Friday 6 September 2013

पहाड़ नहीं बचेंगे, तो देश नहीं बचेगा

डा. सुषमा नैथानी 

‘पर्वत वो सबसे ऊंचा, हमसाया आसमां का वो संतरी हमारा वो पासवां हमारा’
भारत की तीन दिशाओं में तैनात प्रहरी हिमालय क्षतिग्रस्त हो गया है, किसी बाहरी दुश्मन ने नहीं किया, ये भीतरघात है, 16 जून को हुई उत्तराखंड की तबाही हिमालय की बिलबिलाहट है,चेतावनी है। 
इस गुपचुप भीरतरी हमले की शुरूआत, हिमालय के जन जीवन पर आघात की कहानी, उत्तराखंड के हिमालयी क्षेत्र के दोहन की कहानी वर्ष 1815 में शुरू हुई, जब अंग्रेजों की सहायता से गढ़वाली और कुमायूं की सेनाओं ने गोरखा फौज को हराया और अपने क्षेत्र को आजाद किया। लेकिन अजादी की कीमत के तौर पर अंग्रेजों के साथ हुई संधि के तहत पूरा कुमायूं और गढ़वाल का एक हिस्सा सीधे अंग्रेजों के सुपुर्द हुआ। अंग्रेजी ने पहाड़ की छानबीन की, यहां की बहुमूल्य लकड़ी पर खासकर उनकी नजर गयी। 1823 में पहला वन अधिनियम आया, जिसने पहाड़ की जोत की जमीन के अलावा जो भी जमीन थी, सबको सरकारी घोषित कर दिया, जिनमें हर गांव के सामूहिक चारागाह, पंचायती वन, नदी, तालाब और नदी के आसपास की जमीन थी। 1885 में अंग्रेजों ने वन विभाग की स्थापना की और पहाड़ की आधे से ज्यादा जमीन पर कब्जा किया। अब उत्तराखंड की अस्सी प्रतिशत जमीन पर कई वन कानूनों के बाद वन विभाग का कब्जा है। 
पारंपरिक रूप से पहाडिय़ों की जीविका कई तरह की मिश्रित गतिविधियों से चलती थी, खेती उसका एक बहुत छोटा भाग था। नदी से मछली, जंगल से शिकार और बहुत कंदमूल फलों, वनस्पतियों, मशरूम आदि के संग्रहण से पोषण होता था। इसके अलावा पहाड़ के कई समुदाय खेती नहीं करते थे बल्कि उनकी जीविका का मुख्य आधार पशुपालन था। पशुपालक समुदाय तिब्बत, चीन, उत्तराखंड, नेपाल, लद्दाख, हिमाचल के बीच वर्ष भर घूमते और लगातार चीजों को खरीदते-बेचते हुए अपनी गुजर करते थे और पहाड़ की आत्मनिर्भर, संपन्न अर्थ व्यवस्था की रीढ़ थे। गढ़वाल का चांदी का सिक्का (‘गंगाताशी’) मुगल साम्राज्य के उत्कर्ष के दिनों में बी मुगल सिक्के से ज्यादा कीमत का था। अंग्रेज ने सिर्फ व्यक्तिगत सम्पति को ही वैध करार दिया और सारे पंचायती वन, चारागाह, नदी, नाले लोगों से छीन लिए। इस बदली स्थिति में जीविका के सारे रास्ते पहाड़ के लोगों के लिए बंद हो गए, पशुपालन मुमकिन न रहा बूढ़े-बच्चे और औरतों को छोडक़र घर के जवान लडक़े रोजगार की तलाश में मैदानों की तरफ दौड़े। अब बची खेती को जोतने के लिए सिर्फ बूढ़े और औरतें ही बचीं। हाकिम ने बड़े पैमाने पर पहाडिय़ों की भर्ती फौज में करने के लिए इन्डियन मिलेटरी अकादमी की स्थापना भी देहरादून में की। पहाड़ के इसी इलाके में कुमायूं रेजीमैंट, गढ़वाल राइफल, गोरखा राइफल, इंडो-तिब्बत बोर्डर फोर्स से लेकर हर तरह के सैनिक कार्यालयों और छावनियों की बसावट में पहाड़ी शहर बसे। बीसवी सदी की शुरूआत से पहाड़ की आत्मनिर्भत अर्थव्यवस्था धीरे धीरे ‘मनीआर्डर’ व्यवस्था में बदल गयी। 
इधर पहाड़ की लकड़ी बेचकर हाकिम का मुनाफा दिन दूना रात चौगुना हुआ। पहले साल 1924-1925 में फारेस्ट विभाग की आमदनी 5.67 करोड़ रुपये और सरप्लस मे्ं 2 करोड़ की लकड़ी। 56 वर्षों में (1869-1925 तक) लकड़ी बेचकर कुल मुनाफा 29 करोड़ और सरप्लस करीब 12 करोड़। बीस वर्ष बाद आजादी के समय तक अब तीस साल की कमायी एक साल मे्ं होने लगी। वर्ष 1944-45 में लकड़ी बेचकर एक साल का मुनाफा 12 करोड़ और सरप्लस करीब 5 करोड़। आजाद भारत के पिछले 56 सालों का भारत सरकार का मुनाफा भी इस गरीब क्षेत्र से कम नहीं हुआ होगा (मेरे पास फिलहाल आंकड़े नहीं, अंग्रेजों का धन्यवाद की उनके आंकड़े सहज उपलब्ध हैं)। भारत सरकार व प्रदेश की सरकारों के खाते मे्ं अनन और हायड्रो इलेक्ट्रिक पावर प्लांट की कमायी भी जुड़ी। आजाद भारत ने पहाड़ के मानव संसाधन के लिए किसी दूसरे रोजगार की व्यवस्था नहीं की, वन विभाग की हथियायी हुई जमीन को लोगों को नहीं लौटाया, न उसका इस्तेमाल पहाड़ के जन जीवन के विकास और संरक्षण के लिए किया। वर्ष 1823 के बाद अब तक कई वन अधिनियम बने जिनका सार ये है कि उत्तराखंड का अस्सी प्रतिशत से ज्यादा हिस्सा वन विभाग के कब्जे में है। आज पहाड़ की सिर्फ 7 फीसद जमीन खेती की बची है, जिसमें पहाड़ की दस प्रतिशत आबादी भी गुजर नहीं कर सकती। भारतीय फौज का बीस प्रतिशत आज भी दो प्रतिशत जनसंख्या वाले पहाड़ी इलाके से आता है। पहाड़ के लोगों के लिए विस्थापन विक्लप नहीं बल्कि जीवित बने रहने की शर्त है। 
उत्तराखंड सरकार, चाहे किसी भी राजनैतिक दल की बने, उसकी नीतियां औपनिवेशिक लूट-खसोट के ढांचे पर ही अब तक टिकी है। भूमंडलीकरण या ग्लोबलाईजेशन के बाद और उत्तराखंड बनने के बाद हुआ सिर्फ इतना है कि लूट खसोट बहुत तेज और एफिसियेंट (कुशल) हो गयी है। उत्तराखंड की हालिया तेरह वर्षों की विकास नीतियां सबके सामने हैं, जिनके केंद्र में हिमालय के जीव, वनस्पति और प्रकृति का संरक्षण कोई मुद्दा नहीं। हिमालयी जन के लिए मूलभूत, शिक्षा, चिकित्सा, और रोजगार भी  मुद्दा नहीं। वे पूरे उत्तराखंड को पर्यटन केंद्र, ऐशगाह और सफारी में बदल रहे हैं। निश्चित रूप से उत्तराखंड (सरकार का, माफिया व ठेकेदारों का) वन प्रदेश, खनन प्रदेश और ऊर्जा प्रदेश है। इसीलिए जितनी भी नीतियां हैं, वो जंगल, जमीन, और नदियों के दोहन के लिए हैं। ये जन प्रदेश नहीं हैं, ये जन के लिए नीतियां नहीं हैं।
पहाड़ के गरीब लोग पूरी एक सदी से ज्यादा समय से सिर्फ दिल्ली, लखनऊ, कलकता, बंबई ही नहीं, बल्कि ढाका, लाहौर और काबुल तक होटलों में बर्तन मांजते और भटकते रहे हैं। सौ साल में पूरे भारतीय उपमाहद्वीप की भटकन में उनका भला न हुआ तो अब बीसवीं सदी में चारधाम के छह महीने से भी कम समय तक खुले होटलों के सर्विस सेक्टर उनका क्या भला करेंगे? पर्यटन उद्योग के नाम पर जिस अंधाधुंध तरीके से अनियोजित इमारतों के निर्माण, सडक़ों का चौड़ीकरण, नदी नालों और तालाबों के मुहाने पर कूड़ाकरण हुआ है। उसने पापियों को भले ही पावन न किया हो, हिमालय को न सिर्फ दूषित कर दिया है, बल्कि अब क्षतिग्रस्त भी कर दिया है। 
जिन्हें हिमालय घूमना है, या तीर्थ दर्शन करने हैं वो अपने तम्बू लेकर घूमे, या पर्यटन एजैंसियां तम्बू किराए पर दें, अपना खाना खुद बनायें, या दुनियाभर के घुम्मकड़ों की तरह पैकैज्ड फूड ले जाएं, पाप धुले न धुले, यायावरी का सुख और स्वस्थ्य जरूर पर्यटकों के हिस्से आयेगा। 
उत्तराखंड राज्य सरकार को सिर्फ दैवी आपदा प्रबंधन नहीं करना है, उत्तराखंड सरकार को इस राज्य का प्रबंधन ठीक करने की जरूरत है। उत्तराखंड की तबाही के प्राकृतिक या दैवीय आपदा कह कर टालने से आने वाले सालों में आपदाओं की ही बाढ़ आयेगी। उत्तराखंड और हिमालय की संरचना और यहां के जन जीवन और ऐतिहासिक समझ की संगत में विकास नीतियां बनाने और उनके क्रियान्वयन की जरूरत है। हिमालय भुरभुरे मि_ी के पहाड़ों से बना है, यहां के पेड़ों की जड़ें इस मिट्टी को नम और बांधे रखती हैं। जंगलों के कटान के साथ ही तेज हवा, और पानी के वेग का सीधा आघात पहाड़ पर पड़ता है। और भीतर से सुरंगों के जाल बिछ जाने से पहाड़ों की प्रकृति के आघातों को झेलने की क्षमता नहीं बचती। लगातार कटाव के फलस्वरूप नंगे हो गए पहाड़ों, भीतर से लगातार खोकले हो गए पहाड़ों में बाढ़ व भूस्खलन का खतरा बढ़ता ही जाएगा। ये प्रकृति का नहीं विकास के माडल का कसूर है। 
पहाड़ की बिजली का विकल्प सौर ऊर्जा हो सकता है, शहरी इलाकों की जीवन पद्धति में कुछ परिवर्तन से बिजली की जरूरत कम की जा सकती है, लेकिन हिमालय का कोई विकल्प नहीं है, उसे रिपेयर करने की हमारी औकात नहीं है। नदियों और पहाड़ों का सृजन हम नहीं कर सकते। किसी भी सरकार और किसी भी एन.जी.ओ. की इतनी भी सामथ्र्य नहीं है कि वो हमारे पूर्वजों के हाड़तोड़ मेहनत से बनाये गए सीढ़ीदार खेतों की ही ठीक से मरम्मत कर सकें। 
हिमालयी क्षेत्र को बिना संरक्षित किये तबाही को बचाना नामुमकिन है, ग्रैंड कैनियन, यलो स्टोन पार्क आदि प्राकृतिक साइट्स की तरह हिमालय को भी मनुष्य जाति की धरोहर की तरह बचाना जरूरी है। पहाड़ नहीं बचेंगे तो मैदान भी नहीं बचेंगे, पूरा देश नहीं बचेगा।
‘जनमत’ से साभार

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