मंगत राम पासला
राजनीतिक
क्षेत्रों में, पिछले लोक सभा चुनावों तथा इससे पहले पश्चिम बंगाल के
विधानसभा चुनावों में सीपीआई (एम) की हुई करारी हार के संदर्भ में,
कम्युनिस्ट आंदोलन के कमजोर होने की चर्चा आम ही होती रहती है। यह एक कड़वी
सच्चाई भी है। संसद व विधानसभाओं में वामपंथ का घटता प्रतिनिधित्व,
प्राप्त मतों घटता का प्रतिशत इस कमी व जन लामबंदी के पक्ष से जन आधार का
सिमटना इस तथ्य के सूचक हैं। पारंपरिक कम्युनिस्ट पार्टियों द्वारा अन्य
राजनीतिक दलों से गठजोड़ व सांठ-गांठ करने, चुनावी सहयोग बनाने तथा कुछेक
कम्युनिस्ट नेताओं द्वारा सरकारें बनाने सबंधी सरगर्मी करने की
‘विशेषज्ञता’, जिसे वाम आंदोलन के राजनीति में बढ़े प्रभाव का सूचक माना
जाता था, के अलोप हो जाने को भी कई टिप्पणीकार कम्युनिस्ट आंदोलन का कमजोर
हो जाना मान रहे हैं। जब कुछेक कम्युनिस्ट नेताओं की पूंजीपति-जागीरदार
वर्गों की पार्टियों से राजनीति मेलजोल व सामाजिक सहयोग को मीडिया में भी
खूब प्रचारा जाता था, तब यह सब कुछ मौजूदा व्यवस्था के चालकों के अनूकूल
था। उनके लिए, वाम आंदोलन के ‘हाशिये पर सिमट जाने’ के बाद अब ऐसा करना
निरर्थक व नुकसानदेह समझा जा रहा है। निर्णय तब भी कम्युनिस्ट विरोधियों के
हाथों में था तथा अब भी। जबकि कुछ कम्युनिस्ट क्षेत्रों में भी इस बारे
में भ्रम पाला जा रहा है।
कम्युनिस्टों की संसद व विधानसभाओं में बढ़े हुए प्रतिनिधित्व के पीछे, इसके द्वारा, जनहितों की रक्षा के लिए लड़े जाते संघर्षों, बलिदान तथा सरकारों के जन विरोधी कदमों के विरुद्ध लामबंद किए गए जनसंघर्षों का बड़ा हाथ होता है। परंतु कई अवसरों पर इन जीतों में अन्य दलों से किए गए समझौते व बनाए गए संयुक्त मंचों की भी अच्छी खासी भूमिका नजर आती है। कम्युनिस्ट आंदोलन के इतिहास में आंध्रप्रदेश, पंजाब, तामिलनाडू, बिहार, यूपी आदि प्रातों में इस तथ्य को आसानी से देखा व समझा जा सकता है। जहां क्षेत्रीय दलों से मिलकर वामपंथी पार्टियों ने कई बार अच्छी संसदीय जीतें हासिल की हैं। चाहे लंबे समय के तजुर्बे के आधार पर हम यह पूरे विश्वास से कह सकते हैं कि ऐसी जीतों के बावजूद यहां कम्युनिस्टों का आधार घटा ही है। इसलिए इस तथ्य को नजरअंदाज किए बिना की देश में वाम आंदोलन कमजोर हुआ है, सिर्फ प्राप्त मतों व संसद/विधानसभाओं के सदस्यों की घटी या बढ़ी संख्या से ही वास्तविक कम्युनिस्ट आधार को नहीं मापा जाना चाहिए। अन्य दलों से मिलकर जीती गई अधिक सीटें या हासिल किए गए मत न तो वामपंथी आंदोलन की वास्तविक शक्ति को रूपमान करते हैं तथा न ही इन आंदोलनों के भविष्य के प्रसार में सहायक होते हैं। कई बार सत्ताधारी पक्षों द्वारा गैर-जनवादी व अनैतिक हथकंडों द्वारा पैदा की गई जटिल परिस्थितियों में भी वामपंथीयों की कारगुजारी अपनी शक्ति के अनुसार नहीं होती। परंतु यह एक अटल सचाई है कि कम्युनिस्ट सिद्धांतों पर पहरा देते हुए अपनाया गया दरूस्त राजनीतिक स्टैंड वास्तविक रूप में कम्युनिस्ट आंदोलन का निर्माण करने व मजबूत करने में हमेशा ही अंतिम रूप में मददगार साबित होता है। अवसरवादी संसदीय भटकाव का शिकार होकर शोषक वर्गों की राजनीतिक पार्टियों व नेताओं से किये गए सहयोग के फलस्वरूप बाहरी रूप में दिख रहे झूठे जनआधार या छवि को वामपंथी जनआधार मानना सरासर गलत व अवैज्ञानिक है। ऐसी सावधानी इसलिए भी जरूरी है कि जब पूंजीवाद द्वारा कम्युनिस्ट विचारधारा को आप्रसंगिक सिद्धांत बताकर सिकुड़ते वामपंथी जनआधार के बारे में धुंआधार प्रचार किया जा रहा है तथा कम्युनिस्ट पार्टियां खुद भी इस बारे में आत्मचिंतन कर रही हैं, उस समय वाम आंदोलन का गलत मित्थाायओं के आधार पर मुल्यांकन करने से आंदोलन के प्रति लोगों में फैली निराशा व गलतफहमी बढ़ती है व भविष्य में इसके विकास से लिए हानीकारक सिद्ध होती है।
वाम आंदोलन की वर्तमान स्थिति के बारे में अंतरमुखता से बचते हुए तथ्यों पर आधारित ठीक निर्णय करने की आवश्यकता है, जिससे अतीत की गलतियों को सुधारक र आगे बढ़ा जा सकता है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद देश के स्वतंत्रता संग्राम में कम्युनिस्टों द्वारा निभाई गई बलिदान भरी शानदार भूमिका तथा कांग्रेसी सरकारों की जनविरोधी नीतियों के विरूद्ध तथा लोगों के हितों की रक्षा के लिए लड़े गए संघर्षों के कारण कम्युनिस्ट आंदोलन एक मजबूत व प्रभावशाली पक्ष के रूप में उभरा था। काफी समय तक, कांग्रेस के अतिरिक्त पूंजीवादी-जागीरदार वर्गों की अन्य राजनीतिक पार्टियां अस्तित्व में ही नहीं आईं थी या फिर काफी कमजोर थीं। आरएसएस व अन्य सांप्रदायिक संगठनों द्वारा स्वतंत्रता संग्राम के दौरान निभाए गए साम्राज्यवादपरस्त तथा विघटनकारी भूमिका के कारण फिरकू शक्तियों की जनता में पकड़ भी अभी काफी ढीली थी। कम्युनिस्ट आंदोलन का तेज विकास देखते हुए सत्ताधारी वर्गों ने अपने हितों की रक्षा के लिए कांग्रेसी सरकारों के प्रति पैदा हो रही बेचैनी को नई उभर रही अन्य धनी पार्टियों के पीछे लामबंद करने में बड़ी सहायता की। ऐसा करने की जरूरत एक तो सत्ताधारी पक्षों के समक्ष संभावित ‘लाल खतरे’ को टालने के लिए थी व दूसरा पूंजीवादी विकास माडल को बेरोकटोक आगे बढ़ाने के लिए।
कम्युनिस्ट पार्टियों द्वारा जबरदस्त जनसंघर्षोें के बूते जनमत प्राप्त करके पश्चिम बंगाल, केरल व त्रिपुरा में वामपंथी सरकारें कायम की गई जिन्होंने जनकल्याण के लिए अनेक प्रभावशाली कदम भी उठाए। जिनके फलस्वरूप इन प्रांतों में कम्युनिस्ट आंदोलनों का जन आधार भी बढ़ा व मजबूत हुआ। परंतु जब इन वामपंथी सरकारों ने ऐसी जनविरोधी नीतियां लागू कीं जिनका यही वाम दल बाकी देश में डटकर विरोध करते आ रहे थे, उससे इस आदोलन को तगड़ा झटका लगा। केंद्रीय सरकार के साथ कम्युनिस्ट पार्टियों के प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष सहयोग ने भी कम्युनिस्टों की भिन्न स्वतंत्र जनहितैशी पहचान को ठेस पहुंचाई। पश्चिम बंगाल की वामपंथी सरकार द्वारा सिंगूर व नंदीग्राम में किसानों की जमीनें हथियाकर जबरदस्ती विदेशी कंपनियों व भारतीय कारर्पोरेट घरानों को देने का अपने पैर पर खुद कुल्हाड़ी मारने वाला फैसला इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए।
इसके अतिरिक्त विश्व स्तर पर सोवियत यूनियन व अन्य पूर्वी यूरोप के देशों में समाजवादी व्यवस्था को लगे झटकों ने भी बाकी दुनिया के कम्युनिस्ट आंदोलन की तरह भारत की कम्युनिस्ट पार्टियों के भीतर भी सैद्धांतिक भ्रम व निराशा पैदा की। इसके अतिरिक्त, सैद्धांतिक रूप में देश के वाम आंदोलन के कमजोर होने का एक प्रमुख कारण दक्षिणपंथी व वामपंथी भटकाव भी हैं, जिनके परिणामस्वरूप यह भिन्न-भिन्न भागों में बंट गई। कम्युनिस्टों का एक भाग संशोधनवादी भटकाव का शिकार होकर वर्ग संघर्ष के रास्ते पर भटक कर वर्गीय सहयोग की पटड़ी पर चढ़ गया, जबकि वामपंथी भटकाव का शिकार दूसरा भाग (माओवादी व अन्य वामपंथी गु्रप) दुसाहसवाद के रास्ते पर चलकर मेहनतकश लोगों के विशाल भागों से अलग-थलग पडक़र जनवादी आंदोलन के घेरे से बाहर निकल गए। इस भटकाव ने सत्ताधारी वर्गों को वाम आंदोलन पर दमन तेज करने का एक और बहाना प्रदान कर दिया, जो पहले ही अपनी सत्ता की रक्षा के लिए दमनकारी मशीनरी का खुला उपयोग निरंतर करता आ रहा था।
देश में पूंजीवादी आर्थिक विकास के फलस्वरूप जनसंख्या के गणनीय भाग को अच्छा आर्थिक लाभ भी पहुंचा है। बड़ी संख्या में मध्यवर्ग जो कि आर्थिक रूप में निम्न वर्ग के लोगों से अधिक संपन्न है, इस विकास माडल की उपज है। पूंजीवादी रास्ते पर हुए इस तेज आर्थिक विकास की संभावनाओं व इस ढांचे के अपने भीतरी संकटों पर काबू पाने के सामधय को कम्युनिस्ट पार्टियों द्वारा घटाकर आंका गया। इस समझदारी से प्रेरित होकर ही समाजवादी क्रांति की कामयाबी की फौरी संभावनाएं भी तय कर ली गई, जो अभी संभव नहीं था। इस अंतरमुखता ने कम्युनिस्ट काडर में गैर यर्थाथवादी व अवैज्ञानिक आशावाद को उत्पन किया। इसलिए पूंजीवादी आर्थिक विकास के लाभपात्री वे लोग, जो अपनी आर्थिक मुश्किलों के हल के लिए तथा जिंदगी की अन्य जरूरतों की पूर्ति के लिए वाम आंदोलन से जुड़े थे (चाहे राजनीतिक व वैचारिक रूप में यह सांझ बहुत कमजोर थी), धीरे-धीरे अपने हितों की पूर्ति के लिए अन्य पूंजीवादी पार्टियों से जुडऩे लगे। मध्यवर्ग की इस टूटन से तथा मजदूरों, दलितों, आदिवासियों व अन्य पिछड़ी श्रेणियों से संबंधित जनसमूहों में वामपंथी आंदोलन की जड़ें कमजोर होने के कारण स्थिति मौजूदा त्रासदी तक पहुंच गई।
कम्युनिस्ट आंदोलन के भीतर आई वर्तमान अस्थिरता तथा कमी-कमजोरी को अंतरमुखता का शिकार हुए बिना ठीक संदर्भ व तथ्यों पर आधारित होकर जांचना होगा। मेहनतकश बुनियादी वर्गों में ठोस जन आधार स्थापित किए बिना अवसरवादी व्यवहारों द्वारा हासिल की गई हवा के गुब्बारे जैसी कोई ‘प्राप्ति’ पुख्ता नहीं रह सकती। अति शोषित लोगों के वर्ग आधारित जनसंघर्षों के बलबूते पर निर्मित जन आंदोलन ही आर्थिक, राजनीतिक व सैद्धांतिक संघर्षों की सीढिय़ां चढ़ता हुआ स्थाई बन सकता है तथा दुश्मन के समस्त हमलों का मुकाबला करते हुए सामाजिक परिवर्तन के तय निशाने को प्राप्त कर सकता है। कम्युनिस्टों को मध्य वर्ग के लोगों तक पहुंच करने के लिए भी नई विधियां व साधनों की तलाश करनी होगी, जिससे वाम आंदोलन के घेरे से दूर चले गए लोगों को पुन: जनवादी आंदोलन में शामिल किया जा सके। इस कार्य में कम्युनिस्टों का पिछला बलिदानों भरा शानदार इतिहास, कई गणनीय प्राप्तियां व वैज्ञानिक सोच बड़ा योगदान डाल सकती है। परंतु अवसरवादी राजनीति पर चलते हुए सत्ताधारी वर्गों के पिछलग्गू बनकर जो ‘कृत्रिम शक्ति’ प्राप्त की गई थी व झूठी प्रशंसा का शिकार होकर वर्गीय संघर्षों का रास्ता त्यागा गया था, उसे पुन: उसी ढंग से प्राप्त करने की लालसा को भी पूरी तरह त्यागना होगा। वर्गीय संघर्षों के रास्ते पर चलकर प्रफुल्लित होने वाले वाम आंदोलन को सत्ताधारी पक्ष के मीडिया व समर्थकों द्वारा बुरा भला भी कहा जाएगा व नजरअंदाज भी किया जाएगा। गैर संसदीय संघर्षों द्वारा प्राप्त जनसमर्थन से संसदीय जीतें हासिल करने में लंबा समय लग सकता है व कई बार लुटेरे सत्ताधारी वर्गों द्वारा गैर जनवादी हथकंडों से इसको असंभव भी बनाया जा सकता है। इन समस्त मुश्किलों के मद्देनजर थोड़े समय के लाभों को सामने रखकर अंतिम निशाने को कदाचित आँखों से ओझल नहीं करना चाहिए। क्रांतिकारी सामाजिक परिर्वतन का महान उद्देश्य प्राप्त करना लंबा कठिन व खतरों भरा रास्ता है। इसे हासिल करने के लिए सैद्धांतिक परिपक्वता, बलिदानों भरा व्यवहार, दृढ़ता, जुनून व प्रतिबद्धता की सख्त जरूरत है। इस रास्ते पर चलते हुए ही कम्युनिस्ट आंदोलन की मौजूदा कमजोरियों पर जीत प्राप्त करते हुए वास्तविक रूप में एक शक्तिशाली क्रांतिकारी आंदोलन खड़ा किया जा सकता है।
कम्युनिस्टों की संसद व विधानसभाओं में बढ़े हुए प्रतिनिधित्व के पीछे, इसके द्वारा, जनहितों की रक्षा के लिए लड़े जाते संघर्षों, बलिदान तथा सरकारों के जन विरोधी कदमों के विरुद्ध लामबंद किए गए जनसंघर्षों का बड़ा हाथ होता है। परंतु कई अवसरों पर इन जीतों में अन्य दलों से किए गए समझौते व बनाए गए संयुक्त मंचों की भी अच्छी खासी भूमिका नजर आती है। कम्युनिस्ट आंदोलन के इतिहास में आंध्रप्रदेश, पंजाब, तामिलनाडू, बिहार, यूपी आदि प्रातों में इस तथ्य को आसानी से देखा व समझा जा सकता है। जहां क्षेत्रीय दलों से मिलकर वामपंथी पार्टियों ने कई बार अच्छी संसदीय जीतें हासिल की हैं। चाहे लंबे समय के तजुर्बे के आधार पर हम यह पूरे विश्वास से कह सकते हैं कि ऐसी जीतों के बावजूद यहां कम्युनिस्टों का आधार घटा ही है। इसलिए इस तथ्य को नजरअंदाज किए बिना की देश में वाम आंदोलन कमजोर हुआ है, सिर्फ प्राप्त मतों व संसद/विधानसभाओं के सदस्यों की घटी या बढ़ी संख्या से ही वास्तविक कम्युनिस्ट आधार को नहीं मापा जाना चाहिए। अन्य दलों से मिलकर जीती गई अधिक सीटें या हासिल किए गए मत न तो वामपंथी आंदोलन की वास्तविक शक्ति को रूपमान करते हैं तथा न ही इन आंदोलनों के भविष्य के प्रसार में सहायक होते हैं। कई बार सत्ताधारी पक्षों द्वारा गैर-जनवादी व अनैतिक हथकंडों द्वारा पैदा की गई जटिल परिस्थितियों में भी वामपंथीयों की कारगुजारी अपनी शक्ति के अनुसार नहीं होती। परंतु यह एक अटल सचाई है कि कम्युनिस्ट सिद्धांतों पर पहरा देते हुए अपनाया गया दरूस्त राजनीतिक स्टैंड वास्तविक रूप में कम्युनिस्ट आंदोलन का निर्माण करने व मजबूत करने में हमेशा ही अंतिम रूप में मददगार साबित होता है। अवसरवादी संसदीय भटकाव का शिकार होकर शोषक वर्गों की राजनीतिक पार्टियों व नेताओं से किये गए सहयोग के फलस्वरूप बाहरी रूप में दिख रहे झूठे जनआधार या छवि को वामपंथी जनआधार मानना सरासर गलत व अवैज्ञानिक है। ऐसी सावधानी इसलिए भी जरूरी है कि जब पूंजीवाद द्वारा कम्युनिस्ट विचारधारा को आप्रसंगिक सिद्धांत बताकर सिकुड़ते वामपंथी जनआधार के बारे में धुंआधार प्रचार किया जा रहा है तथा कम्युनिस्ट पार्टियां खुद भी इस बारे में आत्मचिंतन कर रही हैं, उस समय वाम आंदोलन का गलत मित्थाायओं के आधार पर मुल्यांकन करने से आंदोलन के प्रति लोगों में फैली निराशा व गलतफहमी बढ़ती है व भविष्य में इसके विकास से लिए हानीकारक सिद्ध होती है।
वाम आंदोलन की वर्तमान स्थिति के बारे में अंतरमुखता से बचते हुए तथ्यों पर आधारित ठीक निर्णय करने की आवश्यकता है, जिससे अतीत की गलतियों को सुधारक र आगे बढ़ा जा सकता है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद देश के स्वतंत्रता संग्राम में कम्युनिस्टों द्वारा निभाई गई बलिदान भरी शानदार भूमिका तथा कांग्रेसी सरकारों की जनविरोधी नीतियों के विरूद्ध तथा लोगों के हितों की रक्षा के लिए लड़े गए संघर्षों के कारण कम्युनिस्ट आंदोलन एक मजबूत व प्रभावशाली पक्ष के रूप में उभरा था। काफी समय तक, कांग्रेस के अतिरिक्त पूंजीवादी-जागीरदार वर्गों की अन्य राजनीतिक पार्टियां अस्तित्व में ही नहीं आईं थी या फिर काफी कमजोर थीं। आरएसएस व अन्य सांप्रदायिक संगठनों द्वारा स्वतंत्रता संग्राम के दौरान निभाए गए साम्राज्यवादपरस्त तथा विघटनकारी भूमिका के कारण फिरकू शक्तियों की जनता में पकड़ भी अभी काफी ढीली थी। कम्युनिस्ट आंदोलन का तेज विकास देखते हुए सत्ताधारी वर्गों ने अपने हितों की रक्षा के लिए कांग्रेसी सरकारों के प्रति पैदा हो रही बेचैनी को नई उभर रही अन्य धनी पार्टियों के पीछे लामबंद करने में बड़ी सहायता की। ऐसा करने की जरूरत एक तो सत्ताधारी पक्षों के समक्ष संभावित ‘लाल खतरे’ को टालने के लिए थी व दूसरा पूंजीवादी विकास माडल को बेरोकटोक आगे बढ़ाने के लिए।
कम्युनिस्ट पार्टियों द्वारा जबरदस्त जनसंघर्षोें के बूते जनमत प्राप्त करके पश्चिम बंगाल, केरल व त्रिपुरा में वामपंथी सरकारें कायम की गई जिन्होंने जनकल्याण के लिए अनेक प्रभावशाली कदम भी उठाए। जिनके फलस्वरूप इन प्रांतों में कम्युनिस्ट आंदोलनों का जन आधार भी बढ़ा व मजबूत हुआ। परंतु जब इन वामपंथी सरकारों ने ऐसी जनविरोधी नीतियां लागू कीं जिनका यही वाम दल बाकी देश में डटकर विरोध करते आ रहे थे, उससे इस आदोलन को तगड़ा झटका लगा। केंद्रीय सरकार के साथ कम्युनिस्ट पार्टियों के प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष सहयोग ने भी कम्युनिस्टों की भिन्न स्वतंत्र जनहितैशी पहचान को ठेस पहुंचाई। पश्चिम बंगाल की वामपंथी सरकार द्वारा सिंगूर व नंदीग्राम में किसानों की जमीनें हथियाकर जबरदस्ती विदेशी कंपनियों व भारतीय कारर्पोरेट घरानों को देने का अपने पैर पर खुद कुल्हाड़ी मारने वाला फैसला इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए।
इसके अतिरिक्त विश्व स्तर पर सोवियत यूनियन व अन्य पूर्वी यूरोप के देशों में समाजवादी व्यवस्था को लगे झटकों ने भी बाकी दुनिया के कम्युनिस्ट आंदोलन की तरह भारत की कम्युनिस्ट पार्टियों के भीतर भी सैद्धांतिक भ्रम व निराशा पैदा की। इसके अतिरिक्त, सैद्धांतिक रूप में देश के वाम आंदोलन के कमजोर होने का एक प्रमुख कारण दक्षिणपंथी व वामपंथी भटकाव भी हैं, जिनके परिणामस्वरूप यह भिन्न-भिन्न भागों में बंट गई। कम्युनिस्टों का एक भाग संशोधनवादी भटकाव का शिकार होकर वर्ग संघर्ष के रास्ते पर भटक कर वर्गीय सहयोग की पटड़ी पर चढ़ गया, जबकि वामपंथी भटकाव का शिकार दूसरा भाग (माओवादी व अन्य वामपंथी गु्रप) दुसाहसवाद के रास्ते पर चलकर मेहनतकश लोगों के विशाल भागों से अलग-थलग पडक़र जनवादी आंदोलन के घेरे से बाहर निकल गए। इस भटकाव ने सत्ताधारी वर्गों को वाम आंदोलन पर दमन तेज करने का एक और बहाना प्रदान कर दिया, जो पहले ही अपनी सत्ता की रक्षा के लिए दमनकारी मशीनरी का खुला उपयोग निरंतर करता आ रहा था।
देश में पूंजीवादी आर्थिक विकास के फलस्वरूप जनसंख्या के गणनीय भाग को अच्छा आर्थिक लाभ भी पहुंचा है। बड़ी संख्या में मध्यवर्ग जो कि आर्थिक रूप में निम्न वर्ग के लोगों से अधिक संपन्न है, इस विकास माडल की उपज है। पूंजीवादी रास्ते पर हुए इस तेज आर्थिक विकास की संभावनाओं व इस ढांचे के अपने भीतरी संकटों पर काबू पाने के सामधय को कम्युनिस्ट पार्टियों द्वारा घटाकर आंका गया। इस समझदारी से प्रेरित होकर ही समाजवादी क्रांति की कामयाबी की फौरी संभावनाएं भी तय कर ली गई, जो अभी संभव नहीं था। इस अंतरमुखता ने कम्युनिस्ट काडर में गैर यर्थाथवादी व अवैज्ञानिक आशावाद को उत्पन किया। इसलिए पूंजीवादी आर्थिक विकास के लाभपात्री वे लोग, जो अपनी आर्थिक मुश्किलों के हल के लिए तथा जिंदगी की अन्य जरूरतों की पूर्ति के लिए वाम आंदोलन से जुड़े थे (चाहे राजनीतिक व वैचारिक रूप में यह सांझ बहुत कमजोर थी), धीरे-धीरे अपने हितों की पूर्ति के लिए अन्य पूंजीवादी पार्टियों से जुडऩे लगे। मध्यवर्ग की इस टूटन से तथा मजदूरों, दलितों, आदिवासियों व अन्य पिछड़ी श्रेणियों से संबंधित जनसमूहों में वामपंथी आंदोलन की जड़ें कमजोर होने के कारण स्थिति मौजूदा त्रासदी तक पहुंच गई।
कम्युनिस्ट आंदोलन के भीतर आई वर्तमान अस्थिरता तथा कमी-कमजोरी को अंतरमुखता का शिकार हुए बिना ठीक संदर्भ व तथ्यों पर आधारित होकर जांचना होगा। मेहनतकश बुनियादी वर्गों में ठोस जन आधार स्थापित किए बिना अवसरवादी व्यवहारों द्वारा हासिल की गई हवा के गुब्बारे जैसी कोई ‘प्राप्ति’ पुख्ता नहीं रह सकती। अति शोषित लोगों के वर्ग आधारित जनसंघर्षों के बलबूते पर निर्मित जन आंदोलन ही आर्थिक, राजनीतिक व सैद्धांतिक संघर्षों की सीढिय़ां चढ़ता हुआ स्थाई बन सकता है तथा दुश्मन के समस्त हमलों का मुकाबला करते हुए सामाजिक परिवर्तन के तय निशाने को प्राप्त कर सकता है। कम्युनिस्टों को मध्य वर्ग के लोगों तक पहुंच करने के लिए भी नई विधियां व साधनों की तलाश करनी होगी, जिससे वाम आंदोलन के घेरे से दूर चले गए लोगों को पुन: जनवादी आंदोलन में शामिल किया जा सके। इस कार्य में कम्युनिस्टों का पिछला बलिदानों भरा शानदार इतिहास, कई गणनीय प्राप्तियां व वैज्ञानिक सोच बड़ा योगदान डाल सकती है। परंतु अवसरवादी राजनीति पर चलते हुए सत्ताधारी वर्गों के पिछलग्गू बनकर जो ‘कृत्रिम शक्ति’ प्राप्त की गई थी व झूठी प्रशंसा का शिकार होकर वर्गीय संघर्षों का रास्ता त्यागा गया था, उसे पुन: उसी ढंग से प्राप्त करने की लालसा को भी पूरी तरह त्यागना होगा। वर्गीय संघर्षों के रास्ते पर चलकर प्रफुल्लित होने वाले वाम आंदोलन को सत्ताधारी पक्ष के मीडिया व समर्थकों द्वारा बुरा भला भी कहा जाएगा व नजरअंदाज भी किया जाएगा। गैर संसदीय संघर्षों द्वारा प्राप्त जनसमर्थन से संसदीय जीतें हासिल करने में लंबा समय लग सकता है व कई बार लुटेरे सत्ताधारी वर्गों द्वारा गैर जनवादी हथकंडों से इसको असंभव भी बनाया जा सकता है। इन समस्त मुश्किलों के मद्देनजर थोड़े समय के लाभों को सामने रखकर अंतिम निशाने को कदाचित आँखों से ओझल नहीं करना चाहिए। क्रांतिकारी सामाजिक परिर्वतन का महान उद्देश्य प्राप्त करना लंबा कठिन व खतरों भरा रास्ता है। इसे हासिल करने के लिए सैद्धांतिक परिपक्वता, बलिदानों भरा व्यवहार, दृढ़ता, जुनून व प्रतिबद्धता की सख्त जरूरत है। इस रास्ते पर चलते हुए ही कम्युनिस्ट आंदोलन की मौजूदा कमजोरियों पर जीत प्राप्त करते हुए वास्तविक रूप में एक शक्तिशाली क्रांतिकारी आंदोलन खड़ा किया जा सकता है।
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