित्र, सत्ताधारी शक्तियों से मेल मिलाप द्वारा स्वार्थी हितों को बढ़ावा देने का खतरनाक रुझान आदि ऐसी प्रवृतियां हैं, जो माक्र्सवाद-लेनिनवाद की बुनियादी शिक्षाओं से भटक कर अवसरवादी राजनीति के रास्ते चल रही किसी भी वामपंथी पार्टी को अवश्य ही  अपनी लपेट में ले लेती हैं। 
भिन्न-भिन्न वामपंथी र्पािर्टयों द्वारा शत्रु वर्गों व मित्र पक्षोंं की निशानदेही समान न होना भी वामपंथी ऐकता के रास्ते में बड़ी रूकावट है। यदि एक ही कम्युनिस्ट पार्टी में राजनीतिक, सैद्धांतिक व संगठनात्मक एकजुटता नहीं है तब भी वह पार्टी क्रांतिकारी जिम्मेवारियों निभाने के योग्य नहीं हो सकती। इसीलिए यदि यह प्रवृति भिन्न-भिन्न कम्युनिस्ट व वामपंथी पक्षों में मौजूद है तो सद् इच्छाओं के होते हुए भी वाम एकता एक मृगतृष्णा ही बनी रहेगी। कौन सी पार्टी राजनीतिक व सैद्धांतिक भटकाव का ज्यादा मात्रा में शिकार है, अभी यह भी तय नहीं किया जा सकता। हर वामपंथी पार्टी अपने आप को सही बताकर दूसरे की गलतियों पर ऊंगली रखेगी। इस मामले में इक_े बैठकर अभी तक कोई संयुक्त राय विकसित नहीं हुई है। इसलिए यदि वामपंथी पार्टियों ने देश व प्रांत में राजनीतिक रूप पर एक मजबूत व वैकल्पिक शक्ति के रूप में उभरना है, तो समस्त छोटी व बड़ी वामपंथी पार्टियों को बिना देरी किए मिल बैठकर आपसी विचार विमर्श शुरू करना चाहिए। भिन्न भिन्न कम्युनिस्ट पक्षों द्वारा अतीत में अपनाई गई राजनीतिक लाईनों को एक दूसरे को समझने के नजरिये से बहस के केंद्र में लाने की जरूरत है। अहंकार, बड़े होने का संदेह तथा सैद्धांतिक इजारेदारी के मालिक होने का भ्रम किसी भी वामपंथी पार्टी के लिए घातक होगा तथा उसको अपनी कमजोरियों पर काबू पाने के योग्य नहीं बना सकेगा। समस्त वामपंथी पक्ष आपसी विचार विमर्श द्वारा मौजूदा सत्ताधारियों के प्रति अपनाए जाने वाले स्टैंड को तय कर सकते हैं  तथा लोगों से संबंधित संयुक्त मुद्दों को चिन्हित करके संयुक्त जनसंघर्षों की रूप रेखा तैयार कर सकते हैं। निरंतर संयुक्त संघर्षों द्वारा वाम आंदोलन का प्रसार भी होगा तथा सत्ताधारी वर्गों के विरुद्ध एक संयुक्त प्रभावशाली आंदोलन खड़ा करके जनपक्षीय विकल्प की नींव भी रखी जा सकेगी। वामपंथी पार्टियों को मौजूदा पूंजीपति-जागीरदार वर्गों के शासन के विरुद्ध लोगों के समक्ष आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक अर्थात हर क्षेत्र में एक वैकल्पिक माडल पेश करना होगा। 
- मंगत राम पासला

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