Friday 15 August 2014

राजस्थान सरकार द्वारा श्रम कानूनों में श्रमिक विरोधी संशोधन

रवि कंवर 
इस वर्ष के प्रारंभ में राजस्थान में हुए विधान सभा चुनावों के फलस्वरूप प्रदेश में श्रीमति वसुंधरा राजे सिंधिया के नेतृत्व में बनी बीजेपी सरकार ने अपना वास्तविक वर्गीय चरित्र दिखा दिया है। इस सरकार ने अपने कुछेक, पहल के आधार पर किए जाने वाले, कार्यों को पूरा करते हुए अपने प्रदेश में श्रम सुधारों के नाम पर केंद्रीय श्रम कानूनों में संशोधन करने का कार्य आरंभ कर दिया है। अपने चुनाव मैनीफैस्टो में 15 लाख रोजगार पैदा करने के लिए राज्य में उद्योगमुखी वातावरण बनाने के नाम पर पिछले महीने केंद्रीय श्रम कानूनों, इंडस्ट्रियल डिसप्यूट एक्ट 1947, फैक्ट्रीज एक्ट 1948, ट्रेड यूनियन एक्ट 1926 तथा कंट्रैक्ट लेबर (रैगुलेशन एंड एबोलिशन) एक्ट को संशोधित करने की प्रक्रिया आरंभ कर दी थी। अब जुलाई महीने के शुरू में दो अन्य श्रम कानूनों, अप्रैंटिसशिप एक्ट 1960 तथा बायलरज एक्ट को संशोधित करने की भी प्रक्रिया शुरू कर दी है। इन संशोधनों में से अधिकतर श्रमिकों के हितों के विरुद्ध हैं। इस महीने के शुरू में इन संशोधनों को राज्य के मंत्रिमंडल ने सहमति प्रदान कर दी है तथा अब यह राज्य विधानसभा में पारित करने के लिए पेश किए जाएंगे।  यह प्रस्तावित संशोधन निम्न अनुसार हैं :
इंडस्ट्रियल डिसप्यूट एक्ट 1947 : औद्योगिक विवादों को हल करने के लिए देश की आजादी प्राप्ती के एकदम बाद बना यह कानून श्रमिकों व मालिकों के बीच पैदा हुए विवादों को हल करने से संबंधित है। अब तक इस कानून के अनुसार यदि 100 से अधिक श्रमिकों की किसी कारखाने या संस्थान से छंटनी करनी हो तो इसके लिए सरकार से अग्रिम अनुमति लेने की जरूरत होती है। परंतु राजस्थान सरकार के प्रस्तावित संशोधन के अनुसार 300 से अधिक श्रमिकों की छंटनी करने की स्थिति में ही सरकार से अग्रिम अनुमति की जरूरत होगी। एक अन्य प्रस्तावित संशोधन के अनुसार किसी भी श्रमिक के लिए पैदा हुए विवाद को संबंधित अधिकारी या अदालत के समक्ष ले जाने की समय सीमा 3 साल निश्चित हो जाएगी। इस समय इस बारे में कोई समय सीमा नहीं है। वह जब चाहे अपनी सुविधा के अनुसार विवाद को अपने कानूनी हक की प्राप्ति के लिए संबंधित अधिकारी के पास ले जा सकता है। इसी कानून के अनुसार इस समय यदि किसी श्रमिक को काम से हटाना हो तो उसे एक माह का नोटिस तथा 15 दिन का मुआवजा वेतन देना होता है, परंतु प्रस्तावित संशोधन में नोटिस समय 3 महीने करने तथा 3 महीने का ही मुआवजा वेतन देने का प्रस्ताव किया गया है। यूनियन की मान्यता प्राप्त करने के लिए भी अब समूचे श्रमिकों के 15 प्रतिशत के समर्थन की आवश्यकता होती है। इसे बढ़ा कर 30 प्रतिशत करने का प्रस्ताव है। इस तरह इंडस्ट्रियल डिस्प्यूट एक्ट 1947 में प्रदेश सरकार द्वारा प्रस्तावित 4 संशोधनों में से 3 श्रमिकों के हितों के विरुद्ध हैं। 
फैक्ट्रीज एक्ट, 1948 : स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद 1948 में बनाया गया यह कानून फैक्ट्री की परिभाषा, उसमें कार्य करने की स्थितियों आदि से संंबंधित हैं। इस समय कोई भी संस्थान या कारखाना जिस में बिजली का उपयोग उत्पादन/कार्य में नहीं होता है, उसमें यदि 20 तक श्रमिक कार्य करते हैं तो वह फैक्ट्री एक्ट के में नहीं आएगा बल्कि उसे दुकान मानते हुए उस पर शाप एंड इस्टैबलिशमैंट एक्ट लागू होता है। राजस्थान सरकार द्वारा इसके लिए श्रमिकों की संख्या दोगुनी करने का प्रस्ताव है। अर्थात यदि किसी संस्थान में बिजली का उपयोग उत्पादन/कार्य में नहीं होता है वहां 40 श्रमिकों तक कार्यरत हों वह संस्थान फैक्ट्री एक्ट में नहीं आएगा तथा दुकान ही माना जाएगा। इसी तरह बिजली के उत्पादन/कार्यप्रक्रिया में उपयोग वाले संस्थान/कारखाने में यदि 10 तक श्रमिक कार्यरत हैं तो उस पर फैक्ट्रीज एक्ट लागू होता है। इसके लिए भी श्रमिकों की संख्या दोगुनी किए जाने का प्रस्ताव है। अर्थात ऐसे संस्थान में यदि 20 से अधिक श्रमिक कार्यरत हों तभी वह फैक्र्ट्री एक्ट में आएगा। 
कंट्रैक्ट लेबर (रैगुलेशन एंड एबोलिशन) एक्ट 1960 : इस समय तक यह कानून, जो ठेकेदारी प्रथा में कार्य करने वाले श्रमिकों के हितों की रक्षा के लिए बनाया गया है, जिस संस्थान में 20 या इससे अधिक श्रमिक कार्य करते हों उस पर लागू होता है।  राजस्थान सरकार द्वारा प्रस्तावित संशोधन में यह कानून उन संस्थानों पर ही लागू होगा जिन में 50 या इस से अधिक श्रमिक कार्यरत होंगे। यह प्रस्ताव भी पूर्ण रूप में श्रमिकों के हितों के विरुद्ध हैं। 
ट्रेड यूनियन एक्ट 1926 : स्वतंत्रता प्राप्ति से पहले बनाया गया यह कानून ट्रेड यूनियनों की रजिस्ट्रेशन तथा उनकी कार्य प्रणाली से संबंधित है। इस समय किसी भी संस्थान/कारखाने में कुल श्रम शक्ति के न्यूनतम 10 प्रतिशत श्रमिकों का समर्थन यूनियन की रजिस्ट्रेशन के लिए जरूरी है। राजस्थान सरकार के प्रस्तावित संशोधन के अनुसार इस संख्या को बढ़ाकर कुल श्रम शक्ति का 30 प्रतिशत करने का प्रावधान है। इसके लिए भी इस संस्थान में ठेकेदार के अधीन कार्य कर रहे श्रमिकों को इस कानून के लिए श्रमिक नहीं माना जाएगा। इस संशोधन से यूनियन की रजिस्ट्रेशन और मुश्किल हो जाएगी। 
राजस्थान सरकार ने जून महीने में यह सभी संशोधन करने की प्रक्रिया आरंभ कर दी है। जुलाई के शुरू में इस सरकार ने अप्रैंटिसशिप एक्ट तथा बायलरज एक्ट में भी संशोधन करने की इच्छा प्रकट की है। राज्य के मुख्य सचिव के अनुसार स्टेट अप्रैंटिसशिप कौंसिल में तब्दीलियां करते हुए इस कानून में मुआवजे, लागू करने की प्रक्रिया तथा ढांचागत मानकों को नरम किए जाने का प्रस्ताव है। यदि कोई कंपनी जिसमें 250 से कम श्रमिक कार्यरत हैं, वह अप्रैंटिस रखती है तो उनकी आधी लागत सरकार वहन करेगी तथा 250 से अधिक श्रमिकों वाले कारखानों मेें सरकार लागत का चौथाई भाग वहन करेगी। बायलरज एक्ट, जिस द्वारा राज्य में चल रहे बायलरों (भाप से चलने वाली भ_ियां) की निगरानी की जाती है, में भी संशोधन प्रस्तावित किए गए हैं। उनके अनुसार अब सरकारी इंस्पैक्टरों द्वारा बायलर का निरीक्षण करके लाइसैंस जारी करना जरूरी नहीं होगा। बल्कि मान्यता प्राप्त एजैंसियां तथा गैर सरकारी संस्थानों द्वारा जारी किए गए प्रमाण पत्र के आधार पर भी लाइसैंस का नवीनीकरण किया जा सकेगा। इन प्रस्तावों को भी राजस्थान की वसुंधरा राजे सरकार के मंत्रिमंडल ने सहमति प्रदान करते हुए विधानसभा में पेश किए जाने के लिए रास्ता साफ कर दिया है। 
केंद्रीय श्रम कानूनों में राजस्थान सरकार द्वारा प्रस्तावित यह लगभग सभी संशोधन श्रमिकों के हितों के विरुद्ध हैं। सिर्फ एक आध संशोधन ही ऐसा है जो श्रमिकों के पक्ष में जाता है। श्रम, देश के संविधान के अनुसार समवर्ती सूची (Concurrent List) का विषय है। इसलिए केंद्र के साथ साथ राज्य सरकारों को भी इन कानूनों में संशोधन करने तथा इसके बारे में नियम बनाने का अधिकार है। परंतु राज्य की विधानसभा में इन संशोधनों के पारित होने के बाद, इन्हें कानून का रूप देने के लिए देश के राष्ट्रपति की  पुष्टि की आवश्यकता होती है। इसलिए ही वसुंधरा राजे सरकार ने इस प्रक्रिया को केंद्र में नरेंद्र मोदी सरकार के बनने के बाद ही प्रारंभ किया है। राजस्थान विधानसभा द्वारा पारित होने के बाद यदि राष्ट्रपति भी इनकी पुष्टि कर देते हैं तो यह संशोधित कानून राजस्थान राज्य में लागू हो जाएंगे। 
देश के पूंजीपतियों के संगठन सी.आई.आई. (CII) तथा फिक्की (FICCI) आदि श्रम कानूनों में इन प्रस्तावित संशोधनों से अति प्रसन्न हैं तथा अन्य राज्य सरकारों को इनकी ‘फोटो कापी’ करने के परामर्श दे रहे हैं। पंजाब की पी.पी.पी. के प्रमुख मनप्रीत सिंह बादल, जो कि पंजाब की पारंपरिक कम्युनिस्ट पार्टियों के नजदीकी सहयोगी हैं, ने भी पिछले दिनों ‘दि ट्रिब्यून’ में केंद्रीय बजट से एकदम पहले लिखे एक लेख में राजस्थान सरकार द्वारा किए जा रहे इन श्रमिक विरोधी संशोधनों के प्रति प्रसन्नता व्यक्त की है तथा उस सरकार को शाबाश दी है। 
देश की समस्त ट्रेड यूनियनों ने इन संशोधनों का जोरदार विरोध किया है। बी.जे.पी. से हमदर्दी रखने वाली तथा आर.एस.एस. से जुड़ी ट्रेड यूनियन भारतीय मजदूर संघ (बी.एम.एस.) के अखिल भारतीय नेता बैजनाथ राय ने कहा है कि जब बी.जे.पी. का मैनिफैस्टो तैयार किया जा रहा था, उस समय भी हम इस बारे में कमेटी के प्रमुख से मिले थे तथा श्रम कानूनों में सुधारों का विरोध किया था। 
राजस्थान सरकार के इस श्रमिक विरोधी कदम की निंदा करते हुए सीटू के अध्यक्ष ऐ.के. पदमनाभन ने कहा-‘अच्छे दिन आ गए  हैं। पर किसके लिए प्रश्न यह है? लगता है कि बी.जे.पी. ने राजनीतिक निर्णय ले लिया है कि श्रम कानूनों में संशोधन करने के मामले में राज्य सरकारें पहल करें। हम केंद्रीय ट्रेड यूनियनों के अपने साथियों से सलाह मशवरा करके आगामी एक्शन का फैसला करेंगे। हम एकजुट होकर स्थिति का मुकाबला करेंगे।’
एटक नेता तथा वरिष्ठ ट्रेड यूनियनिस्ट गुरूदास दासगुप्ता ने कहा ‘हम इस कदम की सख्त निंदा तथा विरोध करते हैं। हम मेहनतकशों को इसका प्रतिरोध करने का आह्वान करते हैं।’
केंद्र में बनी मोदी सरकार ने भी पिछले दिनों श्रम कानूनों में संशोधन करने की इच्छा प्रकट की है। जून महीने के अंतिम सप्ताह में श्रम मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने फैक्ट्रीज एक्ट, मिनीमम वेजिज एक्ट तथा चाइल्ड लेबर (प्रोहिविशन एंड रैगुलेशन) एक्ट में संशोधन करने की बात राज्यों के श्रम सचिवों की बैठक में की थी। जुलाई के पहले सप्ताह में श्रम राज्य मंत्री विष्णु देव ने लोक सभा में दिए एक लिखित उत्तर में फैक्ट्रीज एक्ट में संशोधन करने की बात की थी। श्रम सुधारों के नाम पर श्रम कानूनों में श्रमिकों के हितों के विरुद्ध संशोधन करने के प्रयत्न होते रहे हैं तथा इनका देश भर में सख्त विरोध भी होता रहा है। वास्तव में बी.जे.पी. इसीलिए ही अपनी राज्य सरकारों को आगे लगाकर एक तो ट्रेड यूनियनों में कितनी शक्ति है इसे परखना चाहती है। दूसरी ओर केंद्रीय सरकार पहले ऐसे संशोधन करने का प्रयत्न करेगी जो श्रमिकों के हितों के ज्यादा विरुद्ध नहीं हैं। बल्कि इन्हें समय अनुकूल बनाने से संबंधित हैं। इनके पारित होने के बाद अगले कदम के रूप में रोजगार पैदा करने, निवेश मुखी वातावरण बनाने तथा मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र को उत्साहित करने के नाम पर श्रमिक विरोधी संशोधन प्रस्तावित किए जाएंगे। यहां यह भी वर्णनयोग्य है कि केंद्र के श्रम विभाग ने तीन केंद्रीय श्रम कानूनों-फैक्ट्रीज एक्ट 1948, मिनीमम वेजिज एक्ट 1948 तथा अप्रैटिसशिप एक्ट के बारे में संशोधन अपने वैबसाईट पर डालकर उनके बारे में टिप्पणियां व राय मांगी है। इसी तरह केंद्रीय व्यापार व उद्योग मंत्री निर्मला सीतारामन ने राज्य सरकारों को चि_ी लिखकर बायलरज एक्ट के बारे में नियमों में संशोधन करके स्वयं -प्रमाणित योजना लागू करने के लिए कहा है। 
देश की कुल श्रमिक शक्ति का मात्र 8 प्रतिशत भाग ही संगठित क्षेत्र में कार्यरत है, जिन पर यह कानून लागू करने की व्यवस्था है। इनमें से भी बहुत बड़ी संख्या निजी क्षेत्र में काम करने वाले श्रमिकों की है। जिनमें से 70 प्रतिशत से भी अधिक पर यह कानून बिल्कुल भी लागू नहीं किए जा रहे। तथा वे अत्यंत दयनीय स्थितियों में काम करते हैं व सख्त मेहनत के बाद भी भूखे मरने योग्य वेतन (Starving Wages) ही प्राप्त करते हैं। आज हमारे राज्य में भी 70 प्रतिशत से अधिक श्रमिक ऐसे हैं जिनकी हाजिरी तक नहीं लगती अन्य कानून तो लागू होना दूर की बात है। आवश्यकता तो यह है कि देश भर में इन श्रम कानूनों को सख्ती से लागू किये जाने के लिये कदम उठाये जायें तथा श्रम विभागों में हर स्तर पर व्याप्त भ्रष्टाचार को लगाम लगाई जाये जो कि हमेशा मालिकों के हितों में सरकारी तंत्र के भुगतने में उत्प्रेरक बनता है। ऐसी स्थितियों में नरेंद्र मोदी, जो कि आम लोगों से ‘अच्छे दिन’ लाने का वादा करके सत्ता में आए हैं। वे श्रम सुधारों के नाम पर श्रम कानूनों में संशोधन करके श्रमिकों को जो थोड़ी बहुत रोटी मिल भी रही है, उसे भी छीनना चाहते हैं। वास्तव में वे अंबानी तथा अडाणी जैसे इजारेदारों के धन के बल पर जीत प्राप्त करके सत्ता में आये हैं तथा उनके ही हितों की पूर्ति करने की ओर आगे बढ़ रहे हैं। राजस्थान सरकार का श्रम कानूनों में संशोधन करने का कदम  वास्तव में इस एजंडे को आगे बढ़ाने की ओर पहला कदम है। देश के श्रमिक वर्ग को इस चाल को समझते हुए इस जनविरोधी कदम को वहीं ठप्प कर देना चाहिए। इसलिए देश स्तर पर एक जुझारू संघर्ष की आज जरूरत है। आशा है, देश की समस्त केंद्रीय व क्षेत्रीय ट्रेड यूनियनें अपने इस कर्तव्य को पहचानते हुए मोर्चा संभालेंगी।

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