Sunday 17 November 2013

जाति-पाति की समाप्ति के लिए जरूरी है दृढ़ता भरपूर वैज्ञानिक पहुंच

मंगत राम पासला

भारतीय समाज में जाति-पाति का रोग बहुत गहरा धंसा हुआ है तथा यह बेहद पीड़ाजनक भी है। दुनिया में ऐसी उत्पीडक़ सामाजिक व्यवस्था सिर्फ भारतीय उप-महाद्वीप में ही मौजूद है जहां हर व्यक्ति का सामाजिक स्तर मोटे तौर पर उसकी जाति के अनुसार तय होता है ना कि उसके गुणों, अवगुणों या योग्यताओं के अनुसार। संक्षेप में भारतीय समाज को 2 तरह की जातियों में बांटा जाता है : स्वर्ण जाति या उच्च जाति तथा दलित, पिछड़ी, अछूत अर्थात् नीची जाति। चाहे समाज में इसके बिना आगे और भी कई तरह की जातियां/उप-जातियां मौजूद हैं परंतु हर जाति ने प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से पहली 2 श्रेणियों की जातियों से अपना सामाजिक संबंध जोड़ रखा है। 
सामंती व पूंजीवादी व्यवस्थाओं में शुरू से ही जनसमूहों के बड़े भागों की आर्थिक लूटखसूट मु_ी भर सामंतों, पूंजीपतियों व उनके दरबारी तथा कारिंदे निरंतर करते आ रहे हैं। साम्राज्यवादी विश्वीकरण के वर्तमान दौर में, वित्तीय पूंजी द्वारा तेज की गई इस लूट-खसूट के परिणामस्वरूप मेहनतकश लोगों की कंगालीकरण की प्रक्रिया और भी आधिक तीव्र हो गई है। भारत में 90 के दशक से शुरू की गई नव-उदारवादी नीतियों के फलस्वरूप जनसंख्या का लगभग 80 प्रतिशत भाग अर्थिक तंगियों, महंगाई, बेकारी, कुपोषण, शिक्षण तथा स्वास्थ्य सुविधाओं होने आदि की अमानवीय स्थितियों में जिंदगी जी रहा है। शोषित तथा तंगदस्तियों की मार झेल रही इस जनता में उच्च व निम्न जातियों से संबंधित दोनों ओर के करोड़ों लोग शामिल हैं।  ठगी जा रही इस जनता में 30 प्रतिशत के करीब लोग इन निम्न जातियों से संबंधित हैं जिन्हें अछूत, दलित, पिछड़े वर्ग आदि भिन्न भिन्न नामों से पुकारा जाता है। समाज के इस वर्ग को आर्थिक  बदहाली के साथ साथ हर तरह के सामाजिक उत्पीडऩ, सामाजिक अन्याय तथा अनेकों असमानताओं का सामना भी विशेष रूप से करना पड़ता है। दयनीय स्थितियों में रहकर भी अछूतों के रूप में तिरस्कृत यह लोग समाज के विकास व सेवा हेतु ऐसे कार्यों-धंधों में लगे हुए हैं जिन्हें करने से दूसरी जातियां विशेष रूप से उच्च जातियों के लोग पूरी तरह कन्नी कतराते हैं। ऐसा कार्य करना तो दूर की बात, बल्कि इन कामों में लगे हुए श्रमिकों के कार्यस्थल, आवासीय बस्तियां तथा उनकी झुग्गी झौपडिय़ों के पास से गुजरते हुए भी बहुत से सज्जन अपना नाक-मुंह ढक लेना पसंद करते हैं। 
क्योंकि संसार में अन्य कहीं भी जाति-पाति की ऐसी व्यवस्था नहीं मिलती, इसलिए दुनिया भर के महान क्रांतिकारियों, विद्वानों, दार्शनिकों तथा समाज सुधारकों ने चाहे आर्थिक लूट-खसूट, औपनिवेशिक व्यवस्था, राष्ट्रीय गुलामी जैसे अनेकों आर्थिक, सामाजिक तथा राजनीतिक प्रश्नों पर अर्थ भरपूर खोजें करके उनसे छुटकारा हासिल करने के लिए वैज्ञानिक उपाय सुझाए हैं, परंतु इन महान व्यक्तियों द्वारा जाति-पाति की व्यवस्था के बारे में कोई खास जानकारी नहीं दी गई है तथा न ही इससे छुटकारा प्राप्त करने की कोई विधि बताई गई है। क्योंकि यह प्रथा भारतीय उपमहाद्वीप से बाहर कहीं भी मौजूद ही नहीं है, इसलिए विश्व भर के अधिकतर विद्वानों के वक्तव्यों या लेखों में जाति-पाति की व्यवस्था से मुक्ति के उपायों के बारे में आशा रखनी तर्कसंगत ही नहीं है। कार्ल माक्र्स, वी.आई.लेनिन, माओ-जे-तुंग आदि जैसे महान दार्शनिकों, समाज विज्ञानियों व क्रांतिकारियों ने पूंजीवाद, साम्राज्यशाही व और अन्य तरह के अन्यायों के विरुद्ध वैचारिक क्षेत्र में महान रचनाएं की हैं तथा शोषक वर्गों के विरुद्ध वास्तविक रूप में वर्ग संघर्ष तेज करते हुए सोवियत यूनियन व लोक जनवादी चीन समेत अन्य अनेक देशों में समाजवादी ढांचों की स्थापना में अगुआ भूमिका अदा की। इसी तरह दुनिया के भिन्न भिन्न देशों में और भी अनेक क्रांतिकारी आंदोलन हुए हैं। 
इन स्थितियों में स्वाभाविक रूप में, यह दायित्व भारत के क्रांतिकारियों, समाज वैज्ञानिकों व समाजिक क्रांति के लिए प्रयत्नशील ताकतों का है कि वे जाति-पाति के इस सामाजिक कोढ़ को समझें, इस पीड़ा को महसूस करें, इसके कारणों की खोज करें तथा इससे निजात हासिल करने के लिए उपयुक्त उपाए व व्यवहारिक कार्यवाहियां सुझाएं। 
देश के भिन्न भिन्न भागों में, भिन्न भिन्न कालों में, अनेक समाज सुधारकों व धार्मिक नेताओं ने जाति-पाति के विरुद्ध शक्तिशाली आंदोलन संगठित किए तथा कथित निम्न जातियों से संबंधित लोगों से हो रहे भेदभाव के विरुद्ध आवाज बुलंद की। उच्च जातियों के किसी व्यक्ति का निम्न जाति के आदमी/औरत से स्पर्श होने पर अपवित्र हो जाने, दलितों व अन्य अछूत समझे जाने वाली जातियों के रहने के लिए अलग बस्तियां, अलग धार्मिक स्थान, अलग श्मशानघाट, अलग पानी के स्रोत, शिक्षा हासिल करने से मनाही तथा यहां तक कि बराबर योग्यता के बावजूद अछूत समझे जाते व्यक्ति/औरत को खास किस्म के रोजगार से वर्जित रखने की परंपरा, या कार्य करते समय ऐसे व्यक्ति के प्रति निरंतर तिरस्कार भरी कार्यवाहियां करने के विरूद्ध आवाज उठती रही है तथा अति निम्न स्तर की बेइंसाफियां व भेदभाव भरे अमावनीय रीति रिवाजों के विरुद्ध लोगों को एकजुट होकर संघर्ष की प्रेरणा भी बहुत सारे समाज सुधारकों व क्रांतिकारियों ने दी है। ऐसे समाज सुधारकों द्वारा खुद इन संघर्षों में कूदकर अनेक प्रकार के दमन व उत्पीडऩ को सहने की उदाहरणों से भी हमारा इतिहास भरा पड़ा है। बाबा मंगू राम (गदरी बाबा), बाबा साहिब बी.आर. अंबेडकर, शाहू जी महाराज, ज्योति राव फुले आदि अनेक सम्मानयोग्य व वर्णनयोग्य नाम गिने जा सकते हैं। जिन्होंने मनुवादी जाति-पाति प्रथा को खुद गहराई तक महसूस किया तथा इसके विरुद्ध समस्त जीवन संघर्ष किया। हमारे इस क्षेत्र में सिख गुरुओं ने व अन्य संत भक्तों ने भी अपने उपदेशों तथा व्यवहारों द्वारा समाज में जाति-पाति तोडक़र सबको समान स्थान देने के भरपूर प्रयत्न किए। 
भारत का कम्युनिस्ट आंदोलन, जो साम्राज्यवादी गुलामी व पूंजीवाद का खात्मा करके भाईचारे, समानता व आजादी के सिद्धांतों पर आधारित समाज का निर्माण करने के उद्देश्य को लेकर अस्तित्व में आया, ने भी ऐसे समाज की कल्पना की जहां कि इंसान द्वारा इंसान के हर प्रकार के शोषण का खात्मा हो तथा जाति, लिंग, धर्म, राष्ट्रीयता, बोली, रंग आदि मुद्दों पर किसी किस्म का कोई भेदभाव या अन्याय न हो। केरल में कम्युनिस्टों के नेतृत्व में देश के आजादी संग्राम में डाले गए महत्त्वपूर्ण योगदान व समाजवादी आंदोलन खड़ा करने के साथ साथ मंदिरों में दलितों के प्रवेश पर लगी पाबंदी के विरुद्ध विशाल जनआंदोलन चलाया गया। अन्य भी कई प्रांतों में कम्युनिस्ट पार्टियों में जाति-पाति के बंधनों को तोडक़र मेहनतकशों की एकता के लिए जोरदार संघर्ष ही नहीं किये बल्कि अंतरजातीय विवाहों द्वारा तथा पार्टी संगठनों में किसी तरह के जाति-पाति आधारित भेद-भाव की भी मनाही करते हुए इस सामाजिक बुराई को दूर रखने के प्रयत्न किये। जहां कहीं तथा जिस सीमा तक भी कम्युनिस्टों द्वारा सामाजिक उत्पीडऩ के मुद्दों को गंभीरता से लेकर जनआंदोलन किए गए, वहां दलित व पिछड़े वर्गों के लोगों ने वाम आंदोलन में पर्याप्त शिरकत की है। 
परंतु  आज तक भारतीय इतिहास मेंं जाति-पाति की निर्दयी प्रथा को तोडऩे के लिए किए गए भरसक प्रयत्नों तथा विशेष रूप से कम्युनिस्ट पार्टियों द्वारा यह सबकुछ करने के बावजूद, हमारे समाज में न ही जाति-पाति जैसी सामाजिक कुरीति खत्म हुई तथा न ही जाति-पाति आधारित सामाजिक उत्पीडऩ व भेदभाव ही बंद हुआ। वामपंथी आंदोलन व विशेषकर कम्युनिस्ट नेताओं द्वारा जाति-पाति के विरुद्ध उठाई गई जोरदार आवाज के बावजूद आजादी के बाद, आजतक देश की अछूत समझी जाती आबादी के  बड़े भाग को जिनमें दलित, पिछड़ी जातियां व अनेक कबीले शामिल हैं, देश का वाम व कम्युनिस्ट आंदोलन अपने घेरे में नहीं ले सका है। ना ही अभी दलित आबादी अपने विरुद्ध हो रहे भेदभावों या ज्यादतियों का समाधान वामपंथ से जुडक़र संयुक्त जनवादी आंदोलन के विकसित होने तथा समाजवादी व्यवस्था की स्थापना में देखती है। पूंजीवादी व्यवस्था जो समाज में हो रहे हर तरह के आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक व राजनीतिक भेदभावों के लिए मुख्य रूप से जिम्मेवार है, की जगह कथित निम्न व पिछड़ी जातियों से संबंधित जनसमूह अपने दुखों तकलीफों के लिए मूल रूप में मनुवादी वर्ण व्यवस्था को मुख्य दोषी मानते हैं। इसीलिए वे ऐसे राजनीतिक दलों या नेताओं के प्रभाव में जाना अधिक बेहतर समझते हैं जो मनुवादी विचारधारा के विरुद्ध खुलकर बोलें (चाहे मौखिक रूप में ही) तथा उच्च जातियों के प्रति अधिक से अधिक नफरत फैलाएं। वैसे चाहे वे नेता मौजूदा शोषण आधारित पूंजीवादी व्यवस्था की रक्षा व मजबूती के पक्ष में ही हों। सदियों से, सामाजिक रूप में, तरह तरह के अमानवीय अत्याचारों से पीडि़त होने के कारण विचारों के रूप में पिछड़े लोग वर्गीय उत्पीडऩ के मुकाबले जाति-पाति आधारित अत्याचारों को अधिक दुखदायक समझते हैं। यह बात अलग है कि आर्थिक शोषण के विरुद्ध वर्ग संघर्ष व सामाजिक उत्पीडऩ के विरुद्ध संघर्ष एक दूसरे के प्रतिपूरक व मददगार हैं तथा अंतिम रूप में जाति-पाति समेत हर तरह के शोषण व अत्याचारों की समाप्ति पूंजीवाद की समाप्ती के साथ मेहनतकश वर्गों के हाथों में राजसत्ता की बागडोर आने पर समाजवाद की वास्तविक स्थापना से ही संभव हो सकती है। 
आज जरूरत है कि वाम आंदोलन सामाजिक उत्पीडऩ के मुद्दे को आवश्यक गंभीरता से न उठाने की अपनी इस कमजोरी की आलोचना करे, जिसने जाति-पाति के आधार पर विभाजित समाज में अछूत समझे जाते जनसमूहों के प्रति हो रहे अन्याय, ज्यादतियां व अत्याचारों का पूर्ण अहसास नहीं किया तथा न ही इसके विरुद्ध ठोस व निरंतर संघर्ष चलाया। इसे अक्सर समस्त समाज के वर्ग संघर्ष से जोडक़र ही देखा गया व समाजवाद की स्थापना के बाद जातिपाति जैसी सामाजिक समस्या अपने आप समाप्त होने की दलील दी जाती रही। यहां तक भी कहा जाता रहा है कि सामंती व्यवस्था की उपज, जाति-पाति व्यवस्था का अंत पंूजीवाद के विकास के साथ अपने आप ही हो जाएगा। यह धारणा गलत सिद्ध हुई। समाजवादी आंदोलन में सामाजिक भेदभाव से पीडि़त लोगों को कैसे खींचा जा सकता है, बिना उन लोगों से संबंधित मुद्दों पर संघर्ष किये के? यह प्रश्न काफी हद तक अनदेखा किया गया। यदि दलितों से हो रहे किसी अत्याचार का मुद्दा लेकर वामपक्ष द्वारा कोई संघर्ष चलाया भी गया, वह भी इस तरह जैसे किसी के ‘बुलावे’ पर जाया जाता है (एहसान करने की तरह) न कि अपने वर्ग का मुद्दा समझकर अपने वर्ग से हुई ज्यादती की तरह। इसीलिए कुछेक क्षेत्रों को छोडक़र, कम्युनिस्टों ने चाहे सामाजिक उत्पीडऩ के मुद्दों पर आवाज बुलंद जरूर की है, परंतु संबंधित निम्न जातियों के लोग भावनात्मक रूप में वाम आंदोलन से नहीं जुड़े क्योंकि वे कम्युनिस्टों को ‘बुलावे’ पर आए हिमायती ही समझते रहे, अपने समाज में पैदा हुए अपने नेता नहीं। 
जनवादी व वाम आंदोलन के विकास के लिए यह अत्यंत जरूरी है कि आबादी के 30 से 35 प्रतिशत तक इस भाग, जिसे अछूत व निम्न जातियों से संबंधित होने के परिणामस्वरूप सदियों से अमानवीय सामाजिक उत्पीडऩ का सामना करना पड़ रहा है, को हर हालत में क्रांतिकारी धारा का प्रमुख अंग बनाया जाये। जिस तरह जाति-पाति के नाम पर काम करने वाली राजनीतिक पार्टियां तथा व्यक्ति विशेष दलित व पिछड़े समाज को जाति-पाति आधार पर लामबंद कर रहे हैं व राजनीतिक लाभ उठाकर मौजूदा शोषण आधारित समाज को मजबूत करने में लगे हुए हैं, उनकी संकुचित, अवसरवादी व निजी हितों से प्रेरित राजनीतिक चालों से भी इन लोगों को बचाना तथा वामपक्ष से जोडऩा प्रगतिशील शक्तियों का प्रमुख कार्य बन जाता है। वास्तव में ऐसे तत्वों का मौजूदा जाति-पाति व्यवस्था को कायम रखने में ही अपना स्वार्थी हित छुपा हुआ है। जिस तरह कांग्रेस व भाजपा जैसी राजनीतिक पार्टियां जो आजादी के बाद दलितों व समाज के अन्य पिछड़े वर्गों को आरक्षण व अन्य नग्ण्य से आर्थिक लाभों का लालच देकर इन लोगों की सिर्फ वोट हासिल करने तक सीमित रही हैं, बुनियादी रूप में इन वर्गों के जीवन में कोई साकारात्मक परिवर्तन लाने में पूरी तरह अयोग्य सिद्ध हुई हैं। उसी तरह बसपा, सपा, राजद, जैसे अनेकों जाति-पाति व पिछड़ी जातियों पर आधारित राजनीतिक दल भी झूठे नारे व वायदों से दलितों का समर्थन जुटाकर उन्हें पूंजीवादी व्यवस्था में सिर्फ गुलाम बनाकर रखने के लिए ही ऐड़ी-चोटी का  जोर लगा रहे हैं। दोनों पक्षों का ऐजंडा दलितों व अन्य अछूत जातियों को मौजूदा संताप में से बाहर निकालकर समानता, आजादी व खुशहाली भरा जीवन प्रदान करने का नहीं बल्कि उनके आर्थिक, राजनीतिक व वैचारिक पिछड़ेपन का लाभ लेकर अपने जनआधार को पक्का करने तक ही सीमित है ताकि वे इन जनसमूहों का समर्थन प्राप्त करके सत्ता पर काबिज रह सकें। 
जाति-पाति आधारित आरक्षण के नाम पर शोषक वर्गों की राजनीतिक पार्टियां दलितों व पिछड़े वर्गों के लोगों को बुद्धु बनाती आ रही हैं। इस ‘रियायत’ के लिए भारतीय संविधान का गुणगान भी किया जाता है, जो संविधान मूल रूप में शोषित वर्गों के हितों की पूर्ण रूप से रक्षा करने तथा शोषित जनता को इस दयनीय स्थिति में जिंदा रहने की ‘गारंटी’ करता है। चाहे सदियों से आर्थिक व सामाजिक रूप में निचले स्तर से पीडि़त लोगों में से कुछेक को ‘आरक्षण की सुविधा के कारण’ पढऩे व नौकरियां करने के अवसर मिल जाते हैं, परंतु इस तरह पढ़े लिखे बनकर नौकरियां करने वाले सज्जनों में से बहुत बड़ा भाग अपने जैसे अन्य लोगों के बारे में सोचने व समस्त शोषित व्यवस्था को बदलने में कोई योगदान डालने की जगह निजी स्वार्थ व स्व-उन्नति के लिए ही प्रयत्नशील रहता है। इस तरह दलितों व पिछड़े वर्गों में एक छोटा सा इस तरह का वर्ग उभरा है जो आरक्षण का लाभ लेकर अन्य के मुकाबले बढिय़ा व खुशहाल जिंदगी व्यतीत करने लगा है। इस वर्ग के हित दलितों, पिछड़े वर्गों के लोगों के मुकाबले आर्थिक व सामाजिक रूप से संपन्न लोगों से ज्यादा मेल खाते हैं। आरक्षण के बावजूद समूचे समाज के मेहनतकशों की तरह दलित, अछूत व पिछड़े वर्गों के लोग भी नर्क भरी जिंदगी व्यतीत करने के लिए मजबूर हैं। आजकल ‘आरक्षण’ की मांग हास्यस्पद सी बन गई है, जब हर वर्ग व जाति के लोग (जैसे ब्राह्मण व जाट आदि) आरक्षण की मांग मनवाने के लिए सडक़ों पर निकल पड़े हैं। ऐसे आंदोलनों के पीछे भी आमतौर पर सत्ताधारी वर्गों के नेता देखे जा सकते हैं। निजीकरण की प्रक्रिया में शिक्षा व नौकरियों में आरक्षण का अर्थ वैसे भी कुछ नहीं रह जाता क्योंकि मुनाफा कमाने की दृष्टि से भिन्न भिन्न निजी कारोबार व शिक्षण संस्थान चलाने वाले व्यक्तियों के लिए ‘आरक्षण’ की कोई रियायत देना आवश्यक नहीं है। वैसे जब मौजूदा नव-उदारीकरण के दौर में नई नौकरियां पैदा ही नहीं हो रहीं तथा पुराने रोजगार छीने जा रहे हैं, तब समूचे लोगों को रोजगार देने की मांग उठाने की जगह जाति-पाति या धर्म आधारित आरक्षण देने की मांग करना बिलकुल भी तर्कसंगत नहीं दीखता। समूचे रूप में ‘आरक्षण’ की नीति ने न तो सामाजिक रूप से उत्पीडि़त लोगों के विशाल भागों को ही कोई अच्छी जिंदगी दी है तथा न ही आरक्षण का लाभ लेने वाले सज्जनों ने अपने बढ़े हुए ज्ञान व सुधरी आर्थिकत स्थिति से समूचे क्रांतिकारी आंदोलन को मजबूत करने में कोई विशेष योगदान दिया है; जिसको मजबूत करके ही सदियों से चले आ रहे आर्थिक व सामाजिक अत्याचारों का अंत होना निश्चित है। 
आज सामाजिक परिवर्तन के अंदोलन को मजबूत करने के लिए आर्थिक व राजनीतिक मुद्दों द्वारा सामाजिक उत्पीडऩ के प्रश्न को भी प्रमुखता से उठाने की जरूरत है। इस कार्य के लिए राजनीतिक रूप में चेतन साथी, जो उच्च जातियों व वर्गों से संबंधित हों व वाम आंदोलन से जुड़ें हों, को दलितों व पिछड़ वर्गों के बीच अधिक दृढ़ता व प्रतिबद्धता से राजनीतिक कार्य करते हुए प्रयत्न करना चाहिए कि इस पीडि़त भाईचारे में से स्त्री व पुरूष अधिक से अधिक संख्या में जनवादी आंदोलन में शामिल हों तथा अपने में से नए नेताओं को उभारें। वामपंथी संगठनों को दलित व पिछड़े समाज से संबंधित कार्यकत्र्ताओं को अधिक से अधिक संख्या में नेतृत्व में जगह देने के प्रयत्न करने की जरूरत है। कई बार देखा गया है कि कम्युनिस्ट पार्टी व जनसंगठनों में उच्च जातियों व आर्थिक रूप से मजबूत वर्गों में से आए तथा दलितों व गरीब वर्गों में से उभरे कार्यकत्र्ताओं को नेतृत्व में जगह देने के समय भिन्न भिन्न पैमाने इस्तेमाल किये जाते हैं, जिससे दलितों से संबंधित साथी अपमानित या नजरअंदाज हुआ महसूस करते हैं। चाहे कम्युनिस्ट संगठनों में जाति-पाति आधारित आरक्षण या रेखा कदाचित नहीं खींची जा सकती तथा यहां विचारधारक व राजनीतिक चेतना का स्तर, वर्ग संघर्ष में व्यवहारिक योगदान व प्रतिबद्धता जैसे गुणों को सामने रखा जाता है, परंतु यह पैमाना दोनों ओर एक ही तरह का इस्तेमाल किया जाना चाहिए। सामाजिक उत्पीडऩ का एहसास, जिसको पिछड़े व दलित वर्गों से संबंधित लोग अपने तन पर सह रहे हैं, अन्य साथियों को भी उतना ही होना चाहिए जो इन वर्गों से संबंधित नहीं हैं। पार्टी संगठन में सामाजिक उत्पीडऩ के मुद्दे आम तौर पर दलितों व निम्न जातियों से संबंधित साथी ही उठाते हैं व अन्य सिर्फ इन्हें सुनने या मौखिक सहमति देने तक ही सीमित रखकर संतोष कर लेते हैं। अधिकतर तो दलितों या निम्न जातियों से संबंधित नेता दूसरों से डरते या झिझकते हुए सामाजिक अत्याचारों के प्रश्नों को छूते तक नहीं। यदि कभी कोई सामाजिक अत्याचार का प्रश्न उठता भी है तो समाज का यह पीडि़त पक्ष किसी सामाजिक ज्यादती या भेदभाव के विरुद्ध आवाज बुलंद करके संघर्ष के राह चलता है तो भी अधिकतर स्पष्ट रूप में पीडि़त पक्ष के साथ खड़े होने व ज्यादती करने वाले लोगों के विरुद्ध स्टैंड लेने की जगह लीपापोची करके ‘समझौता’ करवाने के लिए जरूरत से अधिक तीव्रता दिखाई जाती है। इस व्यवहार से अपमानित पक्ष, जिससे ज्यादती हुई होती है, कभी भी मन से क्रांतिकारी आंदोलन से नाता नहीं जोड़ेगा। सिर्फ बातों से नहीं बल्कि व्यवहार से सामाजिक उत्पीडऩ के विरुद्ध जंग लड़ी जानी चाहिए, जो समूचे जनवादी संघर्ष का बहुत ही महत्त्वपूर्ण अंग है। सीपीएम पंजाब ने 2001 में अपनी स्थापना के बाद से इस दिशा में काफी सुधार किया है। परंतु अभी भी यह बुनियादी कदम ही है तथा भविष्य में बहुत कुछ करना बाकी है। 
यदि समस्त वामपंथी शक्तियों द्वारा भारतीय समाज की ठोस हकीकतों, जिनमें प्रचलित जाति-पाति ढांचा एक महत्त्वपूर्ण बिंदू है, को अब की तरह नजरअंदाज करना जारी रखा गया, तो इस में कोई शंका ही नहीं है कि पिछड़ा व दलित समाज मौजूदा शोषक वर्गों की एक जा दूसरी राजनीतिक पार्टी से ही जुड़ा रहेगा या इनसे निराश होकर नई उभर रही जाति-पाति आधारित पार्टियों व संगठनों में शामिल हो जाएगा जो विचारधारक व राजनीतिक रूप में मौजूदा पूंजीवादी व्यवस्था को समूचा रखने के ही समर्थक हैं। सामाजिक परिवर्तन का समूचा आंदोलन भी वास्तविक रूप में तब ही मजबूत हो सकेगा, यदि देश की मेहनतकश जनता के विशाल भाग, जिसमें दलित, निम्न व पिछड़ी जातियों से संबंधित लोग व आदिवासी शामिल हैं, जनवादी व क्रांतिकारी शक्तियों से कंधा से कंधा मिलाकर जनसंघर्षों के रास्ते चलेंगे। इस कार्य के लिए समस्त वामपंथियों को अपने अतीत पर नजर दौड़ाकर इस संबंध में रह गई कमजोरियों की पहचान करनी चाहिए तथा भविष्य में इन भूलों को सुधारने के लिए उपयुक्त रणनीति तय करनी चाहिए।

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