Friday, 10 June 2016

कृषि संकट के बारे में डाक्टर एम.एस. स्वामीनाथन राष्ट्रीय किसान आयोग की विशेष सिफारिशें

रघुबीर सिंह 
यह आयोग गहरे कृषि संकट, जिसने लाखों किसानों को आत्म हत्यायें करने के लिये मजबूर किया, में से उभरे जनरोष की पृष्ठभूमि में कायम किया गया था। कृषि संकट के कारण तथा इनके समाधान के बारे में सुझाव देना इसकी संदर्भ-शर्ते (ञ्जद्गह्म्द्वह्य शद्घ क्रद्गद्घद्गह्म्ड्डठ्ठष्द्ग) थीं। इस आयोग की रिपोर्ट का पहला मसविदा 13 अप्रैल 2016 को भारत सरकार को सौंपा गया था। डाक्टर स्वामीनाथन धरती से जुड़े भारत की कृषि के बुनियादी आधारों को समझने वाले किसानों के सच्चे देशभक्त सपूत हैं। उसने गहरा अध्ययन करके कुछ विलक्षण, महत्त्वपूर्ण तथा बहुपक्षीय सिफारिशें की हैं। यदि केंद्रीय सरकार पूरी राजनीतिक इच्छा से इन्हें लागू करतीं तो किसान संकट पर  काबू पाया जा सकता था। इससे ग्रामीण क्षेत्र में बसती भारत की 70 फीसदी जनसंख्या की क्रय शक्ति बढ़ती तथा भारत की वर्तमान जर्जर अर्थव्यवस्था को भी काफी बल मिलता। परंतु देश की पूंजीपति-जागीरदार आर्थिक-राजनीतिक अवस्था में जकड़ी भारतीय हाकिमों की वर्गीय समझदारी से यह आशा नहीं की जानी चाहिये।
हमारे मौजूदा लेख का विषय इस आयोग की रिपोर्ट के विस्तार में जाना नहीं है। हम केवल इसकी कुछ बुनियादी सिफारिशों के बारे में संक्षेप वर्णन करेंगे ताकि आम पाठकों को, मौजूदा बहुत ही गंभीर कृषि संकट के समय, इन सिफारिशों के किसान-पक्षीय तथ्यों तथा केंद्र व राज्य सरकारों की उदासीनता के बारे में कुछ जानकारी मिल सके।
कृषि नीति के मुख्य उद्देश्य
रिपोर्ट के अनुसार समय आ गया है कि जब हम उन स्त्रियों व पुरुषों, जो समूचे देश का पेट भरते हैं, के कल्याण की ओर ध्यान दें ना कि सिर्फ उत्पादन बढ़ाने की ओर। इस नीति का उद्देश्य उन समस्त संबंधों व व्यवहारों को उत्साहित करना होगा जो कृषिक्षेत्र के विकास को किसान परिवारों के कल्याण के रूप में परखेंगे न कि केवल कुछ लाख टन अनाज उत्पादन में बढ़ौत्तरी के रूप से।                                    (मद 1.1.2)
यह समझदारी कारपोरेट पक्षीय भारत सरकार की समझ के बिल्कुल विपरीत है जो केवल उपज में बढ़ौत्तरी पर ही जोर देती है।
किसान की परिभाषा
किसान की परिभाषा के लिये इस आयोग के अनुसार इसमें किसान औरत, मर्द, भूमिहीन खेत मजदूर, सहित बटाईदार मुजारे, छोटे व सीमांत किसान, अद्र्ध सीमांत कृषि उत्पादक, मछुआरे, पशु व मुर्गी पालक, चरवाहे, ग्रामीण व आदिवासी लोग जो कृषि धंधे में कार्यरत हैं, शामिल हैं।   (मद 1.3.1.)
भूमि सुधार
डाक्टर स्वामीनाथन के अनुसार कृषि क्षेत्र की दशा सुधारने के लिये, परिवर्तन के लिये भूमि की भेदभावपूर्ण बांट समाप्त करना जरूरी है। इससे कृषि धंधे में ढांचागत परिवर्तन हो सकता है। रिपोर्ट के अनुसार भूमि की बांट बहुत असमान है। 60 प्रतिशत ग्रामीण परिवारों के पास एक हैक्टेयर से कम भूमि है। एक हैक्टेयर से अधिक स्वामित्व वाले किसान, ग्रामीण जनसंख्या का 28 प्रतिशत हैं। भूमिहीन परिवारों की संख्या ग्रामीण जनसंख्या का 11.24 फीसदी है। (मद 1.4.2.1) यह आंकड़े 1991-92 के आकलन पर आधारित हैं। इसलिये आयोग के अनुसार किसानों के लिये राष्ट्रीय नीति का पहला तथा सबसे मुख्य कार्य भूमि सुधार करना होगा। इन सुधारों के अनुसार मुजारा कानून, जमीनी ठेका, सरप्लस व बंजर जमीन के वितरण द्वारा संयुक्त संपत्ति तथा बंजर भूमि को हर एक की पहुंच में करना शामिल होगा।                                 (मद 1.4.2.2)
भूमिहीनों के लिये भूमि
मद 1.4.2.3 के अनुसार भूमिहीन मजदूर परिवारों को कम से कम एक ऐकड़ भूमि जरूर दी जाये, जिससे वे अपनी घरेलू बगीची बना सकें तथा पशु पाल सकें। ऐसी भूमि की अलाटमैंट औरत के नाम या पति-पत्नी के संयुक्त नाम पर की जाये।
भूमि-अधिग्रहण संबंधी
कृषि योग्य जमीन सिर्फ खेती कार्यों के लिये आरक्षित रखी जाये। यह विशेष आर्थिक क्षेत्रों जैसे गैर कृषि उद्देश्यों के लिये उपयोग में ना लाई जाये। इन विशेष कार्यों के लिये बंजर भूमि ही दी जाये।
कृषि व मानवीय उपयोग के लिये जल
आयोग ने कहा है कि ‘‘जल एक सामाजिक स्रोत्र है तथा यह जन कल्याण के लिये है। निजी संपत्ति नहीं है।’’ कृषि के लिये जल की आत्म निर्भरता समय की सबसे बड़ी जरूरत है। जिसे आयोग ने जल स्वराज्य का नाम दिया है। पीने के लिए स्वच्छ जल तथा कृषि के लिये जरूरी जल जुटाने के लिये धरती के जल स्रोत्रों नदियों, नहरों, जलगाहों, झीलों, तालाबों व बरसाती पानी की संभाल की जानी जरूरी है। जल के निजीकरण से गंभीर खतरे पैदा होंगे। इससे स्थानीय भाईचारों में झगड़े होंगे। एक करोड़ हैक्टेयर और भूमि को सिंचाई साधनों के अधीन लाये जाने की जरूरत है। (मद 1.4.3)
पशुधन
डेयरी, मछली पालन व पोल्ट्री समेत पशुधन कृषि क्षेत्र में आमदनी का बड़ा सहायक धंधा है। तथा 2004-05 में इसका कृषि की कुल उत्पादन बढ़ौत्तरी में 26 फीसदी का भाग था। इस उद्देश्य के लिये गरीब परिवारों को पशु चारा, फीड तथा पशुओं के स्वास्थ्य संबंधी बड़ी मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। इसलिये राज्य स्तर पर पशुधन रोगों, फीड तथा चारा कारपोरेशनें बनाये जाने की जरूरत है। इन सहायक धंधों की उत्पादित वस्तुओं का उचित मुल्य पर मंडीकरण किये जाने पर भी जोर दिया गया है।
कृषि उत्पादन के लिये लागत वस्तुयें व सेवायें
(ढ्ढठ्ठश्चह्वह्लह्य ड्डठ्ठस्र स्द्गह्म्1द्बष्द्गह्य)
आयोग ने कृषि के लिये आवश्यक बीजों, कीटनाशक दवाओं, यंत्रों व तकनीकी सेवाओं के बारे में भी छोटे व मध्यम किसानों को सामने रखकर सिफारिशें की हैं।
विज्ञान व तकनीक को कृषि कार्यों में परिवर्तन का मुख्य साधन मानते हुये उन्होंने कहा है कि बीजों तथा पशुधन की नई किस्मों की खोज मुख्य रूप में राष्ट्रीय कृषि अनुसंधान प्रबंध, जिसमें इंडियन कौंसिल फार एग्रीकल्चर रिसर्च व राज्यीय कृषि विश्व विद्यालय शामिल हैं, में की जाये। इसमें निजी क्षेत्र को भी शामिल किया जाये। यह खोजें वातावरण तथा गरीब किसान पक्षीय होनी चाहिये। हमारे परंपरागत बीजों के जैविक भंडार (त्रद्गठ्ठद्ग क्कशशद्य) की रक्षा की जानी जरूरी है। भूमि के स्वास्थ्य का ध्यान रखा जाना चाहिये। किसान को भूमि के स्वास्थ्य के बारे में पासबुक जारी की जानी चाहिए।
जैविक कृषि के बारे में
इस खेती के लिये रसायनिक खेती से अधिक वैज्ञानिक तकनीक की आवश्यकता होती है। कृषि विज्ञान केंद्रों द्वारा ऐसी खेती करने वाले किसानों को उचित ट्रेनिंग दी जानी चाहिए। इस संबंध में कुछ विशेष क्षेत्रों को चुना जाना चाहिए। रसायनिक खेती की तरह ही जैविक खेती के लिये भी कर्ज तथा सब्सीडियां दी जाने की आवश्यकता है। (मद 1.8.1)
फसल विभिन्नता के बारे में
फसल विभिन्नता के बारे में कहा गया है कि इससे उत्पादित उत्पादों के लिये ठोस वैकल्पिक मंडी व्यवस्था तैयार की जानी चाहिए। खाद्य व्यापारिक फसलों से बायो-ईंधन आदि पैदा करते समय बहुत सावधानी अपनाई जाये तथा देश के लोगों की खाद्य सुरक्षा का ध्यान रखा जाये।
कृषि कर्ज
कृषि कर्ज के लिये विशेष कर्ज नीति बनाई जाने की आवश्यकता है। ग्रामीण क्षेत्र में सहकारिता संस्थाओं का महत्त्वपूर्ण स्थान है। वित्तीय सेवाओं तक हर जरूरतमंद की आसान पहुंच यकीनी बनाई जाये। ब्याज दर जितनी भी कम से कम हो रखी जाये। हर जरूरतमंद किसान को जरूरत के अनुसार सरकारी/अद्र्ध सरकारी वित्तीय संस्था द्वारा कर्ज दिया जाये।
फसल बीमा योजना
कृषि कार्य बहुत ही खतरों से भरपूर आर्थिक सरगरमी है। किसानों को कुदरती विपत्तियों, मौसमी तब्दीलियों,पौधा रोगों तथा मंडी की उथल-पुथल द्वारा पैदा आर्थिक मार से बचाने के लिए उनकी फसल का बीमा किया जाना जरूरी है। किसानों के प्रति एक दोस्ताना पहुंच वाली बीमा सुरक्षा योजना चाहिये। यह बीमा योजना फसल बोने से फसल काटने, संभालने समेत मंडी में बेचने तक के समस्त संकटों के समय होने वाली उसकी क्षति की पूर्ति करने वाली होनी चाहिए।
सामाजिक सुरक्षा
इस मद के अधीन आयोग ने किसानों विशेषतय: छोटे व मध्य किसानों को जीवन सुरक्षा प्रदान करने के लिये राष्ट्रीय सुरक्षा योजना द्वारा पूर्ण सामाजिक सुरक्षा दिये जाने की जोरदार सिफारिश की है। इसमें उन्हें बुढ़ापा पैंशन देने के अतिरिक्त उनके अस्पताल के खर्च तथा काम के समय पेश आने वाली मुश्किलों के समय भी सहायता दी जानी चाहिए। (मद 1.5.9.2)
उचित मंडीकरण सुनिश्चित करो
सुनिश्चित उचित मंडीकरण के अवसर पैदा करना कृषि उत्पादकता तथा किसानों का लाभ बढ़ाने के लिये बहुत जरूरी है। किसान मंडी में मूल्यों के उतार-चढ़ाव से अपनी रक्षा चाहता है। इसके लिए निम्न कदम उठाये जाने चाहिये :
अ) न्यूनतम सहायक मूल्यों का ढांचा विकसित किया जाना चाहिये इसे लागू करना तथा इसकी रक्षा की जानी चाहिए।
न्यूनतम सहायक मूल्य में बढ़ रही लागत कीमतों के अनुरूप वृद्धि की जानी चाहिए। यह किसान के खर्चे से 50 फीसदी अधिक होनी चाहिये। इस व्यवस्था  में समस्त मुख्य फसलें शामिल की जायें।
आ) भारतीय व्यापार संस्था बनाये जाने की जरूरत है। यह संस्था जीवन निर्वाह सुरक्षा बाक्स स्थापित करके किसान परिवारों के हितों की रक्षा कर सकेगी। यह संस्था अनुचित आयातों पर पाबंदी लगा सकेगी। कृषि व्यापार का बुनियादी बिंदु किसान परिवारों का कल्याण तथा उनके परिवारों के जीवन निर्वाह की रक्षा करना होता है।
इ) जन वितरण प्रणाली को सर्वव्यापी बनाया जाये। भोजन सुरक्षा की गारंटी करने के लिये पौष्टिक अनाज का भंडारण किया जाना आवश्यक है। फल-सब्जियों के लिये आवश्यक गोदामों का निर्माण तथा डिब्बा बंद करने के लिये उद्योग लगाने जरूरी है।
ई) किसानों को मंडीकरण के समय मूल्यों में होने वाले उतरावों-चढ़ावों तथा मौसमी खराबियों से बचाने के लिये मंडी मूल्य स्थिरता फंड तथा कृषि संकट फंड बनाये जाने जरूरी है। (मद 1.5.9.2)
अपनी रिपोर्ट की मद 1.12.1 में चिरायु जीवन निर्वाह के बारे में सार्वजनिक नीतियों का वर्णन करते हुऐ आयोग ने कुछ बहुत महत्त्वपूर्ण बातें कही हंै।
अ) किसान तथा गरीब उपभोक्ता के पक्ष में विस्तार सहित नीति बनाई जानी जरूरी है। केवल अनाज का घरेलू उत्पादन करके ही ग्रामीण क्षेत्रों में दूर दूर तक पसरी गरीबी व कुपोषण को दूर नहीं किया जा सकता। ग्रामीण भारत में कृषि लोगों के जीवन निर्वाह की रीढ़ की हड्डी है। अनाज का आयात विशेष समय में आवश्यक हो सकता है परंतु लंबे समय तक ऐसा करना हमारी कृषि तथा किसान के लिये घातक होगा।
आ) भारतीय व्यापार संस्था बनाई जाये जोकि सरकार की जीवन निर्वाह बाक्स बनाने तथा अनुचित आयातों पर पाबंदी लगाने में सहायता करे।
इ) राज्य स्तर पर राज्यीय किसान आयोग स्थापित किये जायें। इन आयोगों में कृषि से संबंधित समस्त पक्षों को शामिल किया जाये।
ई) कृषि का विकास मुख्य रूप में किसान की आमदनी में हुई बढ़ौत्तरी से मापा जाये। केंद्रीय कृषि मंत्रालय द्वारा उत्पादन में हुई बढ़ौत्तरी के साथ साथ किसानों की आमदनी में हुई वृद्धि के बारे में भी आंकड़े छापे जायें।
उ) मंडी में कीमतों में आये उतराव चढ़ाव से किसानों की रक्षा के लिये मंडी मूल्य स्थिरता फंड (्रद्दह्म्द्बष्ह्वद्यह्लह्वह्म्द्ग क्रद्बह्यद्म स्नह्वठ्ठस्र) कायम किया जाये।
उपरोक्त तथ्य दर्शाते हैं कि डाक्टर स्वामीनाथन ने केवल मुनाफे योग्य मंडीकरण के बारे में ही सिफारिशों नहीं की बल्कि उन्होंने कृषि को मुनाफे योग्य तथा आदर योग्य धंधा बनाने के लिये कृषि क्षेत्र में बहुत से ढांचागत तथा बहुपक्षीय परिवर्तन करने के लिये सिफारिशें की हैं। इस समय जब भारतीय अर्थव्यवस्था को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर साम्राज्यवादी देशों की अर्थव्यवस्था से अंधाधुंध बांधा जा रहा है तथा भारतीय अर्थव्यवस्था के हर क्षेत्र की उत्पादन तथा व्यापारिक नीतियों को उन्हीं के अनुसार ढाला जा रहा है, उस समय इनसे पूरी तरह हटकर ऐसी सिफारिशें करना बहुत ही बड़ी बात है। इस समय भूमि सुधारों पर पूरी दृढ़ता से जोर देना, परिवारिक कृषि को कारपोरेट कृषि के मुकाबले अधिक उत्तम बताना, पंजाब-हरियाणा व पश्चिमी उत्तर प्रदेश को विशेष कृषि क्षेत्र बनाने पर जोर देना ताकि यहां अनाज पैदा करने को पहल दी जा सके, बहुत ही महत्त्वपूर्ण सुझाव हैं। विश्व व्यापार संस्था द्वारा  जब खुली मंडी का ढोल पीटा जा रहा है तथा अनाज जो कई बार भारत में पैदा होने वाले अनाज से भी सस्ता मिल सकता है, उस समय डंके की चोट पर कहना कि भारत केवल तथा केवल खुद अनाज पैदा करके ही अपने लोगों का पेट भर सकता है। ऐसा आह्वान बहुत ही दूरदर्शी तथा देशभक्ति की भावना से ओत-प्रोत कृषि विशेषज्ञ ही कर सकता है। उनके द्वारा विशेष रूप में कृषि क्षेत्र में खुली मंडी की जगह सारे देश में ही न्यूनतम समर्थन मूल्य जो लागत खर्च से डयोढ़ा हो पर आधारित सरकारी खरीद की वकालत की गई है। उनका अटल विश्वास है कि यदि सरकार की राजनीतिक इच्छा शक्ति हो तो यह मूल्य दिये जा सकते हैं तथा देश के मेहनतकश लोगों को भी सस्ता तथा पेट भर अनाज प्रदान किया जा सकता है। उन्होंने कृषि क्षेत्र की वर्तमान विशेष समस्याओं, भूजल के गिरते स्तर, दालों तथा खाने के तेलों की कमी दूर करने के बारे में भी ठोस सुझाव दिये हैं। देश की उपजाऊ धरती, अन्य प्राकृतिक संसाधनों तथा भारतीय किसान की मेहनत पर उन्हें गहरा भरोसा है। उनका दृढ विश्वास है कि यदि सरकार ठीक निर्णय ले तो भारत के नौजवान का कृषि धंधे में विश्वास पुन: कायम किया जा सकता है। यह धंधा भारतीय नौजवानों को बड़ी संख्या में मुनाफे योग्य तथा आदर योग्य रोजगार दे सकता है।
परंतु भारतीय सरकारें, पहली यू.पी.ए. तथा अब वाली बी.जे.पी. सरकार के व्यवहार ने सिद्ध कर दिया है कि वे इस आयोग की सिफारिशों को बिल्कुल भी लागू नहीं करेंगी; बल्कि उनका व्यवहार इनके बिल्कुल विपरीत दिशा में जाता है। यह बड़ा तथा जोखिम भरा कार्य किसान आंदोलन ने करना है। इसके लिये राष्ट्रीय स्तर पर संयुक्त तथा संगठित आंदोलन का निर्माण किया जाना अति आवश्यक है। इसके लिये देश के भिन्न-भिन्न भागों में कार्यरत किसान संगठनों का न्यूनतम सहमति आधारित मुद्दों पर संयुक्त मंच बनाये जाने का  प्रयत्न किया जाना चाहिये। केंद्रीय स्तर पर निर्मित संयुक्त किसान आंदोलन ही केंद्र व राज्य सरकारों की गलत कृषि नीतियों को परास्त कर सकता है।

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